बेरोजगारी की मार : ना नौकरी, ना आस

बेरोजगारी देश की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है, इसके साथ ही बीते एक दशक में औपचारिक क्षेत्र को भी अनौपचारिक क्षेत्र में बदलने की कोशिश दिखाई देती है

देश की सबसे बड़ी श्रमिक मंडी इन दिनों ठंडी पड़ गई है। न काम है और न ही कोई उम्मीद। इंडिया एम्पलॉयमेंट रिपोर्ट 2024 के मुताबिक 82 फीसदी कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में हैं और यह बड़ा संकट इसी क्षेत्र में उभर कर आया है।   

 अनौपचारिक नौकरियों का मतलब है कि उनके पास कोई लिखित करार नहीं है, न ही कोई तयशुदा वेतन और न ही काम की कोई गारंटी। हमारे बड़े शहर की नींव रखने वाले यही औपचारिक और रोजमर्रा का काम करने वाले श्रमिक हैं।

 बड़े शहरों के लेबर चौक से वह हमें बड़ी उम्मीदों से ताकते हैं लेकिन शायद ही कोई इनके जीवन में झांकता है। रोजगार की खराब हालत वाले इन दिनों में ये श्रमिक आखिर कैसे और किन हालातों में अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। यह खबर इनको बेहद करीब, जहां इन मेहनतकशों का अंदरूहनी जीवन को देखने की कोशिश है।

दिल्ली के तारा अपार्टमेंट के पास रोजाना सुबह श्रमिकों का जमावड़ा होता है। हर आने-जाने वालों को यह श्रमिक अवसर की तरह देखते हैं। इन्हीं की भीड़ में करीब 40 वर्षीय नरेश ठाकुर भी मौजूद हैं। पेशे से पेंटर हैं। हालांकि, इन दिनों जब काम नहीं मिल रहा, मजबूरी में हर तरह की दिहाड़ी का काम भी कर रहे हैं।

वह बताते हैं कि उन्हें जबसे टीबी की बीमारी हुई तबसे वह भारी काम करने लायक नहीं रह गए। हालांकि, इसके बावजूद एक बेटी का पेट पालने के लिए वह स्वास्थ्य से भी समझौता कर रहे हैं।

नरेश दिल्ली के तारा अपार्टमेंट के पास लेबर चौक पर पिछले पांच सालों से लगातार आ रहे हैं। जब डाउन टू अर्थ की टीम ने उनके घर का दौरा किया तो उनके घर मेंराशन के डिब्बे खाली मिले। उनकी बेटी ने उस दिन खाना नहीं खाया था क्योंकि आंगनबाड़ी बंद था।

नरेश बताते हैं कि उन्हें महीने में बमुश्किल आठ दिन ही काम मिलता है।

 ऐसा नरकीय जीवन जीने को विवश नरेश अकेले नहीं हैं। महीने में आठ दिन काम का मिलना इन दिनों बड़ी बात है। उन्हें हर दिन 500 से 600 रुपए ही मिलते हैं। कुछ इतने बदनसीब होते हैं कि उन्हें काम के बाद पैसे भी नहीं दिए जाते और भगा दिया जाता है।

 बेरोजगारी देश की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है, इसके साथ ही बीते एक दशक में औपचारिक क्षेत्र को भी अनौपचारिक क्षेत्र में बदलने की कोशिश दिखाई देती है। इसका मतलब साफ है कि ज्यादा से ज्यादा श्रमिक पैदा करना जो खराब स्थितियों में काम के दिनों की बिना किसी गारंटी, भुगतान, स्वास्थ्य बीमा और आजीविका के काम कर सके।

 दिल्ली के मयूर विहार फेस 3 में लेबर चौक पर सुबह 11 बजे काम की तलाश में खड़े 50 वर्षीय लेबर मनीष कुमार 30 सालों से रोजमर्रा के काम करके अपना जीवन चला रहे हैं। कोविड 19 की महामारी ने उनकी जिंदगी को और खराब बना दिया। कोविड की दूसरी लहर के दौरान वह संक्रमण के चलते मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे थे। इलाज के लिए उन्हें 5 लाख रुपए लोन लेना पड़ा। वह ठीक तो हो गए लेकिन आज तक उनके सिर पर भारी कर्ज चढा हुआ है।रोजाना काम की तलाश में वह लेबर चौक पर खड़े रहते हैं ताकि उनका जीवन चलता रहे।

 कोविड 19 की महामारी अनौपचारिक क्षेत्र के लिए एक बड़ी परेशानी का सबब बन कर आई थी.. शहरी क्षेत्र में अप्रैल, 2020 तक बेरोजगारी की दर 30.9 फीसदी तक  पहुंच गई थी। कई श्रमिकों को अपनी आजीविका और जीवन तक गंवाना पड़ा।  मनीष जैसे श्रमिकों को जिन्हें मोटे ब्याज पर कर्ज मिल गया वह बच तो गए लेकिन अब उनका जीवन बहुत कठिन है।

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में नियमित कामगारों की हर महीने की कमाई 19010 रुपए तक थी जबकि अनियमित कामगारों की कमाई महज 8276 रुपए थी।

पांच साल पहले पार्वती के पति की मृत्यु इसलिए हो गई क्योंकि उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे, घर की कमाई का एकमात्र जरिया पार्वती के पति मुंह के कैंसर से जूझ रहे थे।

उनकी मृत्यु के बाद पार्वती के सामने न सिर्फ भविष्य का अंधेरा था बल्कि चार बच्चों के पेट भरने की चुनौती भी खड़ी थी। पार्वती ने  काम की तलाश में अलीगढ़ से राष्ट्रीय राजधानी आने का फैसला किया। आज वह हर दिन तपती दुपहरी में पांच किलोमीटर चलकर आती है और काम की तलाश में लेबर चौक पर खड़ी होती हैं, लेकिन दोपहर बीत जाती है और उन्हें काम नहीं मिलता है।  

एनसीआर के सबसे बड़े लेबर चौक जो कि देश के बड़े श्रमिक चौक के रूप में जाना जाता है वहां पर पहुंचने के बाद यह बात साफ हो गई कि अनौपचारिक क्षेत्र में भी काम के मामले में महिलाओं को बहुत कम तवज्जो दी जाती है। उनके साथ भेदभाव किया जाता है और उन्हें कमतर आंका जाता है। इतना ही नहीं पुरुषों के मुकाबले उन्हें मजदूरी भी कम दी जाती है।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in