रेखाओं का खेल बनी गरीबी
भारत में कितनी गरीबी है? इस प्रश्न का कोई आधिकारिक उत्तर नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि 2012 के बाद से उपभोग व्यय सर्वेक्षण का कोई आधिकारिक अनुमान सामने नहीं आया है। लगभग आधे दशक से भारत में गरीबी के स्तर पर एक मिलीजुली चुप्पी छाई हुई है, इस तथ्य के बावजूद कि विकास कार्यक्रमों को लक्षित जनसंख्या तक पहुंचाने के लिए गरीबी के ताजा आंकड़े अनिवार्य हैं।
पिछले दो वर्षों में आधिकारिक गरीबी के अनुमानों की अनुपस्थिति में कई स्वतंत्र अनुमान उभरकर सामने आए हैं। हालांकि इन आंकड़ों की आधिकारिक पुष्टि नहीं है लेकिन फिर भी नीति निर्माताओं और नेताओं द्वारा ये खूब उपयोग किए जाते हैं। ये अनुमान सुर्खियां बनते हैं क्योंकि विकास के संकेतक के रूप में गरीबी इन अनुमानों की मदद से चर्चा का मुद्दा बनती है। इन सभी अनुमानों का एक ही निष्कर्ष है कि देश में गरीबी में भारी कमी आई है और यह ऐतिहासिक रूप से सबसे निचले स्तर पर है।
गैर-आधिकारिक अनुमानों की इस सूची में ताजा नाम एसबीआई (भारतीय स्टेट बैंक) रिसर्च का है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2023-24 का उपयोग करते हुए एसबीआई रिसर्च ने जनवरी 2025 के पहले सप्ताह में एक अनुमान जारी किया। यह अनुमान गरीबी के स्तर को 4 से 4.5 प्रतिशत बताता है, जो अब तक का सबसे निचला स्तर है। इस आंकड़े के आधार पर कोई यह तर्क दे सकता है कि देश में गरीबी लगभग समाप्त हो गई है।
एसबीआई रिसर्च के अनुसार, 2023-24 में ग्रामीण आबादी का मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग (एमपीसीई) व्यय 4,122 रुपए और शहरी आबादी का 6,996 रुपए है। दूसरे शब्दों में कहें तो देश में एक ग्रामीण नागरिक प्रतिदिन 137 रुपए खर्च करता है जबकि शहरी 233 रुपए। इसमें वह सारा व्यय शामिल है जो किसी को जिंदा रहने के लिए आवश्यक है लेकिन इसमें सरकारी लाभ शामिल नहीं है।
एमपीसीआई आय का सांकेतिक रूप है। इस लिहाज से यह आर्थिक खुशहाली का एक मापदंड बन जाता है। लेकिन गरीबी का अनुमान लगाने के लिए गरीबी रेखा की जानकारी भी जरूरी है। एसबीआई रिसर्च ने 2011-12 की अंतिम गरीबी रेखा को अपडेट किया है। 2023-24 में ग्रामीण आबादी के लिए यह 1,632 रुपए और शहरी आबादी के लिए 1,944 रुपए है। इनसे कम आय वाली आबादी को गरीब माना जाता है। 2011-12 में ग्रामीण और शहरी आबादी के लिए गरीबी रेखा क्रमशः 816 और 1,000 रुपए थी।
गरीबी को ऐतिहासिक रूप से सबसे कम दिखाने वाली नई गरीबी रेखाएं बेहद विवादास्पद हैं। 2011-12 में भी आर्थिक सच्चाई से मेल न खाने के साथ-साथ इन गरीबी रेखाओं के निर्धारण के लिए अपनाई गई पद्धति विवाद के केंद्र में थी। कई लोग इन रेखाओं को “भुखमरी रेखाएं” कहते हैं। ये रेखाएं गरीबी का आकलन करने वाले विशेषज्ञ समूह तेंदुलकर समिति की पद्धति पर आधरित हैं, जो 2009 में निर्धारित की गई थी और उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण 2011-12 के आधार पर इस पद्धति का इस्तेमाल करके यह गरीबी रेखा तय की गई। इसकी इतनी आलोचना हुई कि तत्कालीन योजना आयोग ने गरीबी अनुमान पद्धति की समीक्षा के लिए 2014 में एक और विशेषज्ञ समूह (सी रंगराजन की अध्यक्षता में रंगराजन समिति) का गठन किया।
2009 के विशेषज्ञ समूह के अनुसार, ग्रामीण भारत में 25.7 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 13.7 प्रतिशत लोग गरीब थे। गरीबी निर्धारण की प्रद्धति में बदलाव के बाद 2014 के विशेषज्ञ समूह ने पाया कि 2011-2012 में 30.9 प्रतिशत ग्रामीण और 26.4 प्रतिशत शहरी आबादी गरीब थी। तत्कालीन यूपीए-2 सरकार ने बाद के अनुमान को स्वीकार नहीं किया। वर्तमान सत्ताधारी राजनीतिक नेतृत्व ने इसे एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया और तेंदुलकर के अनुमानों को भी खारिज कर दिया।
यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि रंगराजन समिति की गरीबी रेखा और अनुमान वास्तविकता के सबसे करीब थे। यदि रंगराजन पद्धति को वर्तमान व्यय सर्वेक्षण पर लागू किया जाता है, तो गरीबी का स्तर क्या होगा? जर्नल रिव्यू ऑफ एग्रेरियन स्टडीज के जुलाई-दिसंबर 2024 के अंक में इस पर एक गहन अध्ययन प्रकाशित हुआ कि उपरोक्त पद्धति को 2022-23 के घरेलू उपभोग एवं व्यय सर्वेक्षण पर लागू किया जाए तो गरीबी का स्तर क्या होगा।
यह अध्ययन सीए सेतू, एलटी अभिनव सूर्या और सीए रूथु द्वारा किया गया था। अध्ययन के अनुसार, रंगराजन पद्धति के अनुसार, 2022-23 में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा प्रति व्यक्ति प्रति माह 2,515 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 3,639 रुपए होगी। इस रेखा के आधार पर ग्रामीण आबादी का 27.4 प्रतिशत गरीब है, शहरी क्षेत्रों का 23.7 प्रतिशत और पूरे देश में 26.4 प्रतिशत गरीब है।