क्या हम अपनी जिंदगी के बारे में जानते हैं? क्या हम जानते हैं कि भारत में गरीब कौन है? या कौन कितने समय तक बेरोजगार है? क्या हमें पता है कि गरीबी रेखा के लिए एक महीने में कितना खर्च करना पड़ता है? या भारत की गरीबी रेखा क्या है? हमें निश्चित रूप से नहीं पता कि हाल फिलहाल कितने किसानों ने आत्महत्या की या कितने भविष्य में आत्महत्या कर सकते हैं। हमें किसानों की वास्तविक स्थिति जानने के लिए रिपोर्ट की जरूरत है जिससे पता चल सके कि हम 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के सही रास्ते पर हैं या नहीं।
हम आंकड़ों में बड़ी रुकावट का सामना कर रहे हैं। ऊपर हमने जिन आंकड़ों का जिक्र किया है, वे सभी नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) जैसी सरकारी एजेंसियों द्वारा जारी किए जाते हैं। एनएसएसओ का अब तक एक भी सर्वेक्षण ऐसा नहीं आया जिस पर विवाद न हुआ हो। इसका सबसे ताजा उदाहरण है बेरोजगारी के आंकड़ा जो पहले मीडिया में लीक हो गए और बाद में कुछ महीनों की देरी के बाद आधिकारिक रूप से जारी कर दिए गए। हाल ही में डाउन टू अर्थ ने अपनी वेबसाइट में बताया कि शौचालय तक पहुंच और उसके उपयोग से संबंधित सर्वेक्षण को एनएसएसओ ने जारी होने से रोक दिया है। इसी सर्वेक्षण में पीने के पानी तक पहुंच की भी बात है। उपभोग के आंकड़ों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। जो बाद में जारी किए गए, जिसमें बताया गया कि ग्रामीण क्षेत्र को 100 फीसदी शौच मुक्त करने का सरकार का दावा सही नहीं है।
किसी समस्या के समाधान की पहली जरूरत आंकड़ों की उपलब्धता है। इससे पता चलता है कि समस्या के समाधान के लिए कौन से उपाय किए जाने चाहिए। यह आंकड़े हमारे लिए, हमारे विकास और हमारे कल्याण के लिए होते हैं। आखिर कोई सरकार ईमानदारी से आंकड़े जारी करने की अपनी जिम्मेदारी से क्यों बचना चाहती है? या इसे जारी करने में क्यों शर्मिंदा होती है? विकास के आंकड़े हमारा मौलिक अधिकार है, लोकतंत्र में तो यह बहुत जरूरी भी है।
जहां एक तरफ आंकड़ों को जारी होने से रोका जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सरकारी संवाद आंकड़ों पर आधारित हो रहा है। सरकारी की तमाम उपलब्धियां आंकड़ों में बताई जा रही हैं। सरकारी वेबसाइटों में महत्वपूर्ण योजनाओं के आंकड़ों से संबंधित अलग से डैशबोर्ड है। आंकड़ों के माध्यम से सफलता की कहानियां बताई जा रही हैं। आंकड़ों को रोकना और बढ़ावा देना एक साथ जारी है। जो आंकड़े सरकारी की नाकामियों को प्रदर्शित करते हैं, उन्हें रोका जा रहा है, जबकि दूसरी तरफ सरकार अपने आंकड़ों को बढ़ावा दे रही है जिससे उसकी सकारात्मक छवि बन सके। सकारात्मकता ही स्वीकार्यता की कसौटी बन गई है। यह संकट के समय में सत्ताधारी दलों का ऐतिहासिक परिपाटी भी बन गई है। इस समय इसका मौजूं उदाहरण है भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति जिसे सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है लेकिन इसका इस्तेमाल मंत्री तक करते हैं, भले ही सभी संकेत आर्थिक मंदी की ओर इशारा कर रहे हों। सरकार हर हफ्ते मंदी से निपटने के उपाय लेकर सामने आ रही है, जिससे पता चलता है कि वास्तव में संकट काफी गहरा है। लेकिन यह संकट लोगों को परेशान करता। हाल ही में महाराष्ट्र और हरियाणा में हुए चुनाव में आर्थिक मंदी कोई मुद्दा नहीं था, दोनों राज्यों में बेरोजगारी, उद्योगों के बंद होने और कृषि संकट चरम पर होने के बावजूद।
टीवी चैनल पर हमेशा की तरह मतदाताओं के चमकते चेहरे दिख रहे थे जो उनके खुश होने का एहसास कराते हैं। कुतर्क इस सीमा तक पहुंच गया है कि भारत की विकास दर की तुलना अमेरिका से की जा रही है। टेलीविजन यह नहीं बता रहे कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था का आकार क्या है और विकसित देशों में कम विकास दर भी विकासशील देशों की ऊंची विकास दर से अधिक महत्व रखती है।
इस तरह की व्याख्या कल्याणकारी होने का भ्रम पैदा करती है। विश्वसनीय आंकड़ों की कमी के कारण इस तरह का दुष्प्रचार बहुत-सी खाली जगह घेर लेता है। और हम खुशी-खुशी इस दुष्प्रचार भरोसा भी कर लेते हैं।
(लेखक डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक हैं)