विभिन्न इलाकों में फंसे हैं मध्यप्रदेश के प्रवासी खेतिहर मजदूर

एकता परिषद द्वारा कराया गया सर्वेक्षण बताता है कि लगभग 98 फीसदी मजदूर किसी भी तरह अपने घर वापस पहुंचना चाहते हैं
लॉकडाउन की वजह से खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं मध्यप्रदेश के प्रवासी मजदूर
लॉकडाउन की वजह से खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं मध्यप्रदेश के प्रवासी मजदूर
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मध्यप्रदेश उन प्रमुख राज्यों में से है, जहां चंबल, बुंदेलखंड-बघेलखंड तथा निमाड़ क्षेत्र से श्रमिकों-मजदूरों का सर्वाधिक पलायन होता है। इन अनुसूचित जाति-जनजाति क्षेत्रों में प्रतिवर्ष होने वाला पलायन वास्तव में इस समाज के लिये राज्य के घोषणाओं और उसके जमीनी प्रभाव के बीच के फासले को बयां करता है।

एकता परिषद जनसंगठन द्वारा जुटाई गई जानकारी के अनुसार फसल कटाई के लिए मध्यप्रदेश से राजस्थान, ग़ुजरात और महाराष्ट्र गए मजदूरों की उम्मीदें लॉकडाउन के लगभग एक माह बाद टूटती जा रही हैं। जो कुछ भी आधा-अधूरा कमाया, वो भी अब समाप्त हो गया। औसतन एक परिवार दो से तीन महीनों की मजदूरी में लगभग 50 हजार रुपए तक कमाता है। इस बार कुल मजदूरी ही लगभग एक माह की हुई थी - इसीलिये थोड़ा बहुत कमाया हुआ भी एक माह के लॉकडाउन में समाप्त हो गया।

एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक रमेश शर्मा बताते हैं कि परिषद की ओर से किया गया सर्वेक्षण बताता है कि लगभग 98 फीसदी मजदूर, तमाम आर्थिक अनिश्चितता के बावजूद भी अब तत्काल अपने घर लौटना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि लौटने के बाद उनके पास वैकल्पिक रोजगार शायद नहीं होगा। उन्हें यह भी नहीं मालूम कि बिना पैसों के उन्हें वापस कौन लेकर जाएगा। पलायन की अनिश्चितता के नए संकट से सामना होना वास्तव में उनके लिये पेट के साथ साथ नई मनोवैज्ञानिक चुनौती भी लेकर आया है। खाली बैठे वक्त गुजारना उनकी फितरत में नहीं - लेकिन लॉकडाउन में हजार किलोमीटर भूखे पेट लौटना और प्रशासन के लांछन सहने की दोहरी मार झेलना हर मजदूर के बस की बात नहीं है।

पंचम सहरिया कहते हैं कि - काश समाज में उनके सहयोग की कद्र करते हुए उन्हें भी बसों में भरकर घर पहुंचा दिया जाता। अपनी आवाज अनसुना होने का दर्द उन तमाम मजदूरों में इस बार पहले से कहीं अधिक गहरा है।

ग्वालियर चंबल अंचल के सहरिया आदिवासियों के बीच चैत के महीने में पलायन की परिपाटी कई दशकों से चली आ रही है। चैत के महीने में फसल कटाई के लिए यह लोग हर वर्ष जाते हैं तथा चार-पांच महीने के खाने पीने की व्यवस्था करके लाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व तक यहां मजदूरी के रूप में पैसा नहीं, बल्कि अनाज लिया जाता था, लेकिन यह परिपाटी जो परंपरागत रूप से दशकों से चली आ रही है यह केवल 100 किलोमीटर के दायरे तक सीमित थी।

श्योपुर जिले के लोग 100 किलोमीटर के दायरे में सरसों तथा गेहूं की कटाई के लिए जाते थे। यह पलायन डेढ़ से 2 महीने के लिए होता था। फसल कट जाने के बाद किसी साधन से यह अनाज के बोरे वापस लेकर घर लौटते थे। फसल कटाई के लिए आदिवासी साल भर इंतजार करते थे, लेकिन श्योपुर क्षेत्र में यह परंपरागत परिपाटी पिछले 10 सालों से टूट गई है, जब से पंजाब के बड़े-बड़े किसानों ने क्षेत्र में गेहूं की फसल कटाई के लिए बड़ी-बड़ी मशीन भेजना शुरू कर दिया। तब से स्थानीय आदिवासियों को काम मिलना पूरी तरह से बंद हो गया। जहां बड़े पैमाने पर गेहूं की फसल होती है, वहीं कटाई करने के लिए अब बड़ी-बड़ी मशीनें पहुंच जाती हैं और परंपरागत मजदूरी समाप्त हो गई।

विगत कुछ वर्षों से इन आदिवासियों ने राजस्थान के पाकिस्तान बॉर्डर से लगे जैसलमेर क्षेत्र में जाना शुरू कर दिया है। जहां बड़े पैमाने पर जीरे की खेती होती है। इस वर्ष भी फरवरी-मार्च में पूरे दो-तीन महीने की तैयारी के साथ चम्बल क्षेत्र के कई गावों के सहरिया आदिवासियों ने जैसलमेर की तरफ पलायन किया।

इनमें से ही श्योपुर तहसील का एक गांव है मायापुर। इस गांव के 34 लोग जीरे की कटाई के लिए 25 फरवरी को जैसलमेर के विकासखंड मोहनगढ़ पहुंचे और वहीं उन्होंने खेतों में अपना डेरा जमाया। जो ठेकेदार लेकर जाता है, उस ठेकेदार को भी 50 रुपए प्रति मजदूर प्रतिदिन के हिसाब से पैसा मिलता है तथा मजदूरों को 250 प्रतिदिन प्रति व्यक्ति के हिसाब से तय किया जाता है।

कांतिबाई सहरिया, जो एकता परिषद के गांव की मुखिया भी है के नेतृत्व में 11 पुरुष 9 महिलाएं 15 बच्चे जैसलमेर पहुंचे थे। वहां उन्होंने जीरे की कटाई का काम प्रारंभ किया। जैसलमेर का मोहनगढ़ तहसील एकदम पाकिस्तान बॉर्डर से लगा हुआ है उसी के पास उन्होंने अपना डेरा जमाया। जैसे ही 24 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा हुई, वैसे ही यह लोग घर वापसी के लिए प्रयास करने लगे।

कांतिबाई रोज फोन से सूचना देती रही, लेकिन उनको किसी साधन से वापस लौटने में सफलता नहीं हुई। एकता परिषद के साथियों ने थोड़ा राशन की व्यवस्था तो की, लेकिन उनके घर वापस आने का कोई साधन नहीं मिल सका। इसको लेकर राजस्थान के कई स्वयंसेवी संगठनों के साथ भी संपर्क किया गया, लेकिन राशन का ही इंतजाम हो पाया। यहां से इनका गांव 1200 किलोमीटर दूर है पैदल वापस आना बहुत कठिन काम था।

मोहनगढ़ विकासखंड के किसानों ने कहा कि यहां काम समाप्त हो गया है आप लोग जाइए । पानी भी खत्म हो रहा था। इन लोगों ने तय किया कि यहां पड़े रहने से कोई फायदा नहीं है। धीरे-धीरे पैदल चलना शुरू किया। 2 दिन पैदल चलने के बाद यह लोग जब फलोदी पहुंचे, तब वहां पर और भी कई क्षेत्रों के मजदूर मिले, जिसमें शिवपुरी के लगभग 125 मजदूर थे। कुछ दिन बाद उत्तरप्रदेश के झांसी जिले की बबीना तहसील के 175 लोग भी फलौदी पहुंच गए।

इस वक्त फलौदी में ये सभी मजदूर अनिश्चितता के साये में दिन गुजार रहे हैं। सब में अपने बूते आगे बढ़ने का हौसला तो है, लेकिन कानून के नये पाठ के प्रति सम्मान नें उनको पैदल चलनें से रोक रखा है। बहरहाल स्थानीय संगठन और प्रशासन नें अब उन्हें आश्रय और भोजन तो दिया है।

लेकिन उनका सवाल अब भी अनुत्तरित है कि उनके अपने अधिकारों की तालाबंदी आखिर कब समाप्त होगी ….?

(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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