कोरोना महामारी भारत में ऐसे समय आई, जब देश में एक दशक में सबसे कम आर्थिक वृद्धि दर्ज की गई थी। सुस्त अर्थव्यवस्था ने असंगत रूप से ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा असर डाला, जहां देश के बहुसंख्यक उपभोक्ता और गरीब रहते हैं। यहां तक कि बिना किसी आधिकारिक आंकड़े के हम यह मान सकते हैं कि गांवों में एक साल में गरीबी बढ़ी है।
पिछले साल तक बेरोजगारी बढ़ रही थी, उपयोग की जाने वाली चीजों पर खर्चा कम हो रहा था, और जनता के लिए किया जाने वाला विकास कार्य स्थिर था। यही तीनों कारक एक साथ यह दर्शाते हैं कि कोई अर्थव्यवस्था कितनी बेहतर है।
अब 2021 पर आते हैं, गांवों में रहने वाले ज्यादातर असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले और गरीब हैं। पिछले एक साल से वे अनियमित काम पा रहे हैं। कठिन हालात में गुजर बसर करने के उनके किस्से अब सामने भी आ रहे हैं। लोगों ने खाने में कटौती करनी शुरु कर दी है। राशन के दाम बढ़ने से लोगों ने दाल खाना बंद कर दिया। लोगों को रोजगार देने वाली मनरेगा जैसी योजना उनके काम की मांग को पूरा नहीं कर पा रही।
तमाम लोग अपनी छोटी सी जमा पूंजी पर गुजारा कर रहे हैं। कोरोना की दूसरी लहर के तेज होने के चलते पूरी तरह निराशा के हालात बन रहे हैं। कोई यह दलील दे सकता है कि अर्थव्यवस्था का बुरा दौर बीत चुका है और हाशिये के लोगों के लिए सरकार ने कई उपाय किए हैं। सवाल यह है कि इसका नतीजा क्या रहा ?
विश्व बैंक के आंकडों के आधार पर प्यू रिसर्च सेंटर ने अनुमान लगाया है कि कोरोना के बाद की मंदी के चलते देश में प्रतिदिन दो डालर या उससे कम कमाने वाले लोगों की तादाद महज पिछले एक साल में छह करोड़ से बढ़कर 13 करोड़, चालीस हजार यानी दोगुने से भी ज्यादा हो गई है। इसका साफ संकेत है कि भारत 45 साल बाद एक बार फिर ‘सामूहिक तौर पर गरीब देश’ बनने की ओर बढ़ रहा है।
इसके साथ ही 1970 के बाद से गरीबी हटाने की ओर बढ़ रही देश की निर्बाध यात्रा भी बाधित हो चुकी है। पिछली बार आजादी के बाद के पहले 25 सालों में गरीबी में बढ़त दर्ज की गई थी। तब, 1951 से 1954 के दौर में गरीबों की आबादी कुल आबादी के 47 फीसद से बढ़कर 56 फीसद हो गई थी।
हाल के सालों में भारत ऐसे देश के तौर पर उभरा था, जहां गरीबी कम करने की दर सबसे ज्यादा थी। 2019 के गरीबी के वैश्विक बहुआयामी संकेतकों के मुताबिक, देश में 2006 से 2016 के बीच करीब 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर निकाला गया। इसके उलट 2020 में दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबों की तादाद बढ़ाने वाले देश के तौर पर भारत का नाम दर्ज हो रहा है।
देश में 2011 के बाद गरीबों की गणना नहीं हुई है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के हिसाब से 2019 में देश में करीब 36 करोड़, 40 लाख गरीब थे, जो कुल आबादी का 28 फीसद है। कोरोना के कारण बढ़े गरीबों की तादाद इन गरीबों में जुड़ेगी।
दूसरी ओर, शहरी क्षे़त्रों में रहने वाले लाखों लोग भी गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुमान के मुताबिक, मध्यम वर्ग सिकुड़ कर एक तिहाई रह गया है। कुल मिलाकर चाहे पूरी आबादी के बात करें या देश को भौगोलिक खंडों में बांटकर देखें, देश में करोड़ों लोग या तो गरीब हो चुके हैं या गरीब होने की कगार पर हैं।
क्या यह एक अस्थायी स्थिति है ? सामान्य धारणा यह है कि आर्थिक प्रगति होने पर तमाम लोग गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि यह कैसे होगा ? लोगों ने खर्च कम कर दिया है या वे खर्च करने के लायक ही नहीं बचे हैं। उन्होंने अपनी सारी बचत गंवा दी है, जिससे भविष्य में भी उनके खर्च करने की क्षमता कम हो चुकी है।
सरकार भी इस त्रासदी के दौर में नापतौल कर ही लोगों को राहत दे रही है। इसका मतलब है कि यह आर्थिक स्थिति फिलहाल बनी रहेगी। महामारी की तरह इससे निकलने का रास्ता भी अभी तय नहीं है।