अमृत काल बनाम न्यू इंडिया: आर्थिक संकट के बीच आध्यात्मिक राजनीतिक एजेंडा का दौर

गहरे आर्थिक संकट के वक्त हम अवास्तविक राजनीतिक एजेंडा को क्यों तवज्जो देते हैं
अमृत काल बनाम न्यू इंडिया: आर्थिक संकट के बीच आध्यात्मिक राजनीतिक एजेंडा का दौर
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2023 मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष से पहले का वर्ष है। मई 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को आम चुनाव का सामना करना पड़ेगा।

ऐसे में किसी की दिलचस्पी यह मूल्यांकन करने की हो सकती है कि अपने शासन के 10वें वर्ष में प्रवेश करने जा रही सरकार ने कौन से वादे किए थे और वह उन पर कितनी खरी उतरी। फरवरी में सरकार अपना आखिरी पूर्ण बजट पेश करेगी। देखने वाली बात यह होगी कि क्या सरकार अपने प्रदर्शन पर श्वेत पत्र लेकर आएगी?

यादों को ताजा करने के लिए बता दें कि सरकार ने अपने पहले कार्यकाल (2014-2019) में 2022 तक कई बड़े और परिवर्तनकारी वादों को पूरा करने का लक्ष्य रखा था। उनमें सबसे बड़ा लक्ष्य था 2022 तक “नए भारत” का निर्माण।

यह लक्ष्य भारत की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष के मील के पत्थर के रूप में चिन्हित था। “नया भारत” राष्ट्र के लिए मोदी का व्यक्तिगत वादा था। इसे प्राप्त करने के लिए नीति आयोग ने 2018 में “स्ट्रेटेजी फॉर न्यू इंडिया @75” की घोषणा की। पंचवर्षीय योजना को खत्म करने के बाद नीति आयोग का यह देश के लिए एकमात्र विजन दस्तावेज था, जिसकी समयसीमा पिछला साल थी।

सवाल यह है कि क्या सरकार ने 2022 में इस बड़े वादे को पूरा किया? 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने से लेकर महिलाओं के लिए रोजगार पैदा करने, किसानों की आय दोगुनी करने और गरीबी उन्मूलन के अलावा इस विजन में लगभग 41 लक्ष्य शामिल थे, जिनमें से कम से कम 17 की समयसीमा 2022 थी।

2022-2023 के बजट भाषण के वक्त लोगों की उम्मीद थी कि वित्त मंत्री इस वादे की प्रगति पर प्रकाश डालेंगी, लेकिन उन्होंने तो विकास लक्ष्यों में “नए भारत” का जिक्र तक नहीं किया। उन्होंने किसानों की आय दोगुनी करने का जिक्र नहीं किया।

इसके बजाय उन्होंने कहा, “यह बजट अगले 25 वर्ष की अर्थव्यवस्था की नींव रखेगा, जब देश 75 से 100वें वर्ष में अमृतकाल में प्रवेश करेगा।” अगर हम संकेतों को देखें तो पाएंगे कि “नए भारत” अथवा इंडिया@75 के किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं किया गया है।

मोदी ने हाल के दिनों में “नए भारत” शब्द का उल्लेख तक नहीं किया है क्योंकि “अमृत काल” उनके लिए विकास का नया दृष्टिकोण बन गया है, जिसके मापने योग्य न तो कोई संकेतक है और लक्ष्य भी 25 वर्ष दूर है।

तो क्या अगले महीने पेश होने वाले 2023-2024 के बजट से कोई उम्मीद की जा सकती है? आम चुनावों से पहले अंतिम बजट में चुनावी लाभ लेने के लिए आमतौर पर यह संकेत मिलता है कि सरकार ने क्या किया है और क्या करना चाहती है।

लेकिन इस साल के बजट का संदर्भ अभूतपूर्व है। पिछले तीन वर्षों से देश कोविड-19 महामारी की चपेट में है। देश 2020 से पहले करीब तीन साल से लगातार बेरोजगारी बढ़ने के साथ आर्थिक मंदी का सामना कर रहा था। महामारी ने इसे और प्रबल किया। हम अभी तक विकास के उस स्तर पर भी नहीं हैं, जो महामारी से पहला था।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के नवंबर, 2022 के आंकड़ों के अनुसार, बेरोजगारी लगभग 8 प्रतिशत बनी हुई है। यह श्रम बल में शामिल लाखों लोगों के लिए इतना निराशाजनक है कि उन्होंने काम खोजना तक बंद कर दिया है।

आजीविका के अंतिम विकल्प के तौर पर कृषि पर निर्भरता बहुत है, भले ही उससे बेहतर जिंदगी न चल रही हो। तिस पर बढ़ती महंगाई ने गरीब और अमीर दोनों की हालत पतली कर दी है।

इसी के साथ मंदी भी दस्तक दे रही है जो निकट भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगी। संक्षेप में कहें तो एक गिरती अर्थव्यवस्था महामारी से प्रभावित हुई जिससे दुनिया के सबसे बड़े श्रमबल की आशाओं को धक्का लगा। यही श्रमबल अंततः भारतीय अर्थव्यवस्था को भी परिभाषित करता है।

ऐसे हालात में सरकार को अगले वित्तीय वर्ष के लिए बजट लाना है और एक साल बाद चुनाव लड़ना है। लेकिन सरकार ने लगातार आर्थिक संकट को इस नेरेटिव से ढंक लिया है कि भारत का आर्थिक विकास दुनिया में “सबसे अच्छा” है, भले ही पिछले वर्ष सबसे खराब गुजरे हों।

इसका मतलब यह भी है कि अगला चुनाव असली मुद्दों या सरकार के पिछले बड़े वादों के बजाय बनावटी मुद्दों पर होगा। इस बनावटी एजेंडे को पिछले बजट के दौरान तब महसूस भी किया गया था, जब उसमें “अमृतकाल” की घोषणा हुई थी।

जब राजनीतिक आख्यान पौराणिक कथाओं सरीखे हो जाते हैं तो हम परियों के लोक में पहुंच जाते हैं, जहां हम सभी में खुद को देवीय मानने की भ्रामक भावना विकसित की जाती। आधुनिक चुनावी प्रणाली में इस भावना अभिव्यक्त करने के लिए मंदिर में घंटी की तरह वोटिंग मशीन का बटन दबाना होता है।

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