कानून लागू किया होता तो मजदूरों काे ये दिन नहीं देखने पड़ते

लगभग 8.5 करोड़ निर्माण मजदूरों के लिए 1996 में एक कानून बनाया गया था
फोटो: विकास चौधरी
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लॉकडाउन की वजह से प्रभावित मजदूरों में बड़ी संख्या में भवन एवं निर्माण कार्य करने वाले मजदूर शामिल हैं। इन्हीं मजदूरों को सरकारों ने नगद राशि देने की घोषणा की है। मोटा अनुमान है कि इनकी संख्या 10 करोड़ से अधिक है। इनमें से लगभग 7.5 करोड़ मजदूरों की पहचान एक संगठन ने की है। इन मजदूरों के लिए एक कानून बना हुआ है, लेकिन दूसरे श्रम कानूनों की तरह इसकी पालना भी नहीं की गई। डाउन टू अर्थ ने  इन सब मुद्दों की पड़ताल करते हुए एक बड़ी रिपोर्ट की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि सरकार ने कैसे तुरत-फुरत इस कानून का सहारा लिया। दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, राज्य सरकारों द्वारा दी जा रही नगद राशि का सच। पढ़ें, तीसरी कड़ी-  

"सरकार को आखिर सोचना चाहिए कि लॉकडाउन की घोषणा होते ही प्रवासी मजदूरों में अफरातफरी क्यों मच गई? क्या उन्हें इतना भी भरोसा नहीं था कि सरकार उनके लिए कुछ न कुछ करेगी? निर्माण मजदूर कल्याण बोर्ड के पास 52 हजार करोड़ रुपए से अधिक पैसा है। क्या इस पैसे का इस्तेमाल इस ढंग से नहीं किया जाना चाहिए था कि मजदूरों को यह भरोसा रहता कि उन्हें घर के भीतर रहने के बावजूद भूखा नहीं रहना पड़ेगा?" बिल्डिंग एंड वुड वर्कर्स इंटरनेशन के रीजनल पॉलिसी ऑफिसर (एशिया पेसिफिक) राजीव शर्मा के ये सवाल सरकार को चुभ सकते हैं। 

थानेश्वर आदिगौड़ भी कहते हैं कि दिल्ली में प्रदूषण की मात्रा बढ़ने के बाद निर्माण कार्य रुकवा दिए जाते हैं। उस समय भी मजदूर खाली हाथ हो जाते हैं और कई मजदूर उस समय भी अपने गांव चले जाते हैं। हमने सरकार से बात की और कहा कि ऐसे समय में मजदूरों को बोर्ड की ओर से आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए, लेकिन सरकार ने हमारी बात नहीं मानी। अगर उस समय ही एक आपदा राहत कोष बना दिया जाता तो मजदूरों को भरोसा रहता कि काम न मिलने पर उन्हें कुछ न कुछ सहायता मिल जाएगी।

लॉकडाउन की घोषणा के तरीके पर सवाल उठाते हुए जगदीप वालिया कहते हैं कि जब प्रधानमंत्री लॉकडाउन की घोषणा कर रहे थे, तभी यह भी घोषणा की जानी चाहिए थी कि प्रवासी मजदूरों को नगद सहायता के साथ-साथ राशन की व्यवस्था की जाएगी तो मजदूरों में हड़कंप नहीं मचता। वह कहते हैं कि सरकार के एजेंडे में मजदूर हैं ही नहीं, इसलिए उनके बारे में सोचा ही नहीं गया।

कानून न आया काम

दरअसल, राज्यों में बने निर्माण मजदूर कल्याण बोर्डों के कामकाज को लेकर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। 1996 में दो एक्ट पास हुए थे। एक था बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स (रेगुलेशन ऑफ इम्प्लॉयमेंट एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) एक्ट और दूसरा द बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर (बीओसीडब्ल्यू) सेस एक्ट। एक एक्ट में मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा एवं कल्याणकारी योजनाएं बनाने का प्रावधान है तो दूसरे में उनके लिए फंड की व्यवस्था करने का। सेस एक्ट में प्रावधान है कि भवन या निर्माण करने वाली एजेंसी को कुल परियोजना लागत का एक फीसदी सेस वेलफेयर बोर्ड के पास जमा कराना होगा।

सेस तो जमा होने लगा, लेकिन जब यह राशि खर्च नहीं हो रही थी तो एनसीसी-सीएल ने अदालत का दरवाजा खटखटाया, लेकिन अदालतों के लगातार आदेश के बावजूद भी सरकारों का रवैया नहीं बदला। एक अवमानना याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 19 मार्च 2018 को केंद्र व राज्य सरकारों को बोर्ड के कामकाज और योजनाओं की निगरानी करने को कहा था।दरअसल, बोर्ड के पास जमा पैसे को सही ढंग से खर्च नहीं किया जा रहा है। राज्यसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक 30 सितंबर 2018 तक राज्यों में बने बोर्डों के पास 45,473.1 करोड़ इकट्ठा था, लेकिन इसमें से 17,591.59 करोड़ ही खर्च किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने बोर्डों में जमा पैसे में से कम खर्च किए जाने पर नाराजगी जताई।

इसके अलावा एक्ट की सेक्शन 34 में हर नियोक्ता के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि वह मजदूरों को रहने के लिए निशुल्क अस्थायी इंतजाम करे, इसमें खाना बनाने, नहाने का अलग इंतजाम हो। ये अस्थायी इंतजाम तब तक रहने चाहिए, जब तक भवन या प्रोजेक्ट का काम पूरा न हो जाए।एक्ट की इस धारा का कितना पालन हो रहा है, इसका एक उदाहरण है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रगति मैदान में चल रहा निर्माण कार्य। लॉकडाउन से पहले यहां लगभग 6,000 मजदूर काम कर रहे थे, लेकिन लॉकडाउन की घोषणा होते ही यहां से मजदूर निकलना शुरू हो गए, लेकिन लगभग 1,600 मजदूर यहां फंस गए। कंस्ट्रक्शन कंपनी के अधिकारी व ठेकेदार नदारद हो गए।

पुलिस ने इसकी जानकारी स्वयंसेवी संस्था सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डेवलपमेंट के सुनील आलेडिया को दी। सुनील बताते हैं कि इन मजदूरों के खाने का जैसे-तैसे इंतजाम किया जा रहा है, लेकिन सवाल यह है कि न तो कंस्ट्रक्शन कंपनी ने इनका खयाल रखा और न ही वेलफेयर बोर्ड में इनका रजिस्ट्रेशन कराया गया, क्योंकि ऐसा करने पर कंपनी को श्रम विभाग को मजदूरों का पूरा ब्यौरा देना पड़ता। सुनील ने इस सिलसिले में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की है।

बीओसीडब्ल्यू एक्ट में यह भी कहा गया है कि काम पूरा होने के बाद राज्य सरकार को नया काम ढूंढने में मजदूरों की मदद करनी होगी। साथ ही, दूसरी जगह आने-जाने, रहने के लिए लेबर शेड या रैनबसेरा, मोबाइल टॉयलेट, बच्चों के लिए मोबाइल क्रश का इंतजाम करना होगा। राज्य सरकारें यह सब खर्च बोर्ड में जमा सेस से कर सकती हैं। लेकिन लॉकडाउन के बाद क्या हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है।

राजीव शर्मा कहते हैं कि अगर बीओसीडब्ल्यू एक्ट की सही पालना की जाती तो मजदूरों में इस तरह भगदड़ नहीं मचती। जब एक्ट बना था तो उस समय कहा गया था कि देशभर में 8.5 करोड़ मजदूर हैं, लेकिन पंजीकरण 3.5 करोड़ का ही हो पाया। सरकार अगर हर प्रोजेक्ट में काम करने वाले मजदूर का बीओसीडब्ल्यू बोर्ड में पंजीकरण अनिवार्य कर देती तो इस समय ज्यादातर मजदूर पंजीकृत होते। इसके अलावा बोर्ड की योजनाएं ऐसी बनाई जा सकती थीं कि काम न होने पर भी उन्हें इस बात का भरोसा रहता कि वे भूखे नहीं मरेंगे।

अलग-अलग राज्य में बीओसीडब्ल्यू बोर्ड द्वारा अलग-अलग योजनाएं चलाई जाती हैं। इनमें कोई समानता नहीं है। जैसे 15 फरवरी 2015 को केंद्र सरकार ने एक शपथ पत्र दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट को बताया कि हरियाणा में 22, हिमाचल प्रदेश में 17, महाराष्ट्र में 17, मेघालय में 14, दिल्ली में 18 योजनाएं चल रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर हैरानी जताते हुए कहा था कि इससे स्पष्ट है कि राज्य सरकारें एक ही तरह की योजनाएं बनाने में रुचि नहीं लेतीं और ज्यादातर योजनाएं कागज में ही चल रही हैं।

राज्यों द्वारा जो स्कीम चलाई जा रही हैं,उनमें बच्चों के लिए स्कॉलरशिप, शादी के लिए आर्थिक सहायता, बच्चों के लिए किताबें, पेंशन, मजदूरों के साइकिल, महिलाओं के लिए साड़ी, अंतिम क्रिया के लिए सहायता, टूल्स खरीदने जैसी योजनाएं शामिल हैं। इनमें एक हास्यास्पद स्कीम भी कुछ राज्यों में है। इसे निर्माण कामगार आवास सहायता योजना कहा जाता है। इसमें मजदूरों को घर बनाने के लिए सहायता दी जाती है।

उत्तर प्रदेश में दो किस्तों में 45,000 रुपए देने का प्रावधान है,लेकिन इसके लिए मजदूर के पास कम से 20 वर्गमीटर की अपनी जमीन होनी चाहिए। थानेश्वर कहते हैं कि निर्माण मजदूर प्रवासी होते हैं और उनके पास प्लॉट कहां से आएगा? वह कहते हैं कि राज्यों में ऐसी कई योजनाएं हैं, जो मजदूरों के किसी काम की नहीं हैं। ऐसे ही एक चिकित्सा सहायता योजना के तहत एक मजदूर को पूरे परिवार के लिए साल में एक बार एकमुश्त 3,000 रुपए देने का प्रावधान है। अब अगर काम के दौरान मजदूर को चोट लग जाए या वह बीमार पड़ जाए तो उसे केवल 3,000 रुपए ही मिलेंगे, जबकि वे ज्यादातर बड़े शहरों में काम करते हैं, जहां इलाज के लिए 3,000 रुपए बहुत कम है।

अगली कड़ी में पढ़ें- क्या इस कानून के बारे में जानते हैं आप?

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