गरीबी रेखा की दूसरी पीढ़ी

भारत में सातवें दशक से 'गरीबी रेखा' पर शोध, बहस, नीतियां, कायदों, वायदों और घोषणाओं का अंतहीन अध्याय शुरू हुआ
फोटो: रमेश शर्मा
फोटो: रमेश शर्मा
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मदुराई जिले के अरमुगम की उम्र तब 28 वर्ष थी, जब तत्कालीन तमिलनाडु सरकार के द्वारा उसकी गरीबी को सरकारी मान्यता देते हुये 'गरीबी रेखा कार्ड' जारी किया गया। अरमुगम कहते हैंमैं चकित था कि इस कार्ड को लेकर मुझे खुश होना चाहिए या दुखी। चूंकि मेरे गांव में मुझ जैसे और 17 परिवारों को यह कार्ड मिला था, इसलिए लगा कि हमें 'खुशी' मना लेना चाहिए। भले इस खुशी की कोई वजह हो या हो।

फिर जिस समारोह में मुझे स्थानीय सांसद महोदय ने यह कार्ड दिया था, उसकी घोषणा हमेशा याद रही। महोदय का कहना था कि यह कार्ड आपके लिये एक ऐसी पात्रता है, जिससे मुझे सभी 'सरकारी रियायतें' प्राथमिकता के आधार पर मिलेगी। तब आजादी के लगभग 40 बरस बाद होने वाली इतनी महान घोषणा निश्चित ही सांसद महोदय और सरकार के खु होने की वाजिब वजहें थीं। हमारी खुशी की वजहें केवल सांसदों और सरकारों का उल्लास था।

मणिपुर के सुदूर थोबल जिले के मनोयी सिंह, भारत-बर्मा के सीमान्त गावों में मजदूरी करने जाते थे। चार-पांच महीनों की हाड़तोड़ मेहनत में कुल जमा 10,000 रुपए कमाते थे, जिससे भोजन के अलावा परिवार की बाकी जरूरतों को पूरा करना होता था। मनोयी सिंह कहते हैं कि तब हम 'सरकारी गरीब' घोषित नहीं हुए थे। खाने के लिए चावल और मछली लगभग नसीब हो ही जाती थी। फिर एक दिन 'अफवाह' जैसी खबर मिली कि सरकार गरीबों के लिये अत्यधिक चिंतित है।

किसी ने कहा कि गरीबों को कार्ड मिलने जा रहा है, ताकि दो जून अच्छा खाना खाने का इंतजाम हो जाए। पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं था कि मैं भी गरीब घोषित किया जाने वाला हूं। फिर, कुछ हफ्तों के बाद कलेक्टर साहब का बुलावा आया और हमारे हाथों में 'गरीबी रेखा कार्ड' देकर समारोहपूर्वक फोटो खिंचवाया गया। हमने रात भर सपना देखा कि मजदूरी में खटने के दिन खत्म हो गए। 

तमिलनाडु के अरमुगम के उस गांव से दिल्ली की दूरी लगभग उतनी ही है, जितनी मणिपुर के मनोयी सिंह के उस गांव से दिल्ली दूर है, लेकिन दिल्ली से उन गांवों के दरमियां कितने मील और बरस का फासला है, यह शोध का विषय हो सकता है। 

तब योजना आयोग और उसके प्रतिष्ठित विद्वानों को यह अहसास भी रहा होगा कि गरीबी रेखा, दो पीढ़ियों के बाद भी अंतहीन ही रह जायेगी।  एक अनुमान के मुताबिक विगत 50 वर्षों में भारत सरकार सहित राज्य सरकारों के द्वारा 'गरीबी मुक्ति' के लिए लगभग 200 से अधिक समितियों का गठन हुआ। इन समितियों के सुझावों पर यदि संसद में चर्चा हो तो शायद पूरा एक सत्र भी कम ही पड़ेगा। दरअसल उपचार गरीबी का होना था और शोध गरीबों पर हो गया।

भारत में गरीबी रेखा पर नीतिगत शोध, चर्चा, सरकारी उपाय और राजनैतिक घोषणायें हमेशा ठोस उपायों के क्रियान्वयन के समक्ष लगभग अप्रासंगिक ही रही हैं। गरीबी रेखा आज वास्तव में एक ऐसी नियंत्रण रेखा बन चुकी है जिसके उल्लंघन के लिए जिम्मेदार स्वयं सरकार की अपनी खोखली नीतियां, बेबस कानून, पूर्वाग्रही शासन व्यवस्था और लगभग प्रतिबद्ध खंडित क्रियान्वयन तंत्र है।

विगत 50 वर्षों के तथाकथित सर्वोच्च प्राथमिकताओं के बावजूद भी यदि केंदुझर, अलीराजपुर, पुरुलिआ, नालंदा और थिरुवन्मलई जिले गरीबी के केंद्र बने हुए हैं तो यह मान लेने में शर्म क्या है कि व्यवस्थायें नाकाबिल और नामुकम्मल रही हैं। वास्तव में गरीबी हटानेमिटाने की आपाधापी में हमने यह मान लिया कि 'गरीबों' का उद्धार योजनाओं और नीतियों से होता है। शोध इस विषय पर होना चाहिए कि तमाम प्रयासों के केंद्र में या परिधि में ही सही  'आत्मनिर्भरता अथवा स्वावलम्बन पर आधारित' उपाय कहां हैं?

अब तक हुए गरीबी रेखा के शोध और निष्कर्ष बताते हैं कि नीति-नियंताओं ने शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और रोजगार जैसे व्यवस्थागत सुविधाओं को सफलतापूर्वक गरीबी से जोड़ तो दिया, लेकिन 'स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता' की किसी भी संभावना को लगभग खारिज करते हुए।

महात्मा गांधी मानते थे कि लाखों 'स्वावलंबी, स्वशासी, स्वायत्त गावों का परिसंघ भारत देश’ कहलाएगा। वास्तव में गरीबी से लड़ने के हमारे अतिउत्साह ने हर योजनाओं के साथ ही गरीबों को राज्य पर और अधिक 'निर्भर' ही बनाया है। इस निर्भरता की सफलता और विफलता दोनों का ही प्रमाण है - एक स्थायी गरीबी जो अरमुगम और मनोयी सिंह की दूसरी पीढ़ी को गरीबी रेखा के कतार में खड़ा रहने को बाध्य करती है। काश संकल्प यह होता कि महात्मा गांधी को उनकी 150 वीं जयंती पर सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए हम साढ़े सात लाख 'स्वावलंबी, स्वशासी, स्वायत्त गावों का परिसंघ भारत देश’ के निर्माण प्रयास प्रारंभ करते।

विश्व बैंक के द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार 1.9 डॉलर प्रतिदिन से कम कमाने वाला 'गरीब' माना जाएगा। इस दृष्टिकोण से विश्व बैंक के हजारों अर्थशास्त्री यह साबित करते रहे हैं कि भारत सहित दुनिया के कई या लगभग सभी मुल्कों में 'गरीबों की संख्या' अर्थात 'गरीबी रेखा से नीचे खड़े' लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है। इस विश्लेषण का तार्किक परिणाम यह रहा कि विगत एक दशक में स्वयं विश्व बैंक ने गरीबों के लिए जारी योजनाओं के वित्तीय आबंटन में लगातार कटौती की है विश्व बैंक का लक्ष्य है कि वर्ष 2030 तक गरीबी रेखा के नीचे मात्र 3 फीसदी जनसंख्या रह जाये।

विश्व बैंक के इस मानक के अनुसार भारत में गरीब मात्र 4.7 फीसदी जनसंख्या है।

भारत सरकार के तथ्य और कथ्य थोड़े-अधिक विरोधाभासी हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 22 फीसदी जनसंख्या ग़रीब है। सरकार का यह भी आंकलन है कि वर्ष 2019-2020 तक यह लगभग 17 फीसदी रह जाएगी। भारतीय 'मानकों' के अनुसार 27 रुपए प्रतिदिन से अधिक कमाने वाला व्यक्ति गरीब होने का 'काबिल-पात्र' नहीं है। सरकार यह भी घोषित कर ही चुकी है कि स्वाधीनता के 75 वें वर्ष तक अर्थात 2022 तक भारत, लगभग 'गरीबी मुक्त' देश होगा।

वर्तमान संकट ने इस दावे पर नया प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। विगत दिनों लॉक डाउन में अनुशासित रूप से मौन रहे लाखों मजदूरों और श्रमिकों में अधिकांश की कमाई 27 रुपए प्रतिदिन के मानक से घटकर 'गैरसरकारी सहायता' से भोजन जुटाने वाले व्यक्ति की हो गई। कुछ लोगों के लिए यह शोध का विषय हो सकता है कि भोजन के लिए कतारबद्ध खड़े लोगों को किस नई रेखा के वर्गीकरण में डालें।

बहरहाल इस संकट ने विपन्नता का नया पैमाना बनाया है, जिसका उत्तर कम से कम उन लाखों मजदूरों ने तो तलाश ही लिया है, जिनके लिए 27 अथवा 270 रुपए का कोई अर्थ तब तक नहीं है- जब तक कि वे सुरक्षित अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी में नहीं पहुंच जाते।उनके लिए गरीबी रेखा का शोशा एक ऐसा मजाक है, जिस पर वो खुद तो रो सकते हैं, लेकिन देश के निर्माता कुछ बरस और योजनाएं बनाने के लिए अधिकृत हैं।

फिलहाल देश के सुदूर अनाम गावों में अरमुगम और मनोयी सिंह की दूसरी पीढ़ी वर्ष 2022 का बेसब्री से इंतजार कर रही है- आखिर 50 साल बाद शायद एक बार फिर वे सब 'गरीबी' के तमगे से मुक्त हो जाएंगे।

(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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