मनरेगा की भुगतान प्रणाली में हैं कई खामियां

इडियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन में इस पर विस्तार से बात की गई है
हिमाचल प्रदेश में मनरेगा के तहत काम करती स्थानीय महिलाएं। फाइल फोटो: रोहित पराशर
हिमाचल प्रदेश में मनरेगा के तहत काम करती स्थानीय महिलाएं। फाइल फोटो: रोहित पराशर
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महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत मजदूरी देने की नई भुगतान प्रणाली बहुत अधिक अच्छी साबित नहीं हो रही है। यह बात “इडियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स” में प्रकाशित हुए एक अध्ययन में कही गई है।

जर्नल में प्रकाशित शोध के शोधकर्ताओं ने 2021-22 में किए गए 3.14 करोड़ लेन-देन के विश्लेषण के बाद कहा है कि भुगतान की गति और अस्वीकृति दर में बस थोड़ा सा ही सुधार दिखाई पड़ता है।

ध्यान रहे कि केंद्र सरकार ने गत 1 जनवरी 2024 से मनरेगा में आधार-आधारित प्रणाली को अनिवार्य कर दिया था। सरकार ने इस मामले में यह तर्क दिया है कि इससे दक्षता, बचत और पारदर्शिता की स्थिति और अधिक बेहतर होगी।

इंडियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स में हाल ही में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) और मानक बैंक खाता-आधारित विधियों के बीच समय पर वेतन भुगतान या भुगतान अस्वीकृति में कोई बहुत अधिक अंतर नहीं है।

शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के लिए 10 राज्यों में 2021-22 में किए गए 4,602 करोड़ मूल्य के 3.14 करोड़ महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत हुए भुगतान के लेन-देन का एक विस्तृत विश्लेषण कर यह शोधपत्र तैयार किया है।

यह सर्वविदित है कि केंद्र सरकार के जनवरी 2024 से आधार-आधारित प्रणाली को अनिवार्य कर देने के बाद बड़ी संख्या में मनरेगा श्रमिकों ने इस संबंध में बारंबार शिकायत दर्ज कराई है कि एबीपीएस के कारण उनके वेतन भुगतान को गलत तरीके से किया गया है जबकि कई श्रमिकों के नाम उनके जॉब कार्ड और उनके आधार में दिए गए विवरण के बीच सही नहीं होने के कारण हटा दिए गए।

जर्नल में “एक तकनीकी प्रयोगशाला के रूप में मनरेगा: दो डिजिटल हस्तक्षेपों के परिणामस्वरूप मजदूरी भुगतान में देरी का विश्लेषण” शीर्षक से प्रकाशित इस शोधपत्र के शोधकर्ताओं में सुगुना भीमरसेट्टी, अनुराधा डे, राजेंद्रन नारायणन, पारुल साबू और लावण्या तमांग शामिल हैं और इन सभी ने संयुक्त रूप से शोधपत्र लिखा है। ध्यान रहे कि इस शोध पत्र को लिखने वाले सभी लेखक लिब टेक इंडिया (कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों का एक संघ) नामक एक संघ से जुड़े हुए हैं।

शोधकर्ताओं ने सात और 15 दिनों के भीतर किए गए भुगतानों के प्रतिशत का विशेष रूप से विश्लेषण किया है। भुगतान अस्वीकृति के मामले में अध्ययन में कहा गया है कि एपीबीएस के लिए 2.1 प्रतिशत की तुलना में 2.85 प्रतिशत खाता-आधारित भुगतान अस्वीकार कर दिए गए थे। हालांकि दोनों के बीच केवल मामूली ही अंतर है। शोधकर्ताओं ने कहा कि एबीपीएस मनरेगा श्रमिकों के बीच संशय की स्थिति पैदा कर रहा है।

अध्ययन का कहना है कि खाता-आधारित भुगतानों के साथ किसी भी समस्या को ब्लॉक-स्तरीय कंप्यूटर ऑपरेटर के माध्यम से स्थानीय स्तर पर हल किया जा सकता है। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि एबीपीएस के कारण अस्वीकृति केंद्रीय स्तर होती है और ऐसे में उसका ही हल करना कठिन हो जाता है।

आधार-आधारित भुगतान प्रणाली अभी भी मजदूरी भुगतान में देरी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। इस जटिल प्रक्रिया में आधार का उपयोग करके भुगतान करने के लिए कम से कम तीन चरणों का अवश्य पालन किया जाना चाहिए। सबसे पहले एक कार्यकर्ता का आधार नंबर उसके जॉब कार्ड से जुड़ा होना चाहिए। दूसरा उसका आधार उसके बैंक खाते से जुड़ा होना चाहिए। तीसरा आधार नंबर को उसकी बैंक शाखा के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम के साथ सही ढंग से लिंक किया जाना चाहिए। यह आधार-आधारित भुगतानों के लिए क्लियरिंग हाउस के रूप में कार्य करता है। ध्यान रहे कि सरकार ने पहली बार 2016 में वैकल्पिक उपाय के रूप में आधार आधारित भुगतान प्रणाली शुरू की थी।

1 जनवरी 2024 को कई बार समय सीमा बढ़ाने के बाद केंद्र सरकार ने मनरेगा में मजदूरी भुगतान हस्तांतरित करने के लिए विशेष चैनल के रूप में एबीपीएस के उपयोग को अनिवार्य कर दिया था। ध्यान रहे कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम भारत का ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम है जो प्रत्येक परिवार को 100 दिन का काम प्रदान करता है और काम पूरा होने के 15 दिनों के भीतर मजदूरी का भुगतान अनिवार्य करता है। मनरेगा में भुगतान के लिए कई तकनीकों का उपयोग किया गया है ताकि इसकी भुगतान करने की दक्षता और पारदर्शिता में सुधार हो लेकिन तकनीकों का उपयेाग करने से भुगतान प्रणाली में बहुत अधिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ है।

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