एक ऐसा गांव जिसमें इमली के पेड़ों से आंकी जाती है जीडीपी

जब प्रमुख खाद्य अनाज सस्ता हो रहा है, तो जंगलों के किनारे बसने वाले इस गांव में खेती से इतर, इमली के पेड़ अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खास हैं।
एक ऐसा गांव जिसमें इमली के पेड़ों से आंकी जाती है जीडीपी
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चितापुर गांव में रहने वाले हर आदमी की जिंदगी में थोड़ा सा इमली का पेड़ शामिल है। यही नहीं, छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के इस गांव में इमली का पेड़ एक जीवंत मुद्रा है, जो लोगों की किस्मत तय करता है।

हालांकि गांव में कोई सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के बारे में नहीं जानता लेकिन ज्यादातर लोगों को यह पता है कि किसी साल गांव की जीडीपी, इसी पर निर्भर करती है कि उस साल बाजार में इमली का मूल्य कितना है।

आठ सौ घरों वाले इस गांव में 1700 इमली के पेड़ हैं। गांव के लोग एक-दूसरे की आर्थिक-स्थिति इसी से तय करते हैं कि किसी के पास इमली के पेड़ कितने हैं। इस गांव में इस तरह की खबरों को काफी आर्थिक महत्व है कि किसके इमली के पेड़ पर कितने फल आए हैं, हाल ही में लगाए गए इमली के पौधे किस गति से बढ़ रहे हैं और कौन से पेड़ बूढ़े होने के चलते सूखने लगे हैं। कभी-कभी तो इमली के पेड़ों का जायजा लेने के लिए ग्रामसभा की बैठक भी बुलाई जाती है।

21 फरवरी की सुबह युवाओं का एक समूह गांव में इमली के पेड़ों का हाल-चाल लेने निकला है। इनमें से ज्यादातर काम के लिए केरल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में प्रवासी मजदूर के रूप में काम कर चुके हैं। प्रवासी मजदूर होने का दर्द अभी भी उनके चेहरों पर हैं। दो साल पहले कोरोना के चलते लगे लॉकडाउन में ये सारे गांव लौटे थे। यहां लौटने के बाद यह इमली के पेड़ ही थे, जिन्होंने इन युवाओं को फिर से जिदंगी की योजना बनाने में मदद की।  

आमतौर पर फरवरी से इमली के पेड़ों पर कलियां आनी शुरू हो जाती हैं लेकिन इस साल ज्यादातर पेड़ों पर वे नजर नहीं आ रही हैं। यहां लोग ये मानते हैं कि जिस साल आम ज्यादा होते हैं, उस साल इमली कम फलती हैं। इसे लोगों की मान्यता के अलावा पारिस्थितिक संकेतों पर टिका स्थानीय विश्वास भी कह सकते हैं, जो सालों से इमली के पेड़ों को देखने के उनके अनुभव से जन्मा है। गौरततलब है कि इस साल जनवरी के अंत से ही यहां आम के पेड़, बौर से भरे नजर आने लगे हैं।

इमली की कलियां न दिखने से गांव के रहने वाले लकमू कश्यप चिंतित हैं। वह कहते हैं- ‘ जब किसी की ज्यादातर आमदनी इमली के पेड़ों पर टिकी हो तो कलियां न आने से उसकी हालत तो खराब होगी ही। इस साल कुछ परिवारों को गरीबी झेलनी पड़ेगी।’ इमली के पेड़ों का प्रति व्यक्ति स्वामित्व इस गांव में गरीबी रेखा को परिभाषित करता है। इस साल के लिए लकमू का आकलन ऐसा था, जैसे गांव की मुद्रा गिरते ही लोग गरीबी रेखा से नीचे गिर रहे हों।

चितापुर गांव की भौगोलिक स्थिति कई ऐतिहासिक घटनाओं की साक्षी रही है, ऐसी घटनाएं, जिन्होंने गांव के अस्तित्व को चुनौती दी हो। ऐसी ही एक घटना गांववालों के दिल में बसी है, जिसके चलते वे इमली के पेड़ों को अपने अस्तित्व का केंद्र-बिंदु मानते हैं।

बहुत साल पहले इस गांव का नाम धनी करका था, जो बाद में बदलकर चितापुर हो गया। उस साल, जब गांव में ब्रिटिश शासन लागू था और जिसका यहां एक थाना भी था। उसी साल गांव में तेंदुए आए, जिनके डर से गांववालों को गांव छोड़ना पड़ा। कई सालों के बाद वे वापस गांव लौटे और अपने पूर्वजों के गांव को को नया नाम दिया - चितापुर, यानी तेंदुओं का गांव।

उसी के बाद गांववालों ने इमली की कीमत समझी। कई लोग अपने पूर्वजों के मुंह से सुनी कहनियां याद करते हैं। इनमें से कई कहानियां ऐसी हैं, जिनमें इमली का पेड़ उस धुरी के रूप में दिखाई देता है, जिसके चारों ओर धुरवा जनजाति के लोग फिर से जीवित हो जाते हैं।

लोगों को खाना देने के लिए यहां खेती नहीं थी लेकिन प्रचुर मात्रा में होने वाले इमली के पेड़ों ने गांववालों को संभाल लिया। जल्दी ही यह मुख्य भोजन बन गई। खेती करने लायक स्थितियां होने तक इमली का गूदा और इसके कोमल पत्ते लोगों के खाने के काम आने लगे। ब्रिटिश व्यापारियों के लिए काम करने वाले स्थानीय ठेकेदारों ने गैर-लकड़ी वनोपज की भोजन के तौर पर इमली से अदला-बदली शुरू कर दी। आखिरकार स्थानीय साप्ताहिक बाजार में भी चितापुर की इमली का आगमन हुआ। दो रूपों में  - पहला, बेचने के लिए एक उत्पाद के रूप में और दूसरा, ऐसी मुद्रा के तौर पर भी, जिससे खाने की दूसरी चीजें खरीदी जा सकें।  

28 साल के वीडियोग्राफर लकमू नाग, जो जिले के एक लोकल टीवी चैनल को  स्थानीय घटनाओं की फुटेज भेजते हैं, उनके मुताबिक, ‘ यहां हर किसी को विरासत में इमली का एक पेड़ मिलता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उसके पूर्वज गरीब थे या अमीर। अगर यह पेड़ फलता है तो वह आदमी अमीर होता जाता है। अगर कोई ज्यादा पेड़ लगाता है तो उसकी जिंदगी सुधरती चली जाती है और अगर कोई अपने पेड़ों की उपेक्षा करता है तो उसे जिंदा रहने के लिए प्रवासी बनने का रास्ता चुनना पड़ता है, जो आखिरी रास्ता है।’  

लकमू खुद भी एक टीवी पत्रकार से ज्यादा इमली इकट्ठा करने वाले ग्रामीण हैं। वह कहते हैं, ‘हमारे गांव और आसपास के इलाके में इमली के पेड़ से जुड़े कामों का स्थानीय महत्व है। यहां ऐसे कार्यक्रम कम हैं, जिन्हें रिकॉर्ड कर मैं चैनल में भेज सकंू, जिस वजह से मैं ज्यादा कमा नहीं पाता।’ उनकी पुश्तैनी जमीन और रियासत में इमली के करीब बीस पेड़ हैं। अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में देने के लिए लकमू ने खुद भी पांच पेड़ लगाए हैं। वह झेंपते हुए कहते हैं - ‘इन इमली के पेड़ों की बदौलत मैं लखपति हूं।’

चितापुर जैसे गांवों ने ही बस्तर जिले को इमली के वैश्विक व्यापार का मुख्य केंद्र बना दिया है। इसका जिला मुख्यालय जगदलपुर, एशिया का सबसे बड़ा इमली का बाजार है, जहां से वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, सालाना पांच सौ करोड़ का कारोबार होता है। यहां से 54 देशों को इमली भेजी जाती है। आदिवासी समुदायों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता राजू राना के मुताबिक, ‘ बस्तर क्षेत्र में वनोत्पाद, आय के सबसे बड़े स्रोत हैं। खासतौर से इमली, जिससे गरीब की अच्छी आमदनी हो जाती है।’

2019 में कृषि विज्ञान केंद्र बस्तर द्वारा प्रकाशित सर्वेक्षण के मुताबिक, इमली का उत्पादन करने वालों में से करीब 43 फीसदी लोग 35 साल से कम उम्र के थे। इनमें से ज्यादातर को इस काम का बीस साल का तर्जुबा है। लकमू नाग कहते हैं, - ‘इमली का काम हमारे लिए पैसा कमाने का कुदरती जरिया है, जिसे हम अपने पूर्वजों से हासिल करते हैं। हम इस काम की दक्षता हासिल करते हैं, साथ ही बाजारों में मोल-भाव करने की कला भी।‘ वह आगे कहते हैं,-‘युवा लोग वनोत्पाद का कारोबार करना पसंद करते हैं। वैसे भी जिसके पास जमीन जितनी कम होगी, उसकी इमली पर निर्भरता उतनी ज्यादा होगी।’

नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी-सूचकांक में बस्तर की 47 फीसदी आबादी बहुआयामी गरीब है। जिले की 70 फीसदी आबादी अनुसूचित जनजाति समुदायों से संबंधित है और ज्यादातर जंगलों में और आसपास रहती है। उनकी नकद आय का लगभग 70 फीसदी वनोपज से आता है। यह देश के 115 पिछड़े जिलों की सूची में शामिल है, और 1950 के दशक से सबसे गरीब जिलों में से एक रहा है।

समय के साथ इमली, चितापुर की अर्थव्यवस्था को परिभाषित करने लगी है। यहां पैसा कमाने के तीन मुख्य तरीके हैं- पहला, इमली और महुआ जैसे वनोत्पादों को बेचना, दूसरा - अतिरिक्त अनाज को बेचना और मनरेगा जैसी योजना में मजदूरी करना और तीसरा-काम करने के लिए दूसरे शहरों में प्रवासी मजदूर की तरह काम करना। दो दशक पहले, राज्य सरकार ने सार्वजनिक वितरण योजना के तहत ज्यादा सब्सिडी वाली खाद्यान्न योजना शुरू की थी, जिससे गांव में हर किसी को फायदा मिल रहा है।

गांव में आर्गेनिक खेती की पहल के लिए राज्य के मुख्यमंत्री से तारीफ पाने वाले छोटे किसान संतुराम नाग कहते हैं, - ‘दो रुपये किलों के रेट पर 35 किलो तक चावल मिलने से हमारी भूख की दिक्कत काफी हद तक कम हो गई है। इससे पहले हमें कई महीनों तक भूख का सामना करना पड़ता था लेकिन अब ऐसा नहीं है। ऐसे में खाने के लिए खेती करना अब एक सम्मोहक गतिविधि से ज्यादा नहीं है।’ वह कहते हैं कि नकद पैसा कमाने के मामले इमली के उत्पादन ने खेती की जगह ले ली है।

उनके पास पांच इमली के पेड़ हैं। इनमें से कुछ उन्हें विरासत में मिले हैं तो कुछ उन्होंने ख्ुाद लगाए हैं। एक भरे-पूरे पेड़ की फसल से साल में करीब बारह हजार रुपये मिलते हैं। ये पैसे हर पेड़़ से करीब तीन से चार कुंतल इमली बेचने से कमाए जाते हैं। वह कहते हैं- ‘ फिलहाल मेरी सबसे ज्यादा कमाई इमली बेचने से होती है। इसने महुआ की जगह भी ले ली है, जिससे मुझे साल भर में लगभग 15,000 की कमाई होती है।’ वह बताते हैं कि खेती से सालना करीब तीस हजार रुपये मिल जाते हैं।

इमली के पेड़ों की देखभाल कर रहे कश्यप, काम को बीच में छोड़कर इस काम से गांव की अर्थव्यवस्था की गणना करते हैं। उनके मुताबिक, अगर इमली के एक पेड़ से सालाना 12,000 की कमाई होती है, तो मान लीजिए कि गांव का सालाना इमली का कारोबार 204 लाख रुपये का होता है। अगर पहले हुए कम उतपादन के आधार पर देखें तो इस साल भी कम उत्पादन के बावजूद यह कारोबार 204 लाख रुपये के आधे से थोड़ा ज्यादा ही होगा।

इसके अलावा, गांव के लोगों के जीवन में इमली के पेड़ों से कई और चीजें भी तय होती है। परिवार इमली बेचने से होने वाली लागत का अनुमान लगाकर शादी या सामुदायिक भोज, नए कपड़े या खेती के औजार खरीदने की योजनाएं बनाते हैं। एक मंद अर्थव्यवस्था में इससे आगे जाकर लोग ये भी देखते हैं कि अगर इमली में नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई के लिए क्या करना है। चितापुर में इसका मतलब यह है कि फिर युवाओं को काम करने के लिए उस साल बाहर जाना पड़ेगा।

पिछले दो सालों में महामारी के बावजूद इमली की बिक्री ने यह सुनिश्चित किया कि लोग गांव से बाहर न जाएं। कई युवाओं ने यह तय किया है कि अब वे यहीं रुकेंगे। हालांकि नाग कहते हैं- ‘लेकिन अगर ज्यादा नुकसान हुआ तो हमें कमाने के लिए बाहर जाना ही पड़ेगा क्योंकि तभी हम शादी या नए कपड़े खरीदने जैसी अपनी ख्वाहिशों को पूरा कर पाएंगे।

(यह लेख, देश के सबसे गरीब जिलों की कहानियों की श्रंखला की एक कड़ी है, खासकर वे जिले जो 1951 से देश की गरीबी रैंकिंग में बने हुए हैं। यह श्रंखला गरीबी और स्थानीय पारिस्थितिकी के क्षरण के बीच संबंध की जांच भी करेगी कि क्या पारिस्थितिकी के क्षरण की उस भौगोलिक-क्षेत्र में गरीबी की समस्या को दीर्घजीवी बनाए रखने में कोई भूमिका है।)

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