5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर जब उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने यह ऐलान किया कि उत्तराखंड पहला राज्य होगा जहां विकास को मापने के लिए ग्रोस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट (जीईपी) यानी सकल पर्यावरण उत्पाद को लागू किया जाएगा, तो यह राज्य के लिए ऐतिहासिक पल था। साथ ही उन पर्यावरणविदों के लिए भी जो तकरीबन एक दशक से जीईपी को लागू किए जाने पर जोर दे रहे थे।
देहरादून स्थित पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश जोशी ने बताया, “जीईपी का मतलब है प्राकृतिक संसाधनों में हुई वृद्धि के आधार पर समय-समय पर पर्यावरण की स्थिति का आकलन करना।” उत्तराखंड पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र है। इसके बावजूद बीते दशकों में राज्य में पर्यावरण को पहुंचने वाला नुकसान स्वीकार्य स्तर से कहीं ज्यादा पहुंच गया है। इसके चलते आपदाएं बढ़ गई हैं, जिससे इंसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। जोशी ने समझाया कि तात्कालिक रूप से जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों में होने वाले विकास के समानांतर मौजूदा विकास के उन ढांचों पर नजर रखी जाए, जिन्हें आर्थिक विकास के आधार पर मापा जाता है। ऐसे उपाय से आकलन किया जा सकेगा कि विकास योजनाओं का पर्यावरण पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है, जिससे यह विश्लेषण किया जा सकेगा कि किस स्तर तक विकास योजनाओं को अनुमति दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसा करने से आने वाले समय में अर्थव्यवस्था टिकाऊ बनेगी।
हालांकि यह मौलिक विचार, जिसे जोशी की संस्था हिमालयन इनवायरमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गेनाइजेशन (हेस्को) और कई अन्य पर्यावरणविद लागू कराने के लिए लंबे समय से प्रयासरत हैं, इसे लेकर संशय है कि सरकार जीईपी की अवधारणा को जस का तस लागू करेगी (देखें, पर्यावरण इतिहास की लंबी डगर)।
पर्यावरण इतिहास की लंबी डगरउत्तराखंड की जीईपी पहल कई वर्षों के कानूनी और सामाजिक प्रयासों के बाद साकार रूप ले रही है2009-10 हिमालयन इनवायरमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गेनाइजेशन (हेस्को) के अनिल प्रकाश जोशी ने ग्रोस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट का विचार सामने रखा, जिसे तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने पारित किया। सरकार बदलने के कारण योजना आगे नहीं बढ़ पाई 2011 जोशी ने नैनीताल हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। राज्य ने तर्क दिया कि उसके पास जीईपी की गणना के लिए कोई मानक नहीं है। कोर्ट ने याचिका को टाल दिया 2014-15 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जोशी से जीईपी पर राय मांगी और एक कमेटी का गठन किया। जोशी ने एक और याचिका दाखिल की, जिसका जवाब सरकार ने सकारात्मकता से दिया। भोपाल स्थित भारतीय वन प्रबंधन संस्थान को इस बात का जिम्मा सौंपा गया कि वह राज्य में बची मिट्टी, पानी और रहने लायक स्थान की गणना करे। 2018 राज्य के नए मुख्य सचिव ने जीईपी में रुचि दिखाई। काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के डायरेक्टर ने हेस्को को नागपुर स्थित नेशनल इनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) से जोड़ा, ताकि जीईपी की गणना के लिए एक समीकरण तैयार किया जा सके 2019 राज्य सरकार की सहभागिता से जीईपी समीकरण तैयार करने के लिए जोशी और नीरी समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने पर सहमत हुए 2020 तत्कालीन मुख्य सचिव आनंद बर्धन की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय समिति देहरादून स्थित वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में मिले 2021 जीईपी लागू करने की घोषणा करने वाला पहला राज्य बना उत्तराखंड, मानकों की पहचान करना और फॉर्मूला तैयार करने की शुरुआत हुई |
जीडीपी या आर्थिक विकास के साथ जीईपी को जोड़ने को लेकर जोशी संशयी हैं। उन्हें चिंता है कि इससे मूल विचार प्रभावी नहीं रहेगा। इस घोषणा के तुरंत बाद, राज्य सरकार ने सूचकों की पहचान करने और जीईपी लागू करने के लिए फॉर्मूला तैयार करने की प्रक्रिया को हरी झंडी दिखा दी है। उत्तराखंड के वन व पर्यावरण विभाग के मुख्य सचिव आनंद बर्धन ने डाउन टू अर्थ को बताया कि जीईपी नई अवधारणा है, लिहाजा अभी राज्य ने इसकी गणना करने के लिए मानक तय नहीं किए हैं। फिलहाल उनका विभाग, जिसे जीईपी लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई हैं, कई संस्थानों से बात कर रहा है। इनमें नागपुर स्थित नेशनल इनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी), देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमायलन जियोलॉजी और द यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम स्टडीज, रुड़की स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और जोशी की संस्था शामिल है।
बर्धन ने कहा कि संस्था का चयन होते ही, संस्था स्वयं ही मानकों का निर्धारण करेंगी, जिन्हें लागू किए जाने से पहले उचित समिति द्वारा उनका आकलन किया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि वर्ष के अंत तक इस संबंध में प्राथमिक रिपोर्ट पेश की जाएगी। आनंद बर्धन, मार्च 2020 में गठित की गई पांच सदस्यीय कमेटी के भी अध्यक्ष हैं जिसे जीईपी की गणना करने का उपाय पेश करना है। हालांकि बर्धन का कहना है कि जीईपी की गणना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की तर्ज पर की जाएगी।
ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य के डायरेक्टोरेट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड स्टैटिसटिक्स के द्वारा अधिकृत और भोपाल के भारतीय वन प्रबंधन संस्थान (आईआईफएम) और दिल्ली-स्थित परामर्श संस्था आईओआरए इकोलॉजिकल सॉल्यूशंस द्वारा तैयार की गई 2018 की एक रिपोर्ट के आधार पर सरकार फॉर्मूला तैयार कर रही है। यह रिपोर्ट उत्तराखंड के वन क्षेत्रों के 21 पारिस्थितिकी तंत्रों की सेवाओं और राज्य की जीडीपी में उनके योगदान का आर्थिक अनुमान प्रस्तुत करती है। उत्तराखंड के भूगोलीय क्षेत्र में वनों की हिस्सेदारी तकरीबन 71 फीसदी है। इसके बावजूद रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य की जीडीपी में (2015-16 में) वानिकी की हिस्सेदारी महज 2.08 फीसदी है।
रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड के जंगलों से होने वाले फायदों की कीमत 95,112 करोड़ रुपए सालाना है। चूंकि यह फायदे उत्तराखंड तक सीमित नहीं हैं और नीचे के राज्यांे तक भी पहुंचते हैं, लिहाजा यह रिपोर्ट तर्क देती है कि राज्य को “ग्रीन बोनस” दिया जाना चाहिए, जिससे नुकसान पहुंचाए गए प्राकृतिक वनों और पर्यावरणीय संसाधनों को पुनर्जीवन दिया जा सके और इनका संरक्षण करने में होने वाले खर्च को वहन किया जा सके। इसलिए आईआईएफएम की अगुवाई में तैयार की गई यह रिपोर्ट जीईपी की एक संरचना प्रदान करती है, जो राज्य के सभी प्राकृतिक संसाधनों का आर्थिक मूल्य दर्शाती है और इसे “ग्रोस ईकोसिस्टम प्रोडक्ट” के नाम से जाना जाता है।
डाउन टू अर्थ से बात करते हुए इस रिपोर्ट की प्रमुख लेखक मधु वर्मा (पूर्व में आईआईएफएम के साथ जुड़ी थीं और वर्तमान में वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट-इंडिया की प्रमुख आर्थिक सलाहकार हैं) ने ग्रोस ईकोसिस्टम प्रोडक्ट के बारे में अपने विचार बताए और यह भी बताया कि इसे कैसे लागू किया जा सकता है। वर्मा बताती हैं कि एक साल में एक राज्य या देश जो भी उत्पादन कर रहा है उसके जोड़ को जीडीपी कहते हैं। इसमें रेलवे और निर्माण जैसी सेवाएं भी शामिल हैं। ठीक ऐसे ही ग्रोस ईकोसिस्टम प्रोडक्ट उन सभी उत्पादों और सेवाओं का कुल जोड़ है जो किसी क्रियाशील जीवित पारिस्थितिकी तंत्र के अंदर उत्पादित होती हैं और जो इंसानी समृद्धि और सतत विकास के लिए जरूरी हैं। उन्होंने कहा, “यह सभी उत्पाद प्राकृतिक रूप से विकसित होते हैं और हम इनमें बदलाव और वृद्धि कर सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर एक पेड़ ऑक्सीजन, जलावन की लकड़ी, छांव, चारा और शरण देता है। वह पानी का नियंत्रण करने, नाइट्रोजन का अनुपात सही रखने, बाढ़ रोकने, मिट्टी की उर्वरकता बढ़ाने के साथ और भी कई काम भी करता है। यह सभी फायदे जीवित पारिस्थितिकी तंत्र के द्वारा प्रदान की जाने वाली अदृश्य सेवाएं हैं, जो साल भर हमें मिलती रहती हैं और कुछ खास संकेतकों के इस्तेमाल से इन्हें मापा जा सकता है।”
कीमत बनाम कीमत
जोशी का कहना है कि जीईपी का आकलन करने के लिए किसी संकेतक को तैयार करने की जरूरत नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों की देखभाल करने वाली राज्य की संस्थाएं ही उसकी निगरानी कर सकती हैं। वैसे भी, जीईपी का पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं से कोई लेना-देना नहीं है। सकल पर्यावरण उत्पाद और सकल पारिस्थितिकी तंत्र उत्पाद में बहुत सूक्ष्म सा अंतर है। जोशी ने जो जीईपी प्रस्तावित किया, उसे एक साल में आर्थिक विकास के समकक्ष एकत्र होने वाली संसाधनों की मात्रा के तौर पर देखा जा सकता है। जोशी कहते हैं, “किसी को सेवा भी तभी मिल सकती है जब कोई संसाधन मौजूद हो।
उदाहरण के तौर पर, जंगल पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाएं तब नहीं दे पाएंगे जब वे स्वयं खराब स्थिति में हैं।” जोशी का जीईपी का विचार, पारिस्थितिकी तंत्र के विकास से जुड़ा है। इसके लिए उन्होंने चार प्राकृतिक संसाधनों को जीईपी के स्तंभों के तौर पर चिह्नित किया है- जल, जंगल, मिट्टी और हवा। उनका कहना है कि बाकी सब संसाधन इन्हीं के उपफल हैं। उदाहरण के तौर पर कृषि जल, अच्छी मिट्टी और उपयुक्त पर्यावरण पर निर्भर करती है। जोशी ने आगे यह समझाया कि जीईपी की गणना कैसे की जाएगी। 90 फीसदी से ज्यादा वर्षा जल बह जाने के कारण खो जाता है। जीईपी अपनाकर राज्य यह जान पाएंगे कि वर्षा जल संचयन के विभिन्न ढांचों को अपनाकर कितना जल एकत्र किया जा सकता है। उन्होंने बताया, “उदाहरण के तौर पर हेस्को नदी, जो आसन गंगा की एक उपनदी का हिस्सा है, कई वर्षों से लगभग मृत पड़ी थी। उसकी 40 एकड़ भूमि में फैले संपूर्ण जलग्रहण क्षेत्र में गड्ढे करने के बाद वह पुनर्जीवित हो रही है। वन विभाग ने गड्ढे करने में हमारी मदद की।
उस समय नदी प्रति मिनट 90 लीटर पानी का प्रवाह कर रही थी, जो अब बढ़कर 1,200 लीटर प्रति मिनट हो गया है। ऐसे में यह अतिरक्त पानी जो हम नदी के प्रवाह में जोड़ पाए, वह जीईपी है। इससे एकत्र किया गया डाटा संरक्षण से जुड़ी योजनाएं बनाने के लिए सही नीतिगत निर्णय लेने में मदद करेगा। पानी की जो भी मात्रा हम संचित कर पाएंगे वह किसी धारा, किसी झरने या भूजल के पुनर्भरण में या किसी सूख चुके जंगल को फिर से हरा-भरा करने में मददगार साबित होगी।” अन्य शब्दों में कहा जाए तो, जैसे ही एक सूचक में सुधार होगा, पूरा पारिस्थितिकी तंत्र बेहतर हो जाएगा। उन्होंने कहा कि जीईपी का मकसद है सब का विकास साथ करते हुए चलना।
नागपुर स्थित वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान संस्थान नीरी के निदेशक राकेश कुमार, जो जीईपी की अवधारणा को तैयार करने के लिए जोशी के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, कहते हैं, “हमें जीईपी की तुलना जीडीपी से नहीं करनी चाहिए क्योंकि जीडीपी की गणना खपत पर आधारित है, जबकि जीईपी ऐसा फॉर्मूला होने वाला है जिससे हम यह देख पाएंगे कि प्राकृतिक संसाधनों से हम कितना अधिक उत्पाद उपजा पाए हैं। जीईपी सभी प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए पर्याप्त बजट के आवंटन में सरकार की मदद करेगा। जब हमारे पास ऊपर तय किए गए मानकों के आधार पर मात्रा और गुणवत्ता वाले संसाधनों का भंडार होगा, तो सरकार के लिए आसानी होगी कि वह नीति के स्तर पर सही फैसला ले सके और उसे पता हो कि पर्यावरण के विकास के लिए किस दिशा में फंड का आवंटन करना है।”कुमार के मुताबिक, जीईपी का सबसे दिलचस्प पहलू है कि यह हमेशा गणना के सकारात्मक पक्ष में होगा, न कि नकारात्मक।
जीईपी की बनावटक्या है जीईपी?ग्रोस इनवायरमेंट प्रोडक्ट एक ऐसा उपाय है जिससे आर्थिक विकास के समानांतर पर्यावरणीय विकास पर नजर रखी जाएगी। सकल घरेलू उत्पाद का इस्तेमाल करके इसकी गणना की जाएगी जीडीपी क्यों काफी नहीं है? जीडीपी को पर्यावरण के खर्चों के बराबर समायोजित नहीं किया जाता है। अगर दो देशों की जीडीपी बराबर है, लेकिन एक देश में हवा और पानी प्रदूषित हैं, तो इसका सीधा असर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ेगा, फिर भी जीडीपी में यह प्रदर्शित नहीं होगा कैसे मदद करेगा जीईपी? यह किसी भी वर्ष में जीडीपी की बराबरी में जंगलों, मिट्टी और पानी के विकास व हवा की गुणवत्ता के बारे में जानकारी देगा। इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि विकास पर्यावरण की कीमत पर तो नहीं हो रहा है। इससे अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी के बीच में संतुलन बनाए रखने में मदद मिलेगी। फिलहाल हम इस बात से पूरी तरह अनजान हैं कि प्राकृतिक संसाधन कितने समय तक हमारा साथ दे पाएंगे जीईपी और इसके चार स्तंभ जंगल: संख्या और घनत्व जैसे गुणों के आधार पर हर साल रोपित किए गए पेड़ों की गणना करना और यह देखना साल में वनों में कितना इजाफा किया गया है। यह काम वन विभाग के द्वारा किया जा सकता है। जल: जलीय स्रोतों में जल की गुणवत्ता और मात्रा में इजाफा करना। पुनर्भरण को मापने के लिए सालाना बारिश और संचय किए हुए जल को मानक माना जाएगा। पीएच और पानी में मिट्टी की मात्रा जैसे मानकों से जल की गुणवत्ता का आकलन हो सकेगा। जल की आपूर्ति करने वाली और मिट्टी का संरक्षण करने वाली संस्थाएं इसे अपना सकेंगी मृदा: एक साल में मिट्टी या मृदा में विभिन्न तरीकों से जैविक पदार्थों का कितना संवर्धन हुआ है और तेज बारिश के कारण मिट्टी का कितना कटाव हुआ है, इसे मानक बनाना चाहिए। यह कृषि व मृदा संरक्षण विभाग के द्वारा किया जा सकता है वायु: उचित अंतराल पर वायु की गुणवत्ता का आकलन करना और उसे सुधारने के प्रयास करना। ऐसे मानकों के जरिए प्रदूषण कम करने के लिए की जा रही कोशिशों का सही आकलन हो पाएगा। जैसे- सीएनजी का उपयोग करना, यातायात के सार्वजनिक साधनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना व अन्य रोधी उपाय करना। |