आमतौर पर साल का यह समय ऐसा होता है, जब हर कोई दुनिया के नए अरबपतियों के बारे में जानना चाहता है, वह यह जानना चाहता है कि इस साल पुराने धनकुबेरों की कितनी बढ़ी और फिर उसके बाद असमानता पर वही पुरानी बहस शुरू हो जाती है। हालांकि इस दौर में संपत्ति की कोई भी लिस्ट हमें परेशान कर रही है। यही वह समय होता है जब गैर-लाभकारी संगठन आक्सफेम की असमानता पर रिपोर्ट जारी होती है और इन्हीं दिनों विश्व आर्थिक फोरम का आयेाजन होता है।
हालांकि यह समय सामान्य नहीं है। दुनिया अभी भी महामारी की चपेट में है, अभी तक किसी देश की ग्रोथ में बढ़त दर्ज नहीं हुई है और विश्व अर्थव्यवस्था में इतनी विषमता की आशंका जताई जा रही है, जितनी पहले कभी नहीं की गई। इसके साथ ही 2019 की तुलना में प्रति व्यक्ति आय में भी गिरावट के संकेत हैं।
विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, महामारी के चलते दुनिया भर में इस साल के अंत तक लगभग 15 करोड़ लोग महागरीब की श्रेणी में जुड़़ जाएंगे, यह पूरी तरह तय है। इन सबके बीच हर कोई यह जानने को उत्सुक होगा कि महामारी का दुनिया के अमीरों पर क्या असर पड़ा। क्या उन्होंने भी कुछ खोया ?
दी हुरुन ग्लोबल रिच की दो मार्च को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में भारत के अरबपतियों की लिस्ट में चालीस नए नाम जुड़े हैं। लिस्ट में मुकेश अंबानी देश के सबसे धनी व्यक्ति हैं, जिनकी कुल संपत्ति 83 बिलियन (अरब) डाॅलर है। उनकी संपत्ति में पिछले साल 24 फीसद का इजाफा हुआ। लिस्ट के मुताबिक, हम गर्व कर सकते हैं कि जिस साल दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यवस्था बर्बाद हुई, उस साल दुनिया ने हर सप्ताह आठ नए अरबपति तैयार किए।
स्टेटिस्टासडॉटकाम के मुताबिक, दुनिया के प्रमुख अरबपतियों ने कोविड-19 के दौरान अपनी कुल संपत्ति में एक ट्रिलियन डालर से ज्यादा की संपत्ति जोड़ी।
तो खबर यही है कि इतनी बड़ी महामारी के दौरान भी बिना किसा अपवाद के इस साल भी नए अरबपतियों का उभरना, खिलना जारी रहा। इससे उस पुरानी मान्यता को भी बल मिलता है, जिसमें कहा गया कि ‘अमीर और अमीर होंगे, जबकि गरीब और गरीब बनेंगे।’
अगर अतीत को वर्तमान का संकेतक माना जाए तो संपत्ति में असमानता अब आर्थिक तरक्की का आवश्यक उत्पाद है। हम जिस तरह से पूंजीवाद के खात्मे और मुक्त बाजार के माॅडल पर बहस करते आ रहे हैं, उसमें 2008 की वैश्विक मंदी इस तथ्य का एक सूचक है।
2018 में 2008 की मंदी के दस साल पूरे हुए थे और उसी साल आक्सफेम ने रिपोर्ट दी थी कि तब अरबपतियों की तादाद 2008 से लगभग दोगुनी हो चुकी थी। संपत्ति के वितरण से जुड़ी इसकी एक वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, इसी बीच दुनिया के तीन अरब 80 करोड़ लोगों की संपत्ति 11 फीसद कम हो गई।
इससे भी आगे की बात यह है कि इन धनकुबेरों से टैक्स का केवल चार फीसद जमा होता है। जिससे ट्रिकल डाउन थ्योरी को झटका लगता है, जिसमें माना जाता है कि अमीर, और अमीर होगा तो उसके खर्च करने से गरीब को भी लाभ मिलेगा और गरीब, अमीर बन सकेगा। यहां तक कि ब्राजील और यूके जैसे कुछ देशों में जहां टैक्स, आय के अलावा उपभोग (वैल्यू एडेड टैक्स या वैट) पर भी, दोनों पर लिया जाता है, वहां दस फीसद अमीरों से ज्यादा टैक्स दस फीसद गरीब चुकाते हैं।
वास्तव में ‘सुपर रिच’, टैक्स अधिकारियों से लगभग 7.6 खरब डाॅलर छिपा जाते हैं। ऑक्सफेम के मुताबिक, ‘ अर्थव्यवस्था का कोई ऐसा नियम नहीं, जो यह कहता हो कि अमीरों को तब भी और अमीर बनते रहना चाहिए, जब लोग गरीबी में दवाईयों के अभाव में मर रहे हों। कुछ लोगों के हाथों में इतनी दौलत होने का कोई मतलब नहीं, जबकि उस दौलत से मिलने वाले संसाधनों से पूरी मानवता की मदद की जा सकती हो। असमानता दरअसल एक राजनीतिक और नीतिगत चयन है।’
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पूर्व डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर डेविड लिप्टन ने अपने ब्लाॅग (हालांकि इस पर विवाद भी हुआ) में लिखा था कि विकसित और विकासशील देशों के वोटर वैश्वाकरण में ‘भरोसा’ खो रहे हैं। उन्होंने तर्क दिया कि इस प्रक्रिया में इतनी ताकत है, जिससे इंटरनेशनल ऑर्डर ( जिसे वैश्वीकरण पढ़ा जाना चाहिए), ढह सकता है। उनका यह ईमानदार आकलन है, हालांकि हमें उनके तर्क की गहराई में जाना चाहिए। उनका इशारा उन लोगों की ओर है, जिन्हें 2008 की मंदी से पहले ही लाभ पहुंच चुका है।
उन्होंने लिखा था, ‘इस बार की नाराजगी टैक्सदाताओं के लिए और भारी पड़ेगी। उनके टैक्स से अगली मंदी के लिए बैंकों को मजबूत बनाया जाएगा। अगर भविष्य की मंदी केवल साधारण मजदूरों और छोटे व्यापारियों को नुकसान पहुंचाएगी तो राज्यों पर उनकी आर्थिक मदद के लिए उस तरह से दबाव नहीं होगा, जैसा 2008 में बैंकों की मदद के लिए था। इससे पब्लिक सेक्टर पर कर्ज का बोझ ऊंचे स्तर पर पहुंच जाएगा।’
अब कोई भी यह महसूस कर सकता है कि लिप्टन कितने सही थे। कोविड-19 महामारी ने बिल्कुल वही किया, जैसी उनकी आशंका थी। हालांकि हम यह भी देख रहे हैं कि कई देश महामारी से परेशान नागरिकों की मदद के लिए पैसा भी खर्च कर रहे हैं, भले ही वह पर्याप्त न हो। निश्चित तौर पर सार्वजनिक कर्ज बढ़ रहा है और दूसरी ओर सरकारों पर यह दबाव भी है कि वह लोगों की आर्थिक मदद करें।
इसी से यह सवाल खड़ा होता है कि अगर सरकारें इस संकट से उबारने में लोगों की मदद कर रही हैं और अर्थव्यवस्था ढह रही है, तो कुछ मुटठी भर लोग इस नियति से बचे रहकर आगे कैसे बढ़ रहे हैं?
ऑक्सफेम ने पहले कहा था, ‘महामारी के दौरान अंबानी ने एक घंटे में जितना पैसा कमाया, उतना कमाने में एक अकुशल मजदूर को दस हजार साल लगेंगे और अंबानी ने एक सेकेंड में जितना कमाया, उतना कमाने में उसे तीन साल लगेंगे। ’ संपत्ति से जुड़ी एक दूसरी रिपोर्ट, ‘अलायंज ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट 2020’ ने 2020 को अमीरों का साल बताया है।
इसकी वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया, ‘दुनिया में संपत्ति के वितरण को लेकर जिस तरह से असमानता बढ़ी है, उसे खत्म करने के लिए हमें किसी महामारी का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। 2019 वह साल था, जिसने अमीर और गरीब देशों के बीच के अंतर को और चौड़ा किया था। 2016 में इन देशों की प्रति व्यक्ति आय में जो अंतर 16 गुना था, वह 2019 में 22 गुना हो गया था।’ अलायंज रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2000 में यह अंतर 87 गुना था, हालांकि जो अंतर घट रहा था, उसका उलट कर बढ़ते चले जाना चिंताजनक तो है ही।
संपत्ति में असमानता तो पहले से रही है, लेकिन महामारी जैसे भयंकर समय मे यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि शायद असामनता कुछ कम हो। हालांकि हुआ इसके ठीक उलट। अलायंज की अर्थशास़्त्री पैट्रिशिया पेलायो रोमेरो के मुताबिक, ‘यह वाकई चिंता की बात है कि अमीर और गरीब देशों के बीच असमानता ने कोविड-19 के पहले से दुनिया को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। चूंकि ऐसी आशंका है कि महामारी आगे भी असमानता को बढ़ाएगी, तो यह न केवल वैश्वीकरण को झटका है, बल्कि यह खासकर निम्न आय वाले देशों में शिक्षा और स्वस्थ्य सेवाओं पर भी बुरा असर डालेगी।’