मनरेगा जॉब कार्ड दिखाते गांव के युवा। फोटो: विवेक मिश्रा
मनरेगा जॉब कार्ड दिखाते गांव के युवा। फोटो: विवेक मिश्रा

पथ का साथी: गांव लौटे प्रवासियों के सामने खड़ी हैं कई दिक्कतें

डाउन टू अर्थ के रिपोर्टर विवेक मिश्रा इन दिनों उत्तर प्रदेश के गांवों में हैं और गांव पहुंचे प्रवासियों के साथ दिन बीता रहे हैं
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डाउन टू अर्थ हिंदी के रिपोर्टर विवेक मिश्रा 16 मई 2020 से प्रवासी मजदूरों के साथ ही पैदल निकले थे। उन्होंने इस दौरान भयावह हकीकत को जाना और समझा। अब वे उत्तर प्रदेश के गांवों में घूम रहे हैं और जानने की कोशिश कर रहे हैं, जो प्रवासी गांव लौटे हैं, उनका जीवन अब कैसे बीत रहा है। उनके इस सफर को सिलसिलेवार “पथ का साथी” श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। इस श्रृखंला की पहली कड़ी में आपने पढ़ा, पथ का साथी: दुख-दर्द और अपमान के साथ गांव लौट रहे हैं प्रवासी । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, जिनके लिए बरसों काम किया, उन्होंने भी नहीं दिया साथ  ।  तीसरी कड़ी में गांव लौटते प्रवासियों की मदद के लिए हाइवे से लगते गांव के लोग किस तरह आगे आ रहे हैं।  चौथी कड़ी में आपने पढ़ा- लौट रहे प्रवासी गांव में क्या करेंगे, मनरेगा कितना देगा साथ? । अब पढ़ें, इससे आगे की दास्तान-

महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) ही ऐसी बड़ी योजना है, जिसकी जरूरत सही मायने में इन दिनों पड़ रही है। उत्तर प्रदेश के शाहजहां पुर के गांव रतनपुर मुंडा में मनरेगा की हकीकत देखने को मिली। गांव के राजीव कुमार को एक सप्ताह से अधिक समय हो चुका है, जब उन्होंने मनरेगा का काम तो पूरा कर दिया, लेकिन अब तक पैसा नहीं मिला है। गांव के प्रधान बताते हैं कि एक सप्ताह के भीतर पैसा मिल जाएगा। हालांकि लोगों को इस समय लगभग रोजाना पैसा की जरूरत है।


गांव में घूमने के बाद मैं फिर जगदीश के घर लौट आया। पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि शाहजहांपुर आ रही बस में ही मैंने जगदीश और उनके परिवार को अपने गांव ले जाने के लिए मना लिया था। मेरी उत्सुकता इस बात को लेकर थी कि जगदीश और उनके परिवार को शाहजहांपुर में राशन के तौर पर क्या-क्या मिला था और यह राशन कितने दिन चलेगा। जगदीश ने बताया कि हर परिवार को 10 किलो आटा, 10 किलो चावल, एक किलो दाल, 4 किलो आलू, एक रिफाइंड की थैली के अलावा हल्दी, नमक, मिर्च मसाला मिला था।

परिवारों को राशन क्या और कितना दिया जाएगा, इस बारे में पिछले दिनों भारतीय खाद्य निगम ने नागपुर हाई कोर्ट में दायर याचिका के जवाब में जानकारी दी थी कि राशन कार्ड धारक हो या न हो, उनके परिवारों को आटा,चावल, दाल, आलू, तेल और मसाले दिए जा रहे हैं। यही राशन वितरण उत्तर प्रदेश में भी हो रहा है।

जगदीश के भाई राजवीर दिल्ली के बवाना में एक फैक्ट्री में काम करत थे। कुछ समय पहले मशीन में उनका हाथ आ गया और हाथ पूरी तरह कट गया था। फैक्ट्री मालिक ने उनका हाथ जुड़वा दिया था, लेकिन अभी भी हाथ पूरी तरह काम नहीं करता। बावजूद इसके राजवीर उसकी फैक्ट्री में काम करते रहे। होली मनाने गांव आए तो लॉकडाउन हो गया और तब से वे गांव ही हैं। वे शुक्र मनाते हैं कि लॉकडाउन की वजह से उन्हें दिल्ली में नहीं फंसना पड़ा और वह पहले ही गांव आ गए।

वह बताते हैं कि मार्च से ही वह गांव में हैं और यहां मनरेगा का काम भी कर रहे हैं, लेकिन मनरेगा में बरकत नहीं है। राजवीर के मुताबिक परिवार बड़ा है और फिर रोजाना काम भी नहीं मिलता। कई-कई दिन बाद काम मिलता है। पैसे भी 15 दिन में मिलते हैं। राजवीर के पास फावड़ा नहीं है, जब वह मनरेगा के काम के लिए जाता है तो किसी और से फावड़ा लेकर जाता है। ऐसा केवल राजवीर ही नहीं, बल्कि गांव के कई लोगों के पास फावड़ा, बेलचा या कुदाल नहीं है। ऐसे में जब काम मिलता है तो वे किसी न किसी मांग कर काम चलाते हैं। लोग बताते हैं कि उनके पास इतना पैसा भी नहीं होता कि वे फावड़ा बेलचा ले सकें। फिर काम भी नियमित नहीं मिलता। इस वजह से मनरेगा को लेकर ग्रामीणों में कोई खास उत्साह नहीं दिखता है।

राजवीर के घर से लगते घर में उनके भाई का परिवार रहता है। जहां उनके भतीजे सरजू प्रसाद रहते हैं। सरजू की उम्र लगभग 21 साल है। जब गांव में कोई काम नहीं मिला तो पिछले साल दिसंबर 2019 में वह अपने चाचा राजवीर के पास दिल्ली के बवाना में पहुंच गए। चाचा ने सरजू को भी एक प्लास्टिक फैक्ट्री में काम पर लगा दिया। लेकिन एक माह बाद ही सरजू का हाथ भी मशीन में आ गया और अंगुलियां कटकर अलग गई। फैक्ट्री मालिक नजदीक के एक प्राइवेट अस्पताल में ले गया, लेकिन उस अस्पताल ने इलाज करने से मना कर दिया तो मालिक ने दूसरे अस्पताल में इलाज कराया। वह अस्पताल में मात्र एक दिन रहा और अस्पताल ने ऑपरेशन कर अंगुलियां जोड़ दी और फैक्ट्री मालिक सरजू को अपनी फैक्ट्री में ले आया। जहां सरजू ने कुछ दिन आराम किया और लगभग डेढ़ माह बाद मालिक ने उससे काम करवाना शुरू कर दिया।

लेकिन केवल 10 दिन बाद ही लॉकडाउन हो गया और काम बंद हो गया। जब एक के बाद एक दो लॉकडाउन बीत गए और तीसरे लॉकडाउन शुरू हो गया तो फैक्ट्री मालिक ने उसे जाने के लिए कह दिया। सरजू किसी तरह से वहां से निकलकर पानीपत पहुंचा, जहां पहले से उसके परिवार के लोग फंसे हुए थे। मई के आखिरी सप्ताह में सबने मिलकर वहां से निकलने की सोची। इस तरह सरजू सहित आठ लोग वहां से अपने गांव के लिए निकल पड़े। उन्होंने पहले एक ट्रक किया, जिसने बीच में छोड़ दिया। वहां से बस और पैदल चलते-चलते सरजू अपने गांव पहुंच गया।

जो सरजू छह माह पहले दिल्ली कमाने गया था, उसने एक पैसा भी नहीं कमाया और उल्टे कर्ज लेकर घर लौटना पड़ा। अब सरजू के पिता को यह कर्ज चुकाना होगा। सरजू के पास मनरेगा कार्ड भी है, लेकिन पहले भी काम नहीं मिलता था, इसलिए वह दिल्ली चला गया था। काम अब भी नहीं मिल रहा है। गांव में पत्नी और बच्ची है, इसलिए सरजू की सबसे बड़ी दिक्कत ही यह है कि वह आगे अपना घर कैसे चलाएगा।

पड़ोस में बृजकिशोर व उनके भाई जगदीश रहते हैं। दोनों भाई काम के लिए पानीपत चले गए थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद जब गांव के लिए निकलते तो उनके साथ 32 लोग थे। हर आदमी ने 2-2000 रुपए इकट्ठा किया और एक ट्रक किराये पर किया, लेकिन ट्रक चालक ने बीच रास्ते में पुलिस का डर दिखा कर उन्हें उतार दिया और पैसे लौटाए बिना वहां से चला गया। ट्रक चालक की बदमाशी की शिकायत करने के लिए उन्होंने वहां से 100 नंबर पर पुलिस को फोन किया, लेकिन जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वे सब वहां से पैदल ही आगे बढ़ गए। एक जगह नदी आई, जगदीश के साथ बच्चे व पत्नी भी थी। किसी तरह से वे नदी पार कर पाए। अंधेरे में कहां जाना है, कुछ समझ नहीं आ रहा था, काफी आगे बढ़ने पर एक गांव दिखाई दिया। जब गांव वालों को अपनी व्यथा सुनाई तो गांव के लोगों ने उन्हें खाना खिलाया और रात को जगह दी। सुबह वे वहां से एक गाड़ी करके किसी तरह अपने गांव पहुंच गए। पानीपत में कमाया पैसा तो खत्म हो गया था, जब वहां से चले तो रिश्तेदारों से उधार लेकर आए हैं।

शहरों से लौटे गांव के जितने लोगों से मेरी बात हुई तो लगभग सभी का यह कहना था कि इस साल तो वे वापस शहर नहीं जाएंगे। बल्कि वे तो हमेशा के लिए अब गांव में रहना चाहते हैं, बस इतना काम मिल जाए कि परिवार के लोगों का भरण पोषण हो जाए।

गांव की एक और बड़ी समस्या है, जो लोगों को छोड़ने को मजबूर कर देती है। जो लोग बाहर शहरों में जाते हैं, उनके पास खेती की जमीन नहीं है और वे दलित जाति से हैं। जैसे कि गांव के ब्राह्मण जाति के लोगों ने मुझसे ऐतराज जताया कि मुझे दलित के घर में नहीं रुकना चाहिए था, बल्कि मैं उनसे बात करता तो वे लोग मेरे ठहरने की व्यवस्था कर देते। इससे मुझे एहसास हुआ कि गांवों में जातीय व्यवस्था किस तरह से अभी भी जमी हुई है और गांव लौट रहे प्रवासियों को एक बार फिर से इसी व्यवस्था का दंश झेलना पड़ेगा।

गांव के एक बुजुर्ग ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनका नाम राम भरोसे है। वह भोर ही उठ जात हैं और नित्य कर्म से फारिग होकर अपने आंगन में बंधे दो बैलों और हल लेकर निकल पड़ते हैं। वह दूसरों के खेतों में जुताई करते हैं। वह सुबह चार घंटे जुताई करते हैं और इसके बदले दो सौ रुपए लेते हैं।

जल्द पढ़ेंगे, इससे आगे की हकीकत

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