डाउन टू अर्थ खास: क्यों की जा रही है गधों की हत्या, कितने जरूरी हैं हमारे लिए गधे

बोझा ढोने वाले जानवर के रूप में गधों का प्रयोग अब बहुत कम होता है। मांस और खाल के अवैध व्यापार के कारण भी गधों की संख्या में भारी गिरावट आई है
अधिक मशीनीकरण वाले इलाकों में भार ढोने वाले जानवर के रूप में गधों का उपयोग अब बहुत कम होता है। मांग में आई कमी भी उनकी आबादी में भारी गिरावट को दर्शाती है
अधिक मशीनीकरण वाले इलाकों में भार ढोने वाले जानवर के रूप में गधों का उपयोग अब बहुत कम होता है। मांग में आई कमी भी उनकी आबादी में भारी गिरावट को दर्शाती है
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हर शाम मोहम्मद इकबाल अपने गधे को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ले जाते हैं ताकि रेलवे ट्रैक की मरम्मत में इस्तेमाल होने वाली बजरी और रेत को ले जाने के लिए उसका प्रयोग हो सके। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के शाहदरा जिले के निवासी इकबाल कुछ इसी तरह के काम के लिए ही अपने गधे को निर्माण स्थलों पर भी ले जाते हैं।

वह कहते हैं, “मैं इस काम से सिर्फ छह घंटे में ही लगभग 600 रुपए कमा लेता हूं, जो कि पूरे दिन के दिहाड़ी मजदूरी से कहीं अधिक है। मेरा पांच सदस्यीय परिवार इसी आय पर निर्भर है।” इकबाल की तरह ही पूरे भारत में कई छोटे किसान और ग्रामीण समुदाय गधों पर निर्भर हैं। इस जानवर का प्रयोग मशीनीकरण से अछूती जगहों पर अधिक होता है। इसके छोटे आकार का शरीर कम जगहों और पतले रास्तों में भी तेजी से आगे बढ़ने में मदद करता है।

ब्रिटेन स्थित एक अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था ब्रुक की भारतीय इकाई द्वारा 2013 में गंधों पर एक सर्वेक्षण किया गया। यह संस्था घोड़ों, खच्चरों और गधों के उपयोग और संरक्षण पर काम करती है। उत्तर प्रदेश के 10 जिलों के 50 ईंट भट्टों पर हुए इस सर्वे के अनुसार, गधापालक परिवारों द्वारा अर्जित वार्षिक आय का 80 प्रतिशत हिस्सा गधों द्वारा ईंट ढोने से आता है। सर्वे किए गए 200 गधा मालिकों में से 47 के लिए गधा ही आय का एकमात्र स्रोत था।

इसी तरह गुजरात में उबड़-खाबड़ इलाकों में दूध ले जाने के लिए डेयरी आपूर्तिकर्ता गधों का उपयोग करते हैं, वहीं लखनऊ में मिट्टी ढोने के लिए कुम्हार भी इनका उपयोग करते हैं। ये खेतों में भी काम करने के लिए सक्षम होते हैं (देखें, गधों की उपयोगिता,)।

नस्ल क्षेत्र व विशेषता इस्तेमाल
कच्छी गुजरात का कच्छ क्षेत्र, रंग-सलेटी,सफेद, भूरा या काला खेतों में खरपतवार हटाने के लिए व घुमंतु समुदाय के प्रवास के दौरान सामान ढोने के लिए। यह 80-100 किग्रा भार ढो सकता है और 200-300 किग्रा के ठेले को खींच सकती है
हलारी गुजरात का सौराष्ट्र क्षेत्र, सफेद रंग, विनम्र स्वभाव प्रवास के दौरान माल ढोने व गाड़ियां खींचने के लिए। यह एक दिन में करीब 30-40 किमी चल सकता है
सिंधी राजस्थान के बाड़मेर और जैसलमेर जिले, रंग-भूरा पानी, मिट्टी, मिट्टी के बरतन, निर्माण सामग्री, चारा और गाड़ियां खींचने और छोटे व सीमांत किसानों द्वारा जुताई के लिए। ये 1,000-1,500 किलोग्राम भार उठा सकते हैं
स्पीति हिमाचल प्रदेश के ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र, रंग- भूरा या काला जल्दी खराब होने वाली नकदी फसलों और फलों, खाद्यान्नों और अन्य वस्तुओं को दूर-दराज के क्षेत्रों में तत्काल पहुंचाने के लिए, लकड़ी, लट्ठे और अन्य लघु वनोपज ढोने के लिए और गोबर या खाद को चारागाहों से गांवों या खेतों में पहुंचाने के लिए
स्रोत: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय पशु आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो


नैरोबी के इंटरनेशनल लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएलआरआई) में दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय प्रतिनिधि हबीबुर रहमान कहते हैं, “गधों के कारण परिवारों की अर्थव्यवस्था पर गंभीर और सकारात्मक वित्तीय प्रभाव पड़ता है।”

तेजी से गायब होते गधे

दूसरे पशुओं की तुलना में गधों के आर्थिक मूल्य का अनुमान लगाना आसान नहीं है क्योंकि उनके सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक लाभों पर साक्ष्य की कमी है। पशुधन नीतियों ने बड़े पैमाने पर गधों की अनदेखी की है और गधापालक समुदायों को किसी भी प्रोत्साहन या सब्सिडी का लाभ उठाने से वंचित रखा है। गधी का दूध, मांस और फाइबर विस्तृत उद्योग का हिस्सा नहीं है। पशु बचाव संगठन काकीनाडा, आंध्र प्रदेश के कार्यकर्ता गोपाल आर सुरबाथुला ने बताया कि भारत में गधों का वध, उनके मांस और खाल का व्यापार अवैध है।

इसके अलावा अधिक मशीनीकरण वाले इलाकों में भार ढोने वाले जानवर के रूप में गधों का उपयोग अब बहुत कम होता है। मांग में आई कमी भी उनकी आबादी में भारी गिरावट को दर्शाती है। 2019 में जारी “20वीं पशुधन गणना” के अनुसार, भारत में लगभग 1 लाख 20 हजार गधे हैं, जो 2012 की 3 लाख 30 हजार की तुलना में 62 प्रतिशत कम है।”

इस प्रजाति के अन्य पशुओं जैसे-खच्चरों, घोड़ों और टट्टूओं की संख्या में भी कमी देखी गई है। हालांकि इस दौरान अन्य मवेशियों, भैंसों, भेड़ों और बकरियों की आबादी बढ़ी है। गधों की आबादी में गिरावट की दर भी तेजी से बढ़ रही है। केंद्रीय मत्स्य, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के डेटा के अनुसार, 1992 में गधों की आबादी 9 लाख 60 हजार थी। यह आबादी 1997 की जनगणना में 8 प्रतिशत, 2003 में 26 प्रतिशत, 2007 में 32 प्रतिशत और 2012 में 73 प्रतिशत तक घट गई (देखें, गिरावट का दौर)।

गधों के उपयोग के पैटर्न और उनकी गिरावट के कारणों की पहचान करने के लिए आईएलआरआई एक विस्तृत अध्ययन कर रहा है। रहमान कहते हैं, “प्रारंभिक निष्कर्षों के अनुसार मशीनीकरण, अन्य व्यवसायों की तरफ रुख, सरकारी समर्थन व नीतियों की कमी और जानवरों को पालने की लागत में हुई वृद्धि इसके प्रमुख कारण हैं।”

जमीनी अनुभव भी यही साबित करता है। शाहदरा की संकरी गलियों में बसे कबीर नगर के रहने वाले मोहम्मद इलियास के पास 2012 तक पांच गधे थे, जो बोझा ढोते थे। छोटी ट्रॉलियों के चलन के बाद उन्हें और उनके जैसे गधा-पालकों का रोजगार छिन गया।

इलियास बताते हैं कि कबीर नगर को कभी गधापुरी के नाम से जाना जाता था क्योंकि लगभग हर परिवार के पास दो से चार गधे होते थे। इलियास कहते हैं, “अब थोड़े-बहुत खच्चरों और घोड़ों को तो देखा जा सकता है, लेकिन गधे न के बराबर दिखाई देते हैं।” इलियास अब एक मजदूर के रूप में काम करते हैं।

अवैध व्यापार

गधों की आबादी में गिरावट का एक अन्य कारण इसके मांस की महत्वपूर्ण मांग हो सकती है। हालांकि भारत में इसका व्यापार अवैध है, लेकिन यहां से देश और विदेश दोनों में बड़े पैमाने पर तस्करी होती है। दक्षिणी राज्यों विशेष रूप से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के कुछ हिस्सों में गधे के मांस का सेवन किया जाता है। यहां के लोगों का मानना है कि इससे पीठ दर्द और अस्थमा ठीक होता है और यह पुरुषों में पौरुष को भी बढ़ा सकता है।

सुरबाथुला कहते हैं, “यह प्रथा लगभग 40 साल पहले आंध्र प्रदेश के प्रकाशम जिले के स्टुअर्टपुरम शहर में शुरू हुई थी, जो चोरों का अड्डा था। डकैतों और चोरों का मानना था कि गधे का मांस खाने और उसका खून पीने से वे मजबूत होंगे।”

यह मान्यता गुंटूर, एलुरु, कृष्णा और बापटला जैसे अन्य जिलों और अब तेलंगाना के क्षेत्रों में भी फैल गई है। सुरबाथुला ने गधे के वध के खिलाफ याचिका दायर की और आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने इसके मांस के प्रदर्शन, बिक्री और खपत पर प्रतिबंध लगा दिया।

उन्होंने बताया, “इस आदेश से पहले खुलेआम रूप से गधों का वध किया जाता था, लेकिन अब यह काम गुप्त रूप से किया जाता है। बहुत कम लोग इसके रक्त का सेवन करते हैं लेकिन इसका उपयोग कैटफिश को खिलाने के लिए होता है।”

कैटफिश के आहार में जानवरों के मांस और रक्त का प्रयोग होता है। गधे की खाल के लिए भी ऐसा ही एक अवैध बाजार मौजूद है। इस बाजार से मुख्य रूप से चीन को निर्यात होता है। पारंपरिक चीनी चिकित्सा में गधे की त्वचा को उबालने से इजियाओ नामक एक जिलेटिन का उत्पादन होता है, जिससे अनिद्रा, सूखी खांसी और खराब रक्त परिसंचरण जैसी स्थितियों के इलाज के लिए कॉस्मेटिक उत्पादों के साथ खाया और मिलाया जा सकता है।

डंकी सैंक्चुरी इंडिया, 2019 के एक अध्ययन के अनुसार, चीन में खाल की मांग को पूरा करने के लिए हर साल लगभग 40 लाख से एक करोड़ गधों का कत्ल किया जाता है। 1992 में जहां चीन में गधों की आबादी 1.1 करोड़ थी, वह 2019 में घटकर 26 लाख हो गई। इसके बाद इसकी मांग की पूर्ति के लिए उनका रुख अन्य देशों की ओर हो गया।

ब्रूक इंडिया की सीनियर प्रोग्राम लीडर प्रिया पांडे कहती हैं, “चीन ने पहले अफ्रीका से सोर्सिंग शुरू की और फिर भारत सहित अन्य निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इसका विस्तार किया।” 2021 में इस गैर-लाभकारी संस्था द्वारा किए गए एक अध्ययन में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों से जिंदा गधों, उनके खाल और मांस का अवैध निर्यात दर्ज किया गया है।

प्रयोग के अन्य मौके

देश में गधों की दयनीय स्थिति पर जिम्मेदारों का ध्यान गया है और सरकार इनकी जनसंख्या में हो रही गिरावट को रोकने के उपायों पर विचार कर रही है। 3 नवंबर को आईएलआरआई, पशुपालन और डेयरी विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी (एनएएएस) और कई गैर-लाभकारी संस्थाओं के अधिकारी गधों और खच्चरों के पुनरुद्धार पर चर्चा करने के लिए मिले।

आईसीएआर के उप महानिदेशक (पशु विज्ञान) भूपेंद्र नाथ त्रिपाठी ने एक राष्ट्रीय नीति का प्रस्ताव दिया जो गधों की संख्या में हो रही गिरावट को रोक सकेगी, उनके प्रजनन को बढ़ावा देगी, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार करेगी और उनके उपयोग के अन्य उपायों का पता लगाएगी।

इस प्रस्ताव में गधों के दूध के इस्तेमाल पर जोर था। एनएएएस के अध्यक्ष त्रिलोचन महापात्रा ने इस बात पर प्रकाश डाला कि गधे के दूध के स्वास्थ्य लाभों के बारे में जागरुकता पैदा करने से न सिर्फ पशुओं की संख्या बढ़ेगी बल्कि उन पर निर्भर किसानों के कल्याण की भी रक्षा होगी। उन्होंने कहा, “गधी का दूध पौष्टिक होता है और इसमें गोवंशीय दूध की तुलना में वसा की मात्रा कम होती है। हालांकि लोग इसके प्रति ज्यादा जागरूक नहीं है और न ही इस दूध का बाजार है।”

आईसीएआर-नेशनल ब्यूरो ऑफ एनिमल जेनेटिक करनाल, हरियाणा में जेनेटिक एनिमल रिसोर्सेज के पूर्व प्रमुख डीके सदाना कहते हैं, “गुजरात के देसी हलारी नस्ल के गधों को पालने वाले मालधारी समुदाय के लोग स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए उनके दूध का सेवन करते हैं।”

हरियाणा के हिसार में आईसीएआर-नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन इक्वाइन (एनआरसीई) के निदेशक यश पाल कहते हैं कि वर्तमान में गधी का दूध अनौपचारिक रूप से लगभग 2,000-5,000 रुपए प्रति लीटर में बेचा जाता है। हालांकि गधी एक दिन में सिर्फ 200 मिलीलीटर से 1.5 लीटर दूध देती है।

आईसीएआर-एनआरसी इनके दूध के गुणों और उनकी मात्रा क्षमता बढ़ाने पर काम कर रहा है। संस्थान ने 30 हलारी गधी के साथ एक डेयरी की स्थापना की है और शोध के लिए एक स्वास्थ्य पेय बनाया है। पाल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि संस्थान ने इसके उत्पादों के उपभोग की अनुमति प्राप्त करने के लिए भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण में प्रमाणन के लिए आवेदन किया है। गधी को पालने में रुचि रखने वाले उद्यमियों के लिए संस्थान ने पिछले दो वर्षों में अनेक प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए हैं। इसमें से अधिकांश प्रतिभागी कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश से थे।

दिल्ली में “ऑर्गनिको” और गुजरात में “आद्विक फूड्स” जैसे स्टार्ट-अप भी हैं जो गधी के दूध से बने उत्पादों बेच रहे हैं। गधी के दूध से साबुन बनाने वाली ऑर्गनिको की संस्थापक पूजा कौल का कहना है कि यह स्टार्टअप राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और उत्तर प्रदेश के हापुड़ व मेरठ में 34 गधा पालने वाले परिवारों के साथ काम करता है। कौल ने एक गधा संरक्षण पार्क खोलने के लिए लद्दाख के समुदायों के साथ भी साझेदारी की है, जहां लगभग 190 आवारा या परित्यक्त गधों को पाला जाता है।

कौल ने बताया, “यह गधों के लिए आश्रय गृह जैसा नहीं है। लद्दाख में गधों को पालने का इतिहास रहा है, लेकिन अब इनका उपयोग बंद है। इस पार्क में स्थानीय समुदाय गधों को पालते हैं और हम उनसे दूध खरीदते हैं। हम पर्यटन को भी बढ़ावा देते हैं ताकि लोगों की मदद की जा सके।”

हालांकि अभी गधों की भार वहन क्षमता का उपयोग करने की आवश्यकता है, जो भारत में पाई जाने वाली नस्लों का प्राथमिक उपयोग है। कृषि और निर्माण में तेजी से हुए मशीनीकरण को गधों के उपयोग के साथ संतुलित किया जाना चाहिए।

रहमान कहते हैं, “हमारी संस्थान आईसीएआर अनुसंधान करती है और हमने सरकार को सुझाव दिया है कि गधों पर विशेष ध्यान देने के लिए पशुपालन और डेयरी विभाग के तहत एक विंग स्थापित किया जाना चाहिए। लोगों को गधा पालने के लिए आसानी से ऋण मिलना चाहिए, जैसा कि अन्य पशुओं के पालन पर मिलता है।”

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