कोरोनावायरस संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए देश भर में लॉकडाउन की घोषणा होते ही बड़े शहरों में रह रहे प्रवासी मजदूर अपने घर लौटने लगे। चिंता थी कि 21 दिन के लॉकडाउन के दौरान काम नहीं मिला तो क्या करेंगे, कहां रहेंगे? रेल-बस सेवा बंद होने के बावजूद ये लोग पैदल ही अपने-अपने गांव की ओर लौट पड़े। कोई सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते हुए अपने-अपने घर पहुंच चुका है तो लाखों मजदूरों को जहां-तहां रोक दिया गया है। लेकिन इस आपाधापी में एक सवाल पर बात नहीं हो रही है कि आखिर हर साल लाखों लोग पलायन क्यों करते हैं? डाउन टू अर्थ ने इन कारणों की व्यापक पड़ताल की है। इसे एक सीरीज में वेब में प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के एक गांव के लोग, जो सदियों से पलायन का दंश झेल रहे हैं। दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, खेतों में नहीं होती गुजर बसर लायक पैदावार । पढ़ें, तीसरी कड़ी-
फतेहपुर देश के उन 75 जिलों में शामिल है जहां से सबसे अधिक माइग्रेशन (प्रवास) होता है। 2018 के आर्थिक सर्वे में इन जिलों की पहचान की गई थी। इनमें सर्वाधिक 39 जिले उत्तर प्रदेश के हैं, जबकि 9 जिले उत्तराखंड और 8 जिले बिहार के हैं। आर्थिक सर्वे के अनुसार, 1991-2001 के दशक में माइग्रेशन की दर 2.4 प्रतिशत थी जो 2001-11 के दशक में लगभग दोगुनी बढ़कर 4.5 प्रतिशत पर पहुंच गई है। भारत में मुख्य रूप से अंतरराज्यीय माइग्रेशन हो रहा है। इन जिलों के ग्रामीण इलाकों से लोग बड़े शहरों का रुख कर रहे हैं। अनुमानों के मुताबिक, हर साल 50 से 90 लाख लोग इंटरनल माइग्रेशन करते हैं।
पिछले दो दशकों में उत्तराखंड में भी पलायन तेजी से हुआ है। आमतौर पर उत्तराखंड के लोग सुख सुविधाओं और बेहतर जीवन की चाहत में पलायन करते हैं लेकिन अब इन कारणों में प्राकृतिक आपदाएं, जैसे पानी की कमी, भूस्खलन, भूकंप आदि भी प्रमुख रूप से शामिल हो गए हैं। उत्तराखंड के पलायन पर पीएचडी करने वाली और गैर लाभकारी संगठन इंटीग्रेटेड माउंटेन इनीशिएटिव (आईएमआई) में कार्यक्रम संयोजक नम्रता रावत बताती हैं कि उत्तराखंड के गांवों से जहां स्थानीय निवासी शहरों में जा रहे हैं, वहीं नेपाल और बिहार के लोग इन गांवों में आ रहे हैं। ये लोग कृषि श्रमिक के रूप में खेती का काम कर रहे हैं क्योंकि स्थानीय निवासियों की इस काम में दिलचस्पी काफी कम हो गई है। नम्रता बताती हैं कि उत्तराखंड में पानी की कमी और इसके असमान वितरण के कारण पहाड़ के लोग मायूस हैं।
2018 में जारी नीति आयोग की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि पहाड़ी राज्यों में जलधाराएं पानी की आपूर्ति का मुख्य स्रोत हैं। हिमालय क्षेत्र की 30 लाख जलधाराओं में से आधी सूख चुकी हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अकेले अल्मोड़ा में 360 में से 300 धाराएं सूख चुकी हैं। इसके लिए मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार हैं। जलधाराओं के सूखने से पैदा हुआ जलसंकट पलायन की गति को बढ़ा रहा है। आईएमआई द्वारा हाल ही में जारी “स्टेट ऑफ द हिमालय फार्मर्स एंड फार्मिंग” रिपोर्ट में कहा गया है कि 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद से पर्वतीय क्षेत्रों की 35 प्रतिशत आबादी पलायन कर चुकी है। इन क्षेत्रों से प्रतिदिन 246 लोग पलायन कर रहे हैं। अगर इसी दर से पलायन जारी रहा तो राज्य की विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों को नए सिरे से परिभाषित करना पड़ सकता है।
सीईएसइफो इकॉनोमिक स्टडीज में सितंबर 2017 में प्रकाशित इनग्रिड डालमन और कैटरिन मिलोक के शोध में भारत के अंतरराज्यीय पलायन का अध्ययन किया गया है। अध्ययन बताता है कि सूखे के कारण समूचे राज्य में पलायन की औसत दर 1.5 प्रतिशत और कृषि क्षेत्र में 1.7 प्रतिशत बढ़ जाती है। 1991 में भारत की जनसंख्या में 26.7 प्रतिशत हिस्सेदारी आंतरिक प्रवासियों की थी। इनमें 11.8 प्रतिशत अंतरराज्यीय प्रवासी थे। 2011 में आंतरिक प्रवासी बढ़कर 30.1 प्रतिशत हो गए और अंतरराज्यीय प्रवासी भी बढ़कर 13.4 प्रतिशत हो गए।
जलवायु शरणार्थी
प्राकृतिक आपदाओं को हमेशा माइग्रेशन से जोड़कर देखा जाता है लेकिन पिछले कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम की प्रवृति में आए बदलावों ने इस माइग्रेशन की गति काफी बढ़ा दी है। 1990 में इंटरगवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रभाव माइग्रेशन के रूप में दिखेगा। जानकार मानते हैं कि 2050 तक 20 करोड़ लोग अपना घर छोड़ने को मजबूर होंगे। दिसंबर 2019 में जारी वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट में भी प्राकृतिक आपदाओं और माइग्रेशन के बीच सीधा संबंध स्थापित किया गया है।
वैश्विक स्थिति
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, वैश्विक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की संख्या में पिछले 5 दशकों में लगातार वृद्धि हुई है। 2019 में 27.2 करोड़ लोगों ने दूसरे देशों के लिए पलायन किया। जबकि दुनिया की आबादी 7.7 अरब है। इस हिसाब से दुनिया के हर 30 लोगों में एक व्यक्ति ने पलायन किया। यहां एक बात ध्यान में रखनी होगी कि 20-64 आयु वर्ग के लोगों का पलायन, 20 साल से नीचे के आयु वर्ग के मुकाबले घटा है। अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की संख्या में 2009 से 2019 के बीच एक बड़ा बदलाव देखा गया। यह बदलाव जनसंख्या में तेजी से वृद्धि के कारण था। इस दशक में दुनिया में सबसे अधिक पलायन अफ्रीका महाद्वीप से हुआ। इसका कारण था, इस दौरान यहां जन्म दर में 30 फीसदी की बढ़ोतरी। वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2020 में कहा गया है कि 1970 के बाद से अब तक संयुक्त राज्य अमेरिका प्रवासियों के लिए सबसे अधिक पसंदीदा जगह बनी हुई है।
यहां 1970 में 1.2 करोड़ से कम प्रवासी आए थे जो 2019 में बढ़कर 5.1 करोड़ हो गए। दूसरे नंबर पर प्रवासियों की पसंदीदा जगह जर्मनी रही। जहां 2000 में यहां 89 लाख प्रवासियों की संख्या थी और यह 2019 में बढ़कर 1.31 करोड़ हो गई। अफ्रीका के 20 देशों में 1909 से 2019 के दौरान जनसंख्या में तेजी से वृद्धि दर्ज हुई है। आज अफ्रीका पलायन करने वाले महाद्वीपों में अव्वल है। इस महाद्वीप में सबसे ज्यादा पलायन मिस्त्र, मोरक्को, दक्षिणी सूडान, सोमालिया, सूडान व अल्जीरिया में हुआ। पलायन करने वालोें की पहली पसंद दक्षिण अफ्रीका है। इस देश में लगभग 40 लाख प्रवासी रहते हैं। उत्तरी अफ्रीका के देश अल्जीरिया, मोरक्को और ट्यूनीशिया से लोग फ्रांस, स्पेन और इटली जैसे देशों में जाते हैं। इसके अलावा जैसे कि दक्षिण सूडान-युगांडा और सोमालिया व इथियोपिया के बीच संघर्ष के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापन के कारण भी पलायन होता है। अफ्रीका में एक श्रमिक पलायन का भी अहम गलियारा है। यहां से श्रमिक सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात जाते हैं।