दिल्ली की अर्थव्यवस्था में प्रवासी मजदूर और असंगठित क्षेत्र के लाखों कामगार रीढ़ की भूमिका निभाते हैं। यही वजह है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 27 जुलाई को दिल्ली की अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के लिए लॉकडाउन के बाद दिल्ली छोड़कर गए प्रवासी मजदूरों से लौटने की अपील की। मुख्यमंत्री प्रवासियों से लौटने की अपील तो कर रहे हैं लेकिन दिल्ली में हालात उनके अनुकूल नहीं हैं। दिल्ली में अब भी बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर हैं जो लॉकडाउन के बाद गांव नहीं गए और बहुत से मजदूर इस बीच लौट आए हैं। इनमें से अधिकांश प्रवासियों के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है। ये प्रवासी कामगार किस हाल में हैं? यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने कुछ कामगारों से बात की
मोहम्मद हीरा
सड़क किनारे फलों की रेहड़ी लगाने वाले मोहम्मद हीरा बिहार के बेगूसराय से लगभग 15 साल पहले आए थे। उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी कर्ज नहीं लेकिन लॉकडाउन और उसके बाद उनकी स्थिति इतनी खराब हो गई कि 20 हजार रुपए का कर्ज लेना पड़ा। लॉकडाउन से पहले उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी को गांव भेज दिया था। अब बेटी और पत्नी को दिल्ली बुलाकर जोखिम नहीं लेना चाहते। वह कहते हैं कि इस वक्त आमदनी इतनी नहीं है कि परिवार को दिल्ली में रख पाऊं। परिवार में वह अकेले कमाने वाले हैं। हीरा पिछले चार महीने में एक रुपए भी घर नहीं भेज पाएं हैं। वह रोज सुबह 9 बजे सड़क किनारे रेहड़ी लगा लेते हैं और रात 10 बजे तक बैठे रहते हैं। वह बताते हैं कि अब न पहले जितने खरीदार हैं और न पहले जैसी आमदनी। पूरे दिन में मुश्किल से 200 रुपए बच पाते हैं। महीने में 5000-6000 रुपए की ही कमाई हो रही है। इसमें से 3000 रुपए कमरे के किराए पर खर्च हो जाते हैं। शेष राशि से पूरे महीने का खर्च चलाने की चुनौती रहती है। हीरा बताते हैं कि सड़क पर जाम लगने की स्थिति में अक्सर उन्हें अपनी रेहड़ी हटानी पड़ती है। इससे फलों के खराब होने और नुकसान का जोखिम बढ़ जाता है।
लाल मोहम्मद
दिल्ली के महरौली-बदरपुर रोड पर बत्रा अस्पताल के बस स्टॉप पर बीड़ी, सिगरेट और पान मसाला बेचने वाले लाल मोहम्मद और उनके परिवार ने लॉकडाउन के बाद आए मुश्किल समय में आधा पेट खाना खाकर वक्त गुजारा है। 30 साल पहले बिहार के मुजफ्फरपुर से आए लाल मोहम्मद सुबह साढ़े पांच बजे पटरी पर अपनी दुकान सजा लेते हैं और रात को लगभग 10 बजे तक बैठे रहते हैं। लगभग 15 घंटे बैठने के बाद मुश्किल से 200 रुपए बच पाते हैं। वह बताते हैं कि स्टैंड पर पहले जितनी भीड़ नहीं है और न ही लोगों के पास सामान खरीदने के लिए पैसे हैं। लॉकडाउन से पहले वह सुबह और शाम दुकान लगाकर रोजाना करीब 300 रुपए बचा लेते थे। बाकी समय एक फैक्ट्री में कढ़ाई का काम करके 11 हजार रुपए अर्जित कर लेते थे। लॉकडाउन के बाद फैक्ट्री बंद होने से उनकी आय का यह साधन छिन गया। अब वह पूरी तरह पटरी की दुकान पर निर्भर हो गए हैं। किराए के घर में रहकर परिवार पालना अब उनके लिए बहुत मुश्किल हो गया है। वह बताते हैं कि दिल्ली की कोई भी योजना गरीब प्रवासी मजदूरों के हक में नहीं है। राशन-बिजली और पानी से जुड़ी तमाम योजनाओं का फायदा मकान मालिकों को ही मिलता है। लाल मोहम्मद लॉकडाउन में गांव नहीं गए क्योंकि गांव में उनकी जमीन नहीं है। वह बताते हैं कि गांव जाकर भी भूख से मरना था, इसीलिए यहीं रहकर जिंदगी से संघर्ष करने के फैसला किया।
सचिन कुमार
मूलरूप से बिहार के नालंदा जिले के रहने वाले सचिन कुमार लॉकडाउन के तुरंत बाद अपने गांव चले गए थे। लगभग चार महीने बाद 20 जुलाई को वह दिल्ली लौट आए। दिल्ली में उनकी पुराने कपड़ों की दुकान है। इस दुकान का किराया प्रतिमाह 8,000 रुपए है। उन्हें 3,000 रुपए मकान का किराया भी देना पड़ता है। वह बताते हैं कि खाने-पीने के खर्चे के अलावा उन्हें हर महीने किराए के रूप में 11,000 रुपए देने ही पड़ते हैं। सचिन बताते हैं कि वह पिछले एक हफ्ते से दुकान खोल रहे हैं लेकिन अब तक बोहनी तक नहीं हुई है। अपने गांव से आते समय 10,000 रुपए साथ ले आए थे। राशन का खर्च उसी पैसों से चल रहा है। पिछले चार महीने का मकान और दुकान का 44,000 रुपए किराया उन्हें देना है। सचिन को समझ नहीं आ रहा है कि इतने पैसों का इंतजाम वह कैसे करेंगे। गांव में उनकी कमाई शून्य थी। जो बचत थी वह सब खत्म हो चुकी है। वह बताते हैं कि दिल्ली अब रहने और रोजगार लायक जगह नहीं बची है। अगर जल्द हालात नहीं सुधरे तो वह परिवार को लेकर अपने गांव चले जाएंगे और वहीं परिवार के बीच रहकर किसी तरह गुजर बसर कर लेंगे।