अमेरिकी टैरिफ का शिकंजा और डब्ल्यूटीओ का अंत
अप्रैल से फार्मास्यूटिकल्स पर शुल्क (टैरिफ) लगाने के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के चौंकाने वाले फैसले ने हमारा ध्यान अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य की सबसे चिंताजनक समस्याओं में से एक पर केंद्रित किया है। यह समस्या है किसी वैश्विक व्यापार नियामक की अनुपस्थिति का न होना। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) पिछले एक दशक से धीमी मौत मरने को मजबूर है और आश्चर्यजनक रूप से इस संगठन के सबसे कट्टर आलोचक भी अमेरिका की इस मनमानी से परेशान हैं।
यह एक विडंबना है कि अमेरिका ने कभी डब्ल्यूटीओ के गठन का समर्थन किया था लेकिन आज इसके खात्मे पर तुला हुआ है। ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में मनमाने एवं आक्रामक टैरिफ की राह अपना रहे हैं। यह डब्ल्यूटीओ के मूल सिद्धांतों में से एक का उल्लंघन है और व्यापारिक साझेदारों के पास जवाबी कार्रवाई के अलावा कोई उपाय नहीं है क्योंकि इस 166 सदस्यीय संगठन के पास अमेरिका के मनमाने उपायों को चुनौती देने का कोई जरिया नहीं है। भारतीय उद्योग अमेरिकी बाजार में जेनेरिक दवाओं के प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं में से एक है और इसका भविष्य चुनौतीपूर्ण होने वाला है।
ऐसा लग रहा था कि ट्रंप टैरिफ पर पुनर्विचार कर रहे हैं क्योंकि इससे अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को भारी नुकसान पहुंचने की आशंका थी। लेकिन नवीनतम रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि फार्मा उद्योग को भी नहीं बख्शा जाएगा। ट्रंप ने 14 अप्रैल को कहा कि वह “निकट भविष्य में” टैरिफ लगाएंगे।
जहां कुछ यूरोपीय लोगों की सबसे बड़ी चिंता चिकित्सा उपकरणों पर टैरिफ के परिणामों को लेकर है, वहीं अन्य सक्रिय फार्मास्युटिकल घटक (एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रीडिएंट अथवा एपीआई) को लेकर चिंतित हैं। एपीआई दवा उत्पाद का सक्रिय घटक होता है। ऐसे में दवाओं के उत्पादन की पूरी आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित होगी।
फार्मा उद्योग पर टैरिफ लगाना डब्ल्यूटीओ नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है। इन नियमों के तहत अधिकांश फार्मा उत्पाद और उन्हें बनाने में इस्तेमाल होने वाले पदार्थ किसी भी शुल्क से मुक्त हैं। तो फिर ऐसा क्यों है कि न तो यूरोपीय देश (जहां दवा उद्योग की कुछ सबसे बड़ी कंपनियों का मुख्यालय है) और न ही भारत जैसे अन्य देश डब्ल्यूटीओ के मंच पर इस प्रकार टैरिफ को चुनौती देने की कोई योजना नहीं बना रहे? इसका सीधा सा कारण यह है कि पूरी दुनिया जानती है कि ट्रंप को इस बात की कोई परवाह नहीं है कि वह डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं । यह उन्होंने अपने पहले कार्यकाल के दौरान ही स्पष्ट कर दिया था। सर्वोच्च नियामक संगठन होने के बावजूद भी कोई भी कानूनी चुनौती डब्ल्यूटीओ में बहुत दूर तक नहीं जाएगी क्योंकि विवाद निपटान प्रणाली (जोकि डब्ल्यूटीओ का मुख्य आधार है) को अमेरिका ने अप्रभावी बना दिया है।
बराक ओबामा के समय से ही अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ की विवाद निपटान प्रणाली के अपील पैनल (अपीलेट बॉडी अथवा एबी) में नई नियुक्तियों को रोक दिया है। इसके फलस्वरूप विनियमित एवं बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को बनाए रखने के लिए स्थापित इस संस्था की साख में कमी आई है। हालांकि ऐसा नहीं है कि विकासशील देश डब्ल्यूटीओ को निष्पक्ष एवं तटस्थ मानते आए हैं। इन देशों ने 2001 में दोहा वार्ता के दौरान इस संगठन के व्यापक पुनर्गठन की मांग की थी।
अगर स्वास्थ्य के मुद्दे को छोड़ दें तो इन देशों द्वारा अपनी चिंताओं को दूर करने की दिशा में निष्पक्ष वैश्विक व्यापार प्रथाओं को बढ़ावा देने का प्रयास सफल नहीं हुआ। दोहा घोषणापत्र ने न केवल डब्ल्यूटीओ सदस्यों के अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा की दिशा में कदम उठाने के अधिकार की पुष्टि की बल्कि ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (ट्रिप्स) में कानूनी संशोधन भी किया जिससे सस्ती दवाओं तक पहुंच आसान हुई।
हालांकि डब्ल्यूटीओ अपने संस्थापक जनादेश के अनुसार काम करता आया है। इसका झुकाव अमीर देशों और विशेष रूप से अमेरिका और यूरोपीय संघ के पक्ष में है। इसके बावजूद अमेरिका विवाद निपटान प्रणाली, खासकर एबी के कामकाज का लगातार विरोध करता आया था। विश्लेषकों का मानना है कि वाशिंगटन अमेरिकी “ट्रेड रेमेडी” कानूनों पर एबी के लिए फैसलों से नाखुश था। हाल ही में यूरोपीय संसदीय अनुसंधान सेवा की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका ने निश्चित रूप से एबी के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख अपनाया है और ऐसा इसलिए है क्योंकि एबी की रिपोर्टें बार-बार अमेरिका के लंबे समय से चले आ रहे घरेलू ट्रेड रेमेडी कानूनों का विरोध करती आई है।
पहला झटका ओबामा ने 2011 में दिया था जब उन्होंने “अमेरिकी हितों की रक्षा करने में विफलता” का हवाला देते हुए एबी के एक सदस्य को फिर से नियुक्त करने से इनकार कर दिया था। एबी के सदस्यों का कार्यकाल रोटेशनल होता है और तब से ही अमेरिका ने उनका कार्यकाल खत्म होने पर नए सदस्यों की नियुक्ति की अनुमति देने से इनकार किया है। एबी के फैसले प्रवर्तन या अनुपालन से जुड़े होते हैं और इनके बिना डब्ल्यूटीओ का विनियामक कार्य निरर्थक रह जाता है।
इस दिशा में सबसे बड़ा संकट 2018 में उत्पन्न हुआ जब ट्रंप ने स्टील और एल्युमीनियम पर एकतरफा टैरिफ लगाया। उस दौरान वाशिंगटन के एक नीति विश्लेषक ने लिखा था, “1 जनवरी 1995 को इसकी स्थापना के 23 साल और 67 दिन बाद यानी 8 मार्च, 2018 वह दिन जब डब्ल्यूटीओ की मृत्यु हो गई।”
हालांकि ट्रंप अपने पहले कार्यकाल से ही टैरिफ नियमों के मनमाने उपयोग के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनके उत्तराधिकारी ने भी डब्ल्यूटीओ को मजबूत करने के लिए कुछ नहीं किया। व्यापार विशेषज्ञों के अनुसार जो बाइडेन प्रशासन का डब्ल्यूटीओ पैनल के निर्णयों को लागू करने से इनकार करना “डब्ल्यूटीओ में विधि/कानून के शासन की पूर्ण अस्वीकृति” का संकेत देता है।
एबी अब पूर्णतया अस्तित्व विहीन हो चुका है। हालांकि ऐसा न होता तब भी यह संभावना नहीं है कि ट्रंप प्रशासन इसके फैसले को स्वीकार करेगा। चूंकि डब्ल्यूटीओ में चुनौती का सवाल ही नहीं उठता इसलिए अब फार्मा उद्योग के सामने क्या विकल्प हैं? कई लोग इस मुद्दे पर बाजी लगा रहे हैं। उदाहरण के लिए फाइजर का कहना है कि वह अपनी कई उत्पादन सुविधाओं को अमेरिका में स्थानांतरित करेगी। हालांकि उन्हें उपलब्ध इस सीमित समय सीमा में यह काम करेगा या नहीं, यह लाख टके का सवाल है। जर्मन आर्थिक संस्थान में कार्यरत अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र विशेषज्ञ जुर्गन मैथेस का मानना है कि अनिश्चितता पैदा करना और लगातार नए संकट पैदा करना एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा ट्रंप विदेशी सरकारों और घरेलू उद्योगों पर अपनी पकड़ बनाने और उनका लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वे बातचीत के लिए अधिक इच्छुक हों।
यह स्पष्ट रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए कोई मायने नहीं रखता कि कम महंगी जेनेरिक दवाओं पर लगा टैरिफ अमेरिकियों के लिए निर्धारित दवाओं का लगभग आधा हिस्सा है और वह उनके अपने नागरिकों को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाएगा। भारत की बात करें तो अभी भी यह तय नहीं है कि प्रस्तावित टैरिफ से फार्मा सेक्टर पर कितना गंभीर प्रभाव पड़ेगा। अमेरिका एक बड़ा बाजार है और भारत के दवा उत्पादन और जैविक उत्पादों के वैश्विक निर्यात का करीब एक तिहाई हिस्सा अमेरिका जाता है। यह 8.72 बिलियन डॉलर की बिक्री के बराबर है। इस उद्योग के कुछ विशेषज्ञों ने जेनेरिक आपूर्तिकर्ताओं पर किसी भी तरह के असर की चिंताओं को खारिज कर दिया है। हालांकि अन्य विश्लेषकों ने गंभीर परिणामों की चेतावनी दी है। विशेषकर कम मार्जिन पर काम करने वाली छोटी फर्मों के लिए जिन पर दबाव बढ़ सकता है। एक विश्लेषक ने चेतावनी दी है कि जहां कुछ कंपनियों को अपना काम बंद करना होगा वहीं अन्य अपने से बड़ी कंपनियों से गठजोड़ करने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
यहां दवा निर्माताओं को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि कोएलिशन फॉर अ प्रोस्पेरस अमेरिका (जोकि स्वदेशी जागरण मंच का अमेरिकी संस्करण है) भारतीय और चीनी फार्मा कंपनियों को अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के लिए खतरा बताकर उन्हें अपना निशाना बना रहा है। बाजी हाथ से निकलने वाली है।