पलायन से बदल सकता है उत्तराखंड का राजनीतिक भूगोल

उत्तराखंड में जनसंख्या के आधार पर परिसीमन जारी रहा तो ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व खत्म हो जाएगा
उत्तराखंड का एक गांव। फोटो: अंकुर पालीवाल
उत्तराखंड का एक गांव। फोटो: अंकुर पालीवाल
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हिमालयी राज्य उत्तराखंड के ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली 35 प्रतिशत आबादी वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद अपना पैतृक घर छोड़ चुकी है। इन क्षेत्रों से रोजाना औसतन 246 लोग पलायन कर रहे हैं। अगर इसी गति से पलायन जारी रहा तो उत्तराखंड का राजनीतिक भूगोल बदल सकता है। पलायन के चलते राज्य की विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों का दायरा नए सिरे से निर्धारित करना पड़ सकता है।

यह तथ्य गैर लाभकारी संगठन इंटीग्रेटेड माउंटेन इनीशिएटिव (आईएमआई) द्वारा जारी “स्टेट ऑफ द हिमालय फार्मर्स एंड फार्मिंग” में उभरकर सामने आए हैं। माना जा रहा है कि ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभा सीटें परिसीमन के बाद कम होंगी, जबकि शहरी विधानसभा क्षेत्र बढ़ जाएंगे। 2002 में परिसीमन के बाद जनसंख्या कम होने से ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की सीटें 40 से घटकर 34 और शहरी क्षेत्रों की सीटें 30 से बढ़कर 36 हो गई थीं। जानकार उत्तराखंड के लिए इसे खतरनाक बता रहे हैं। उनका कहना है कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन जारी रहा तो ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व खत्म हो जाएगा और ऐसे क्षेत्रों की आवाज विधानसभा तक नहीं पहुंच पाएगी।

मिट जाएगा गांवों का अस्तित्व

उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) के अध्यक्ष दिवाकर भट्ट ने डाउन टू अर्थ को बताया कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन होने पर विधानसभा सीटें निश्चित रूप से कम हो जाएंगी और आने वाले समय में बचे-खुचे गांवों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। उनका कहना है कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन होने से अलग राज्य के लिए किए गए आंदोलन का ऐतिहासिक महत्व खत्म हो जाएगा। पर्यावरणविद अनिल जोशी भी मानते हैं कि भौगोलिक आधार पर परिसीमन होना चाहिए। उनका कहना है कि पिछले परिसीमन में ग्रामीण क्षेत्रों की सीटें कम हुई थीं जबकि शहरी क्षेत्र देहरादून की सीटें बढ़ गई थीं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तराखंड में पलायन 1930 में शुरू हुआ था, लेकिन यह मामूली स्तर पर था। बाद के दशकों खासकर 2000 में राज्य के गठन से पहले और बाद में यह काफी बढ़ गया। वर्तमान में मूलभूत सुविधाओं की कमी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी और रोजगार की तलाश में लोग पलायन को मजबूर हैं। कुछ पहाड़ी जिलों में हालात इतने बुरे हैं कि सैकड़ों गांव उजाड़ हो चुके हैं और इन्हें भुतहा गांव कहा जाने लगा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुत से गांव ऐसे हैं, जहां केवल 8-10 लोग ही रह रहे हैं। अनिल जोशी कहते हैं कि हिमाचल प्रदेश में सरकारों ने बागवानी पर विशेष ध्यान दिया। बागवानी ने एक मजबूत बुनियाद बना दी जिससे पलायन नहीं हुआ लेकिन उत्तराखंड के राजनीतिक नेतृत्व ने इसकी उपेक्षा की। इसका नतीजा पलायन के रूप में देखा जा रहा है।

32 लाख लोगों ने किया पलायन

रिपोर्ट में कहा गया है कि अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड से करीब 60 प्रतिशत आबादी अथवा 32 लाख लोग अपना घर छोड़ चुके हैं। पलायन आयोग की रिपोर्ट कहती है कि 2018 में उत्तराखंड के 1,700 गांव भुतहा हो चुके हैं और करीब 1,000 गांव ऐसे हैं जहां 100 से कम लोग बचे हैं। कुल मिलाकर 3900 गांवों से पलायन हुआ है।

उत्तराखंड में 2001 से 2011 के बीच 19.17 प्रतिशत की दर से जनसंख्या बढ़ी है। 2001 में पौड़ी की जनसंख्या 3,66,017 थी, जो 2011 में घटकर 3,60,442 हो गई। यानी 10 साल में पौड़ी की जनसंख्या 5,575 घट गई। इस अवधि में अल्मोड़ा की आबादी भी 5,294 कम हो गई।

सरकार का नीति शहरों पर केंद्रित

मूलरूप से पिथौरागढ़ जिले के सौगांव में रहने वाले और वर्तमान में जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर गोविंद सिंह का मानना है कि सरकार का ध्यान गांवों की बजाय शहरों पर अधिक है। सरकार को छोटी-सी आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों का विकास मुश्किल लगता है, इसलिए उसका जोर है कि लोग शहरों में आएं और उन्हें वहीं इकट्ठी सुविधाएं दे दी जाएं। इस कारण गांव उपेक्षित रह जाते हैं। गोविंद सिंह बताते हैं कि 1960-80 के दौरान लोग नौकरी की तलाश में दिल्ली-मुंबई का पलायन करते हैं लेकिन 2000 के बाद सुविधाओं की चाह में आंतरिक पलायन ज्यादा हो रहा है। लोग गांव छोड़कर कस्बों, तहसीलों और जिला मुख्यालय में बस रहे हैं। यही वजह है, ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभा सीटें कम हो रही हैं जबकि शहरी और मैदानी इलाकों की सीटें बढ़ रही हैं। उनका कहना है कि भविष्य में इसके बढ़ने की संभावना है।

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