दो विरोधाभाषी हितों वाले देश के राष्ट्राध्यक्षों के बीच गहरी दोस्ती कभी-कभी अच्छी बात नहीं होती, और तब जब एक देश आर्थिक रूप से शक्तिशाली हो और उनके राष्ट्राध्यक्ष बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों विशेषकर बड़ी फार्मा कंपनियों के हिमायती हों। डोनाल्ड ट्रंप फरवरी में भारत दौरे पर आ रहे हैं, कई संस्थाएं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ होने वाले उनके करारों को लेकर सशंकित हैं। मोदी सरकार ने अपने बड़े व्यापारिक सहयोगी जापान के साथ पेटेंट से संबंधित मामलों को फास्ट ट्रैक के जरिए सुलझाने की दिशा में तैयार होने के संकेत दिए हैं।
कई रिपोर्ट इशारा करती हैं कि एक छोटे से समझौते के साथ मुक्त व्यापार समझौते की पटकथा लिखी जा रही है और इसके अलावा समझौते में बौद्धिक संपदा (आईपी) को लेकर सबका अधिक रुझान रहने वाला है। यह मुद्दा अमेरिकी, जापान और यूरोपियन संघ के बीच वार्ताओं में खूब चर्चा में रहा है।
अमेरिका की तरफ देखें तो यह वशिंगटन की ओर से भारतीय बैद्धिक संपदा कानूनों को लेकर वृहत अभियान छेड़े हुआ है, खासकर उन कानूनों को लेकर जो दवाई निर्माताओं पर लागू होते हैं। इस विवाद का एक मुख्य बिंदू कानून की धारा तीन डी है, जो मूल दवाओं में मामूली बदलाव कर उसे पेटेंट कराने की बड़े दवा निर्माताओं की कुख्यात प्रवृत्ति पर लगाम लगाता है।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट में एकबार मुंहकी खाने के बाद से अमेरिका भारत के पेटेंट कानून पर लगातार हमलावर है और इसका सुपर 301 समीक्षा भारत पर हमला करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।
इस व्यापारिक समझौते को लेकर भारतीय सिविल सोसायटी ग्रुप्स मोदी सरकार से निवेदन कर रही है कि मुक्त व्यापार समझौते पर अमेरिका के साथ बातचीत न करें। इसकी बड़ी वजह है भारत की वह सस्ती इलाज सुविधा जो कि जेनेरिक दवाओं के बदौलत फल-फूल रही है, अन्यथा महंगी दवाओं से लाखों गरीबों के जीवन पर असर होगा। इन समूहों ने कहा है कि वे जानते हैं कि अमेरिका ने भारतीय पेटेंट अधिनियम में विशिष्ट संशोधन की मांग की है, जो "भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य के अनुकूल पेटेंट कानूनों" को कमजोर करेगा।
अब चिंता की बात यह है कि ट्रंप ने दिल्ली आने से पहले चीन के साथ एक व्यापारिक समझौता पर हस्ताक्षर कर दिया है। यह समझौता जो उन्होंने जनवरी 15 को किया है वह चीन के भीतर जिस तरह का पेटेंट संबंधी सुरक्षा सुनिश्चित करता है वह ठीक अमेरिका की तरह है। ऐसी स्थिति में भारतीय वाणिज्य विभाग के अधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए यह जरूरी उस समझौते को पढ़कर समझे कि वशिंटगन ने आखिर किस तरह खुद को बींजिंग के कानून से सुरक्षित कर लिया।
चीन ने एक बेहद खराब रियायत देने पर सहमति जताई है जिससे पेटेंट लिकेंज और इसकी अवधि में विस्तार की अनुमति बेहद आसान होगी। इसका सीधा नुकसान जेनेरिक दवाओं को होगा क्योंकि पेटेंट की अवधि में इसे बाजार में लाया नहीं जा सकेगा। इससे सस्ती दवाओं के बाजार पर असर होगा तथा बाजार में बड़ी कंपनियों को प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सकेगा।
बड़ी दवा कंपनियों इस समझौते के बाद विजेता की तरह उभरकर सामने आ हैं क्योंकि अब पेटेंट की अवधि को बढ़ाना आसान हो गया है। यही वजह है कि अमेरिका के साथ इस समझौते पर शी जिंपिंग के हस्ताक्षर की बौद्धिक संपदा क्षेत्र के जुड़े हुए बड़े विश्लेषक तारीफ कर रहे हैं।
हालांकि कुछ अन्य विश्लेषकों का जोर है कि बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि चीन इस समझौते का पालन कैसे करता है। कुछ उपायों को चीन का पुराना वादा कहा जा सकता है, जिसे चीन अपने तरीके से लागू कर रहा है।
शायद, नई दिल्ली को चीन से यह सीखने की जरूरत है कि कैसे अपना नुकसान किए बिना भी ट्रंप को खुश रखा जा सकता है।