भारत सरकार का दावा है कि वह अब तक हुए सभी मुक्त व्यापार समझौतों (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट, एफटीए) की समीक्षा कर रही है। यह तो आने वाले वक्त बताएगा कि समीक्षा में क्या निकलेगा, लेकिन डाउन टू अर्थ ने एफटीए के असर की पड़ताल की और रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट क्या है। पढ़ें, दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा कि आखिर केंद्र सरकार को आरसीईपी से पीछे क्यों हटना पड़ा। तीसरी कड़ी में अपना पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स की वजह से पुश्तैनी काम धंधे बंद होने शुरू हो गए और सस्ती रबड़ की वजह से रबड़ किसानों को खेती प्रभावित हो गई। चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स ने चौपट किया कपड़ा उद्योग ।पांचवीं कड़ी में अपना पढ़ा, सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद दाल क्यों आयात करता है भारत । छठी कड़ी में पढ़ा कि लहसुन तक चीन से आना लगा तो क्या करे किसान? । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, दूसरे देशों से कारोबार में भारत ने खाई मात, बढ़ा व्यापार घाटा । इससे आगे आपने पढ़ा, भारतीय वैश्विक संबंध परिषद गेटवे हाउस में फॉरेन पॉलिसी स्टडीज प्रोग्राम शोधार्थी राजीव भाटिया ने एक लेख । अंतिम कड़ी में पढ़ें, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर विश्वजीत धर का लेख-
‘कृषि व उद्योगों को तैयार करने से पहले मुक्त व्यापार समझौते न करे भारत’विश्वजीत धर जिन शर्तों पर भारत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) में शामिल हुआ है, वे अर्थव्यवस्था के लिए बेहद हानिकारक थी। व्यापारिक गुट में शामिल न होकर सरकार ने एक समझदारी भरा कदम उठाया है। बातचीत के दौरान यह देखने के बाद कि इसकी प्रतिक्रिया भारत के हितों के अनुकूल नहीं है सरकार को पहले ही इससे बाहर हो जाना चाहिए था। अंतिम क्षणों में बाहर निकलने से वैश्विक समुदाय को एक नकारात्मक संदेश मिलता है। आरसीईपी हमारी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को मौलिक रूप से प्रभावित कर सकता है। मेरा शोध बताता है कि भारत के विनिर्माण और कृषि क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा की कमी है। हमारे कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छोटे किसान शामिल हैं, जिनके लिए आजीविका और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना प्राथमिक चिंता है। सरकार किसी तरह सब्सिडी देकर और आयातित वस्तुओं पर उच्च शुल्क लगाकर उनका समर्थन कर रही है। |