जनवरी 1993 में जब डाउन टू अर्थ का “वर्ल्ड ऑन ए बॉयल” (उबाल पर दुनिया) अंक प्रकाशित हुआ था, उस समय के संपादक अनिल अग्रवाल ने लिखा था कि 1992 में दुनिया ने वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) की ओर कई कदम बढ़ाए हैं, लेकिन इससे पहले आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विभाजन की ओर ध्यान नहीं दिया गया। उन्होंने लिखा- ऐसा लगता है कि वैश्वीकरण जो एजेंडा इस साल तय हुआ है, जिसमें विश्व व्यापार नियमों (अनुचित) और जलवायु समझौते हुए हैं, बेहद उथल-पुथल भरा साल साबित होगा और एक असमानता भरी दुनिया का निर्माण करेगा।
अब मई 2018 है। 25 साल से अधिक समय बीत चुका है और अब ऐसा लग भी रहा है कि दुनिया को न केवल फंसाया गया है, बल्कि दुनिया अलग-अलग हो गई है। जानबूझ कर हमारे घर में पाप को पहुंचा दिया गया है। हमारा यह समय संकट भरा है।
आज, वैश्विक व्यापार के नियम लागू है, जो अमीर को और अमीर बना रहे हैं, वह भी गरीब और पर्यावरण की कीमत पर। पिछले 25 साल के दौरान वैश्वीकरण ने वास्तव में बाजारों को जोड़ा है, व्यापार खोला है और दुनिया भर में कुछ को समृद्ध बनाया है। इन 25 साल में जो बड़ा बदलाव हुआ है, वह है इंटरनेट, इंटरनेट ने दुनिया को एक दूसरे से जोड़ दिया है। इसने दुनिया भर के लोगों से जुड़ा हुआ है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने बाजार को हमारे बीच में जगह दी है। साइबर स्पेस से जुड़ना मतलब उपभोक्ताओं से जुड़ना।
इसलिए, एक ओर जहां वैश्वीकरण से उत्पादन की प्रवृति में बदलाव आया है। जिन देशों में श्रम, पर्यावरण और मैटेरियल महंगा था, वहां की बजाय उत्पादन का काम उन देशों में शिफ्ट यह सब सस्ता था। मजदूर वहीं रहे, लेकिन उत्पादन शिफ्ट हो गया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इससे जिनके पास रोजगार था, उनको नई अर्थव्यवस्था ने छल लिया। ब्रेक्जिट के बाद अब दुनिया एक पूर्ण व्यापार युद्ध की ओर बढ़ रही है।
दूसरी ओर, इंटरनेट ने व्यापार में काफी बदलाव किया है कि आप साइबरस्पेस में अपना सामान बेच कसते हैं।
दूसरी ओर, इंटरनेट ने वाणिज्य को इतना बदल दिया है कि साइबरस्पेस पर सामान बेचा जा सकता है। इससे छोटे व्यवसायियों से व्यवसाय बड़े कॉरपोरेट्स के पास पहुंच गया है, जो इंटरनेट और मशीनों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे टैक्स चोरी भी बढ़ गई है।
हम सभी इस बदलाव में भाग लेने के इच्छुक हैं। यह बेहद सौम्य लगता है। हम सोशल मीडिया के विकास से खुश हैं। हम शहर में खेले जा रहे इस नए खेल के साथी बन गए हैं। इसने हमारी भीतर की तड़प को पहचाना और फिर हमारे भीतर की नफरत को जगाया। हमने सार्वजनिक शिष्टता और क्रूरता के बीच की रेखा को पार कर लिया। इस पर हमें शर्म आनी चाहिए।
लेकिन हमें लग रहा था कि हम दुनिया को बदल रहे हैं। यह उपकरण हमें नेटवर्क का हिस्सा बनने और सरकारों पर कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाने का अधिकार दे रहा है। यह लोकतंत्र का शिखर था। पहली बड़ी जीत तब हुई, जब नागरिकों के दबाव में शासकों को तानाशाह और क्रूर करार दिया गया। अरब स्प्रिंग से लेकर नागरिक पत्रकारिता तक, हम सोशल मीडिया की सक्रियता की इस नई दुनिया में विश्वास करते हैं। हमें लगा कि हम नियंत्रण में हैं और किसी मुहिम का नेतृत्व कर रहे हैं।
हम कितने गलत थे। कितने भोले हैं। तकनीक कैसे बहकाती है? यह सच है कि सोशल मीडिया की वजह से लोकतंत्र खतरे में है। आइसबर्ग का फेसबुक कांड यह बताता है। अपनी छोटी व्यक्तिगत गोपनीय चिंताओं को भूल जाओ। असली खेल हमारे नेताओं को चुनने की हमारी स्वतंत्रता का अधिग्रहण से जुड़ा है। यह आकस्मिक नहीं है। यह निश्चित रूप से आकस्मिक नहीं है। यह पैकेज का हिस्सा है, जब हमने फैसला किया है कि हम उस दुनिया को स्वीकार करेंगे, जो हमारे सुविधाओं और उपभोग के लिए बनाई गई है। यह साझा करने वाली दुनिया कोई देखभाल करने वाली दुनिया नहीं है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
असल बात यह है कि जो टूट गया था, उसे हमने ठीक नहीं किया। हम बस आगे चले गए। जब ऑक्सफैम गणना करता है कि केवल आठ लोगों के पास दुनिया के 50 फीसदी गरीबों के बराबर दौलत है तो हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए, या हमें शोकाकुल नहीं होना चाहिए। 1992 में भी दुनिया में असमानता थी, लेकिन 2018 में और तेजी से बढ़ गई। इससे गुस्सा भी बढ़ा और यह गुस्सा युवाओं में इसलिए बढ़ा, क्योंकि उसे अवसरों की तलाश है और उसके प्रति चिंतित है।
जलवायु परिवर्तन चीजों को आसान नहीं बना रहा है। दुनिया भर में तबाही के संकेत हैं। गरीब, विशेष रूप से किसान, पहले से ही दुखी हैं। उनके पास साधन कम हैं और सुरक्षा तंत्र भी नहीं है। वे भी गुस्से में हैं। लेकिन यह केवल गरीबों के लिए नहीं है। प्रलय आ रही है। हमारी दुनिया जलवायु परिवर्तन पर एक समझौते पर सहमत हुई थी, जो न्यायसंगत नहीं था। गरीबों ने अपने उत्सर्जन को कम नहीं किया, क्योंकि अमीर असहिष्णु थे। आज, हमारे पास जीवाश्म अर्थव्यवस्था से दूर करने के लिए कोई सही जवाब तक नहीं है।
अब सवाल यह है कि हम क्या करें? हम समय को वापस नहीं ला सकते। लेकिन हम इसे अलग तरह से बदल सकते हैं। इसका मतलब है कि सामाजिक मूल्य वाले सिद्धांत बनाने होंगे, जिस पर न केवल लोग चलें, बल्कि राष्ट्र और व्यवसाय भी उन सिद्धांतों को अपनाएं। हमें नैतिकता और न्याय प्रिय राजनीति को वापस लाना होगा। इसका मतलब यह भी है कि दुनिया और प्रत्येक देश के संविधान को फिर से लिखना होगा, जहां से शासन और लेनदेन के नए नियम हों। मुझे पता है कि यह आदर्शवादी लगता है और फिट नहीं बैठता है। खासकर ऐसे समय में जब दुनिया हर काम तकनीक से करना चाहती है। लेकिन अगले 25 साल तक ऐसा नहीं रहने वाला और कोई विकल्प भी नहीं है।
(डाउन टू अर्थ की संपादक सुनीता नारायण का यह लेख मई 2018 में डाउन टू अर्थ के विशेषांक 'सिमरिंग, द वर्ल्ड इज गेटिंग यंगर एंड एंग्रियर' में छपा था, आज के समय में इस लेख की प्रासंगिकता को समझते हुए पुन: प्रकाशित किया जा रहा है)