दाने-दाने को मोहताज हुए दिल्ली के मजदूर

लॉकडाउन के बाद अपने गांव नहीं जा पाने वाले मजदूरों को नहीं मिल रहा है काम
लॉकडाउन खत्म हो चुका है, लेकिन मजदूरों को अभी काम मिलना शुरू नहीं हुआ है। फोटो: आदित्यन
लॉकडाउन खत्म हो चुका है, लेकिन मजदूरों को अभी काम मिलना शुरू नहीं हुआ है। फोटो: आदित्यन
Published on

लगभग डेढ़ माह पहले पूरे देश का ध्यान महानगरों से अपने घर गांव लौट रहे मजदूरों की ओर था। डाउन टू अर्थ ने तब इन मजदूरों के साथ पैदल सफर किया, लेकिन समय के साथ इन मजदूरों को फिर से भुला दिया गया है। लॉकडाउन खुल चुका है। ऐसे में जो मजदूर अपने गांव नहीं जा पाए या जो गांव में काम न मिलने पर फिर से महानगर लौट आए हैं। उनकी अब क्या हालत है, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ एक बार फिर सड़क पर है। तो आइए जानते हैं कि आखिर ये मजदूर किस हाल में हैं-

किशनवीर पिछले 4 महीने से दाने-दाने को मोहताज हैं। वह 30 साल पहले उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद से दिल्ली आए थे और लगभग 28 साल से एशिया की सबसे बड़ी अवैध कॉलोनी मानी जाने वाली संगम विहार में किराए के एक कमरे में रह रहे हैं। किशनवीर एक हाथ से अपाहिज हैं। वह रोज सुबह 7 बजे सब्बल, गैंती और फावड़ा लेकर संगम विहार के रतिया मार्ग में गली नंबर 12 की लेबर चौक पर पहुंच जाते हैं और करीब साढ़े 10 बजे तक काम के इंतजार में बैठे रहते हैं लेकिन अब ऐसे मौके कम ही आते हैं। काम न मिलने से उनके औजारों में जंग लग चुका है।

किशनवीर के कंधों पर तीन बच्चों और पत्नी को पालने-पोसने की जिम्मेदारी है। जिस मकान में वह रहते हैं, उसका किराया 3,000 रुपए प्रतिमाह है। मकान मालिक 8 रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली का बिल अलग से वसूलता है। वह पैसे उधार लेकर किसी तरह किराया दे रहे हैं। एक राहत की बात यह है कि कम से कम राशन उन्हें सरकार की तरफ से मिल रहा है। हालांकि यह राशन पूरे महीने नहीं चल पाता। ऐसी स्थिति में उनके परिवार को स्कूल में बंटने वाले भोजन पर निर्भर रहना पड़ा।

किशनवीर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि लॉकडाउन खुलने के बाद उन्हें महज दो दिन काम मिला है। नम आंखों और भरे गले से बताते हैं, “देशव्यापी लॉकडाउन लगने के बाद मैं यह सोचकर गांव नहीं गया कि कुछ दिनों में हालात सुधर जाएंगे। लेकिन लॉकडाउन के लगातार बढ़ने और फिर लॉकडाउन खुलने के बाद स्थितियां बद से बदतर हो गईं। वैसे गांव जाकर भी मैं क्या करता? मेरे पास खेती नहीं है, इसलिए यहीं रुकने का फैसला किया।”

वर्तमान में दिल्ली की आबादी करीब 2 करोड़ है। इनमें आधे से ज्यादा आबादी झुग्गी झोपड़ियों, पुनर्वास कॉलोनियों और संगम विहार जैसी अवैध कॉलोनियों में रहती है। दिल्ली की आबादी में 40 प्रतिशत हिस्सेदारी प्रवासियों की है। 50 प्रतिशत से अधिक प्रवासी अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। 2011 की जनगणना कहती है कि दिल्ली की 1.68 करोड़ की आबादी में 55.87 लाख मजदूर हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे लाखों मजदूर इस समय अपनी जिंदगी के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। दिल्ली में बहुत से प्रवासी मजदूर पैसे की तंगी के कारण और गांव में रोजगार का साधन न होने के कारण शहर में ही रुक गए।

सभी मजदूरों की एक दुखभरी कहानी है। 27 साल की कमलावती को 12 जून-12 जुलाई के बीच केवल चार दिन ही काम मिला है। मकान मालिक रोज उनसे किराए का तकादा करता है। तीन महीने का किराए बकाया है। लॉकडाउन के बाद उनके पति जिस कंपनी में काम करते थे, वह बंद हो गई। कंपनी ने उन्हें दो महीने की सैलरी भी नहीं दी। मार्च में होली के बाद उनका परिवार बलिया जिले से दिल्ली आया था। उनके आने के कुछ दिनों बाद ही लॉकडाउन लग गया। वह बताती हैं कि अगर लॉकडाउन का पता होता तो वह कभी गांव से नहीं आतीं। वापस जाने के लिए पैसे न होने के कारण वह दिल्ली में फंस गईं। सरकार की कोई मदद उन तक नहीं पहुंची है। सरकार मुफ्त राशन दे रही है लेकिन इसका फायदा गरीब प्रवासी मजदूरों के बजाय मकान मालिक उठा रहे हैं। बिजली के बिल में राहत भी मकान मालिक, किराएदारों को नहीं दे रहे हैं।

मूलरूप से बुलंदशहर के रहने वाले राजकुमार पेंट का काम करते हैं। वह बताते हैं,  “मकान मालिक रोज किराएदार मजदूरों की बेइज्जती करते हैं। किराया न देने पर उनके बर्तन फेंक देते हैं और गालियां देते हैं। किसी भी मकान मालिक ने एक रुपए नहीं छोड़ा है।” लॉकडाउन के बाद राजकुमार के मन में गांव जाने का विचार आया था लेकिन जब उन्होंने हादसों में मजदूरों की मौत की खबरें सुनीं तो इरादा बदल दिया। राजकुमार का गांव दिल्ली से बहुत दूर नहीं है लेकिन उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि गांव जा सकें। वह दिल्ली और केंद्र सरकार से हाथ जोड़कर मजदूरों पर ध्यान देने की विनती करते हैं। 

जारी ...

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in