ट्रंप का नया अवतार – वामपंथियों संग कदमताल!
एक वैश्विक व्यापार युद्ध तेजी से सिर उठा रहा है। ब्रेग्जिट से लेकर डोनाल्ड ट्रंप की वापसी तक ऐसा लग रहा है कि स्थानीयकरण का दौर लौट रहा है। हालांकि पहले से एक वैश्वीकरण को अपना चुकी दुनिया में वैश्विक स्तर पर ऐसे युद्ध अच्छे नहीं हैं, क्योंकि ये लाखों लोगों की जिंदगी पर असर डालते हैं।
राष्ट्रपति बनने के एक महीने के भीतर ही डोनाल्ड ट्रम्प ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे वैश्वीकरण के बजाय पहले अमेरिकीवाद को प्राथमिकता देते हैं। वैश्वीकरण ने चीन और भारत जैसी मजबूत अर्थव्यस्थाएं तैयार कीं, जो अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल करके वैश्विक नेतृत्व में अपनी स्थिति के लिए संघर्ष कर रही हैं। अमेरिका ने स्थानीयकरण का झंडा सबसे पहला फहरा दिया है और उसकी प्रतिक्रिया में यूरोपीय संघ, कनाडा, चीन और यहां तक कि भारत भी उसके पीछे चल पड़ा है।
जैसे को तैसा की तर्ज पर कुछ आयातित सामानों पर टैरिफ बढ़ाए गए हैं। विश्लेषकों ने इसे इस सोच के साथ सीमित युद्ध के रूप में देखा कि डोनाल्ड ट्रम्प पूरी तरह से ‘मुक्त व्यापार’ के पक्ष में हैं, लेकिन यह दृष्टिकोण इस तथ्य को नकारता है कि दुनिया में बनावट के स्तर पर एक बड़ा बदलाव आकार ले रहा है। यह वैश्विक नेतृत्व पर कब्जा करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच एक युद्ध है।
चीन दुनिया को अपनी ताकत दिखा रहा है। उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग का ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ अपने वैश्विक प्रभाव को दिखाने का खुला प्रयास है। जुलाई 2017 में, चीन ने भविष्य की तकनीक-कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) में निवेश करने की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की।
इस बारे में गुप्त (अपुष्ट) अफवाहें हैं कि वह किस तरह से दुनिया के बड़े बाजारों में काम कर रही पश्चिमी कंपनियों को पछाड़कर नए युग की तकनीकें हासिल करने की कोशिश कर रहा है। पिछली सदी में अमेरिका और यूरोप का दबदबा था, जबकि रूस साम्यवादी रास्ते पर चलने वाला एक अलग देश था।
चीन को ताकत दुनिया में मुक्त बाजार के उभार वाली व्यवस्था से मिली। ज्यादा नहीं, केवल 40 साल पहले तक वह पर्दे के पीछे ही था। 1995 में विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ की स्थापना के बाद चीन के व्यापार ने उछाल मारी। इसने दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ी नौकरियों पर कब्जा जमा लिया।
भारत ने भी टेलीमार्केटिंग जैसे आउटसोर्स बिजनेसों को अपना कर दुनिया में जगह बनाई। नौकरियों (और उनके साथ प्रदूषण ) के इन महाद्वीपों में स्थानांतरित होने से ‘शंघाइड्’ और ‘बैंगलोर्ड’ जैसे शब्द शब्दकोश में शामिल हो गए। इस तरह, वैश्वीकरण ने विश्व समृद्धि के एक नए युग की शुरुआत करने के अपने उद्देश्य को पूरा किया, या फिर हमने सोचा कि ऐसा हुआ।
इसके बजाय वैश्वीकरण ने दुनिया को ज्यादा पेचीदा और जटिल बना दिया। 1990 के शुरुआती दशक में जब ‘शुल्क तथा व्यापार पर सामान्य समझौता’ यानी जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड ‘गैट’ पर बहसें शबाब पर थीं, तब उत्तर (विकसित) और दक्षिण (विकासशील देशों) में एक स्पष्ट विभाजन था। उस समय दुनिया के विकसित देश बाजार को खोलने के लिए जोर लगा रहे थे। विकसित देशों वाली दुनिया ‘शुद्ध’ व्यापार और बौद्धिक संपदा पर नियमों के जरिए बाजार के साथ-साथ संरक्षण चाहती थी।
जबकि उस समय विकासशील देशों वाली दुनिया इस बात को लेकर चिंतित थी कि मुक्त व्यापार का विचार, उनकी नवजात और कमजोर अर्थव्यवस्थाओं पर कैसा असर डालेगा। इससे ज्यादा इस बात का डर था कि खुले व्यापार के ये नए नियम उनके किसानों पर कैसा असर डालेंगे, जिन्हें विकसित दुनिया के असंगत रूप से सब्सिडी प्राप्त किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी।
1999 में सिएटल में डब्ल्यूटीओ में मंत्रियों के सम्मेलन में इसे लेकर तनाव चरम पर पहुंच गया। इस समय तक वैश्वीकरण की सच्चाई नजर आने लगी थी, जिसे लेकर तब अमीर दुनिया के नागरिक ही थे, जिन्होंने मजदूरों के अधिकारों, नौकरियों की आउटसोर्सिंग और पर्यावरण हनन का विरोध किया। हालांकि तब इन हिसंक प्रदर्शनों को कुचल दिया गया। इसके बाद अगला दशक आर्थिक संकट में गुम हो गया। नए विजेताओं ने पुराने पराजितों को दिलासा दिया कि ‘सबकुछ ठीक चल रहा है’।
तब ट्रंप सिएटल के वामपंथी प्रदर्शनकारियों के साथ जुड़े, जबकि अब भारत और चीन मुक्त व्यापार के नए संरक्षक हैं। दरअसल इन दोनों में से चीन, इस स्थिति से ज्यादा, बहुत ज्यादा हासिल करना चाहता था, लेकिन फिर वही बात, क्या यह इतना सीधा-सरल मामला है? ये सारी व्यवस्थाएं रोजगार के संकट से इंकार करके बनाई गई है।
वैश्वीकरण के पहले चरण में श्रम का कुछ हद तक विस्थापन हुआ और इसी बात पर ट्रंप चिल्लाये। लेकिन सच तो यह है कि वैश्वीकरण के इस चरण का मतलब पुराने अभिजात्य वर्ग (व्यापार और उपभोक्तावाद की दुनिया में मध्यम वर्ग) और नए अभिजात्य वर्ग के बीच युद्ध ही है। यह इतना लंबा या गहरा नहीं रहा है कि खेती में लगी गरीबों की बड़ी आबादी की आजीविका को खत्म कर सके।
हालांकि यह उस तरफ बढ़ रहा है। यहीं पर वैश्वीकरण के असली प्रभाव को महसूस किया जाएगा। वैश्विक कृषि व्यापार विकृत और बहुत विवादास्पद बना हुआ है। व्यापार समझौतों में बुनियादी बातों को लक्षित किया गया जैसे कि सरकार द्वारा खाद्यान्न की खरीद - ताकि खाद्यान्न संकट का सामना किया जा सके और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की पेशकश की जा सके। भारत सरकार सही कह रही है कि वह अपने किसानों के साथ खड़ी रहेगी, लेकिन अगर हम यह नहीं पहचानते कि रोजगार ही असली संकट है, तो हम इस अत्यधिक असंतुलित व्यापार व्यवस्था को संतुलित नहीं कर पाएंगे।
2018 से मैं देख सकती हूं कि अमीरों के बदले का जवाब पहले से मौजूद था। इसे ही मैं गरीबों का बदला कहती हूं। यह विरोधाभासी लग सकता है लेकिन दुनिया भर में हो रहा विकास हमें इसके लिए आश्वस्त करता है। 2018 में यही संदेश पेरिस से लेकर दिल्ली की गलियों तक निकले थे।
हमें यह समझने की जरूरत है, ताकि हम देख सकें कि ये प्रदर्शन किस तरह से वर्तमान आर्थिक और पारिस्थितिक व्यवस्था के खिलाफ एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हमें समझने की जरूरत है ताकि हम बदलाव के लिए काम कर सकें। पीली जर्सी पहनकर पेरिस में लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर इसलिए उतरे क्योंकि उनकी सरकार जलवायु परिवर्तन का मुकाबला, ईंधन की कीमतें बढ़ाकर करना चाहती थी।
लोगों का इमैनुअल मैक्रां को संदेश था कि आपको दुनिया के खत्म होने की चिंता हो सकती है लेकिन हमें इस सप्ताह के अंत की चिंता है। ईंधन के बढ़े दाम- चीजों की बढ़ी हुई कीमतों, टैक्सेस और बेरोजगारी के विरोध में लोगों के गुस्से का प्रतीक बन गए थे। लोगों के हिसाब से राष्ट्रपति की उत्सर्जन कम करने की योजनाएं दूर की कौड़ी और वास्तविकता से दूर नजर आने वाली थीं।
यह व्यथित करने वाला है कि दुनिया के पास ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने या फिर एक विनाशकारी नतीजा देखने के लिए कम समय बचा है। उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि दुनिया में भारी संख्या में लोगों के पास ऊर्जा तक पहुंच ही नहीं है, इसका अर्थ है कि अमीरों को अपनी उपभोग की आदतें कम करनी होंगी, गरीबों के लिए पर्यावरणीय स्थान छोड़ना होगा ताकि वे भी तरक्की कर सकें, और उन्हें विकास के लिए धन भी उपलब्ध कराना होगा।
इसी से गरीब, जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल किए बिना आगे बढ़ पाएंगे। यही असली चुनौती है। लेकिन फ्रांसीसी सरकार ने अपनी ही जनता को जलवायु परिवर्तन की बड़ी चुनौती — जिसमें महत्वाकांक्षा और समानता दोनों की जरूरत है — के खिलाफ खड़ा कर दिया।
दुनिया को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का कम करने के लिए केवल वैश्विक समझौतों की जरूरत नहीं है बल्कि इसे हर देश में समानता के मुदृदे पर ध्यान देने की भी जरूरत है। फ्रांस का आंदोलन गरीब भारतीयों या बांग्लादेशियों के खिलाफ नहीं था, यह उनकी अपनी सरकार की एक ऐसा आर्थिक मॉडल बनाने में नाकामी के खिलाफ था, जो सभी की जरूरतों (आकांक्षाओं को नहीं) को पूरा करता हो। यह स्पष्ट रूप से उल्टा पड़ने वाला है और सरकारों को कुछ भी कठोर या असुविधाजनक करने से सावधान कर देगा।
यह वह समय है जब हमें और भी कठोर कार्रवाई की आवश्यकता है लेकिन यह भी स्पष्ट है कि कार्रवाई चाहे वह राष्ट्रीय हो या वैश्विक - समावेशी होनी चाहिए, यह निष्पक्ष होनी चाहिए। इसकी गाज गरीबों पर नहीं गिरनी चाहिए, चाहे वह अमीर देशों के ही क्यों न हों। उदाहरण के लिए उन पर, जिनके पास किफायती विकल्प के तौर पर कारें नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन तब तक काम नहीं करेगा, जब तक कि यह सबके लिए न हो।
अब यह निश्चित हो चुका है कि पश्चिम ने - जिसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने की जरूरत थी, इसमें कमी दिखाने का प्रबंधन इस रूप में किया कि उसने निर्माण करने वाले अपने उद्योगों को दुनिया के दूसरे देशों खासकर चीन को निर्यात किए। इस तरह से कमी न तो उपभोग में आई, न उत्सर्जन में आई बल्कि केवल वह जगह बदल गई, जहां उत्सर्जन किया जाता हो।
अब वह समय है जब व्यापार युद्ध, इस चरण में आजीविका के मौकों पर केंद्रित हो। वैश्विक व्यापार वार्ताएं रोजगार की बात करें केवल उद्योगों की नहीं। इसे श्रम का मूल्य समझना चाहिए, सामानों का नहीं। दुनिया की असुरक्षा के मूल में यही वह बात है, जो जरूरी है। यह व्यापार या अर्थ के बारे में नहीं, यह उनके बारे में है जिन्होंने सबसे ज्यादा गंवाया है - इस दुनिया के लोग और यह धरती।
बीस सालों में वैश्वीकरण का विचार कड़वा साबित हुआ है - इसके समर्थक ही निरंकुश वैश्विक व्यापार की इस शानदार योजना से मुंह मोड़ रहे हैं, जो राष्ट्रीय सरकारों की सब्सिडी और समर्थन की खामियों के बिना बनाई गई थी। अब सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन और युद्धों के मुहाने पर खड़ी दुनिया में इस नए वैश्वीकरण के नियम क्या आकार लेंगे? फिलहाल सबसे ज्यादा सुखियों में रहने वाला मुद्दा चीन के खिलाफ अमेरिकी का रुख है। इसे निरंकुश और अलोकतांत्रिक शासन के खिलाफ लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है (जो कि सच है)। लेकिन असली कारण संसाधनों और तकनीक पर नियंत्रण पाने का है, जिसमें वह हरित अर्थव्यवस्था भी शामिल है, जिसकी दुनिया को तत्काल जरूरत है।
बैट्रियों की सप्लाई चेन पर चीन का दबदबा है, यह दुनिया की आधे से ज्यादा लीथियम, कोबाल्ट और ग्रेफाइट की प्रोसेसिंग करता है और सोलर एनर्जी के क्षेत्र मे अग्रणी है। इस ‘दुश्मन’ से लड़ने के लिए अमेरिका ने अपनी सभी वैचारिक शंकाओं को छोड़ने का फैसला लिया है। मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (आईआरए) अमेरिका में कम कार्बन वाले उत्पादों के निर्माण के लिए कम्पनियों को वित्तीय मदद दे रहा है।
मुद्दा यह है कि चीन का बोलबाला खत्म करने के लिए पश्चिम का यह मिशन, मौजूदा तंत्र के हरित अर्थव्यवस्था में बदलाव की लागत को बढ़ा देगा या यहां तक कि इसमें देरी भी करेगा ? या फिर पश्चिम इस नामुमकिन को मुमकिन करने में कामयाब हो पाएगा कि बड़ी कीमत पर मजदूरी और पर्यावरण के मानकों के बावजूद दुर्लभ खनिजों तक पहुंच बनाई जाए और निर्माण उद्योग को फिर से खड़ा किया जाए।
इससे वि-भूमंडलीकरण या स्थानीयरण बढ़ेगा क्योंकि ज्यादा से ज्यादा देश अपने प्राकृतिक स्रोतों, तकनीकों और ज्ञान का अपने हित में अधिकतम उपयोग करना चाहेंगे। यह भी संभावना है कि तकनीक में नई सफलताएं जन्म लें, जो चीन के प्रभुत्व वाली आपूर्ति श्रृंखला को निरर्थक बना दें।
उदाहरण के लिए, सोडियम आयन बैटरी के बारे में चर्चा हो रही है जो लिथियम बैटरी की जरूरत को कम कर सकती है। इसके साथ ही वि-भूमंडलीकरण का यह भी मतलब होगा कि इससे हरित-बदलाव की प्रक्रिया बाधित होगी।
उदाहरण के लिए अमेरिका मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (आईआरए) के जरिए इलेक्ट्रिक वाहनों के स्थानीय निर्माण को समर्थन दे रहा है। इसने अधिसूचना जारी की है कि जिन इलेक्ट्रिक वाहनों में चीन निर्मित बैट्री उपकरण लगे होंगे, वे पूरी सब्सिडी के लिए उपयुक्त नहीं होंगे।
इसमें आगे कहा गया है कि यदि इन वाहनों का चीनी सरकार के साथ ‘महत्वपूर्ण’ संबंध है या इन्हें चीन में स्थित या नियंत्रित ऑपरेटर के साथ लाइसेंसिंग समझौते के तहत उत्पादित किया गया है तो ये वाहन आईआरए के लिए योग्य नहीं होंगे। कच्चे खनिज और बैटरी विनिर्माण क्षेत्र में चीन के लगभग पूर्ण नियंत्रण को देखते हुए, इस अलगाव से इलेक्ट्रिक वाहनों के ट्रांजिशन में देरी हो सकती है या यह ज्यादा महंगे हो सकते हैं।
चीन की इलेक्ट्रिक वाहन कंपनी बीवाईडी पहले ही एलन मस्क की टेस्ला से आगे निकल चुकी है। फाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार, 2023 की चौथी तिमाही में, बीवाईडी ने केवल बैटरी वाले रिकॉर्ड 526,000 इलेक्ट्रिक वाहन बेचे, जबकि टेस्ला ने ऐसे 484,000 वाहन बेचे। इसलिए आज चीन के दबदबे वाली दुनिया में स्थानीयकरण और तेज हरित परिवर्तन के दोहरे उद्देश्यों का प्रबंधन करना चुनौती हो सकती है।
यही चीज भारत में भी है। हमने तय किया है कि सोलर इंडस्ट्री में स्थानीय क्षमता में निवेश किया जाए और यह सही भी है। भारत सरकार ने सौर सेल और मॉड्यूल निर्माण के लिए राजकोषीय प्रोत्साहन का ऐलान किया है और चीनी उत्पादों पर उच्च आयात शुल्क लगाया है। अभी यह कहना मुश्किल है कि इससे भारत के महत्वाकांक्षी नवीकरण कार्यक्रम में बाधा आएगी या नहीं क्योंकि घरेलू उत्पादन की गति प्रतिस्पर्धा के अनुकूल नहीं भी हो सकती है।
दूसरी ओर अपनी इंडस्ट्री को खड़ा करने में जाहिर तौर पर एक फायदा भी है। मुक्त वैश्विक व्यापार के धीरे-धीरे खत्म होने से भारतीय इंडस्ट्री के निर्यात पर भी असर पड़ेगा। कुल मिलाकर दुनिया में एक नया खेल शुरू हो चुका है और हमें यह देखने की जरूरत है कि क्या इस बार व्यापार के नियम लोगों और इस धरती के पक्ष में काम करने वाले होंगे या उनके खिलाफ होंगे।
यह लेख सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा प्रकाशित सुनीता नारायण की किताब ‘द राइज ऑफ द नियो लोकल्स: ए जनरेशनल रिवर्सल ऑफ ग्लोबलाइजेशन’ का संक्षिप्त अंश है।