मणिपुर डायरी : हिंसा की वजह तलाशता एक लेख

मणिपुर में प्रशासनिक नाकामी और राजनैतिक विश्वासघातों का परिणाम रहा कि सात दशकों में भूमिहीनता बढ़ते-बढ़ते लगभग 71 प्रतिशत हो गई
मणिपुर में विस्थापित परिवार। फोटो: रमेश शर्मा
मणिपुर में विस्थापित परिवार। फोटो: रमेश शर्मा
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84 बरस के खेमचंद का जन्म बिष्णुपुर-चुराचांदपुर के सीमान्त  तलहटी के गांव वांगो काइराप में भारत की स्वाधीनता से भी पूर्व हुआ। उनके पिता बीरेन सिंह ने खेमचंद को बताया था कि 21 सितम्बर 1949 को मणिपुर राजदरबार का भारतीय गणराज्य में विलय का ऐतिहासिक निर्णय मानो मणिपुर के लाखों लोगों की जिन्दगी में उम्मीदों का नया सूर्योदय था।

तब भूमिहीन खेमचंद के पिता बीरेन सिंह और उन जैसे लाखों भूमिहीनों और सीमान्त किसानों को उम्मीद थी कि जिन जमीनों को मणिपुर दरबार की ओर से उन्हें खेती के लिये दिया गया, वो एक दिन उनकी अपनी मियादी जमीन होगी और वे सब पट्टेदार किसान का सम्मान हासिल कर सकेंगे।  

खेमचंद के साथ आज उनकी तीसरी पीढ़ी अपनी जमीन और अपने जमीर की प्रतीक्षा में है। खेमचंद और उसका परिवार मणिपुर के उन लाखों भूमिहीनों की एक इकाई है – जिसके सपने स्वाधीनता के सात दशकों के बाद लगभग दम तोड़ने को है।

भारत सरकार द्वारा सम्पादित जनगणना (2011) की रिपोर्ट कहती है कि मणिपुर के लगभग 71 फीसदी लोगों के पास अपनी जमीनों का अधिकार अर्थात वैधानिक पट्टा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि वे बरसों से अपने आजीविका के लिये निर्भर जमीनों के अधिकारी नहीं हैं और सरकार कभी भी उन्हें बेदखल कर सकती है। 

इसका अर्थ यह भी है कि अपनी ही जमीनों पर वे आज भी जड़हीन घोषित हैं और किसान होने के सम्मान से वंचित हैं। 

वर्ष 1949 में मणिपुर के भारतीय गणराज्य में केंद्र शासित निकाय बनने के लगभग 10 बरसों के बाद वर्ष 1960 में ‘मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार कानून’ का मूल प्रारूप तत्कालीन भारत सरकार द्वारा लागू किया गया। 

आश्चर्य है कि मणिपुर के लिये भूमि सुधार कानून बनाने वाली 30 सदस्यीय समिति में ही मणिपुर की अपनी भूमि से केवल 11 (अर्थात एक तिहाई) सदस्य थे, इसलिये सुरजीत सहित अधिकांश भूमि अधिकार कार्यकर्ता इसे एक अपूर्ण कानून मानते हैं। 

सांस्कृतिक और भौगौलिक पहचान के तर्कों के आधार पर ‘मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार कानून -1960’ की वैधानिक परिधि केवल घाटी के जिलों तक सीमित रखी गई और पहाड़ी क्षेत्रों में भूमि और वन के परंपरागत प्रथाओं को मान्यता दी गयी। 

बाद के बरसों में घाटी और पहाड़ी दोनों ही क्षेत्रों में जनसंख्या का दबाव बढ़ा और भूमि संबंधी विवाद बढ़ते चले गये।  धीरे धीरे भूमि प्रशासन और अदालतों से लोगों की उम्मीदें समय के साथ समाप्त होती गयीं।  

मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार कानून (1960) के धारा 14, 15 और 141 के अंतर्गत भूमिहीनों को अधिशेष भूमि के आबंटन की वकालत की गयी, लेकिन 1960 के बाद के बरसों में राजस्व विभाग इसे लागू करने प्रशासनिक ताकत जुटा नहीं पायी।

इस कानून के दायरे में राजस्व विभाग को यह दायित्व भी दिया गया कि यदि कोई भूमिहीन लगातार 12 बरसों तक अधिशेष भूमि पर आजीविका के लिये खेती करता है तो उसे आवश्यकता और प्राथमिकता के आधार पर भूमि आबंटन किया जायेगा। 

मणिपुर के भूमिहीनों के विरुद्ध यह प्रशासनिक नाकामी और राजनैतिक विश्वासघातों का ही परिणाम रहा कि सात दशकों में भूमिहीनता बढ़ते-बढ़ते लगभग 71 प्रतिशत हो गयी।   

मणिपुर के समकालीन इतिहास में घाटी के क्षेत्रों में भूमि वितरण अथवा पहाड़ी क्षेत्रों में वनभूमि के नियमितीकरण का कभी कोई सार्थक प्रयास किया ही नहीं गया।

मणिपुर के एक भूमि विशेषज्ञ और वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं कि वर्ष 1960 से ही मणिपुर का राजस्व प्रशासन सोया है – और भूमि वितरण ही नहीं, बल्कि नामान्तरण, सीमांकन, काश्तकारी आदि के भी अनगिनत प्रकरण दशकों से लंबित पडे हैं।

राजस्व विभाग की प्रशासनिक अक्षमता और भूमि सुधारों को लेकर राजनैतिक मौन ने मणिपुर को आज असुरक्षा के एक ऐसे काल में खड़ा कर दिया है – जहां से हिंसात्मक अराजकता शुरू होता है।    

फरवरी 2022 में मणिपुर सरकार द्वारा जब वांगो काइराप गांव के खेमचंद को अपने पुरखों की जमीन से बेदखली का सरकारी फरमान मिला तो उनके जैसे हजारों गरीब भूमिहीनों को असुरक्षा की विषमता ने घेर लिया। 

खेमचंद अपना दर्द बयां करते हुए कहते हैं कि एक ऐसे राज्य में जहां भूमि आधारित किसानी के अलावा आजीविका का कोई दूसरा विकल्प ही न हो, वहां इस तरह के फरमानों ने लाखों भूमिहीनों को यह मानने पर मजबूर कर दिया कि – स्वाधीनता के सात दशकों के बाद भी उनकी हैसियत जड़हीन परायों जैसी है।

जहां सरकारी नाकामियों के चलते उनका भूमिहीन रह जाना एक ऐसा अपराध घोषित कर दिया गया, जिसकी सजा आज हिंसा से झुलसा हर इंसान भुगत रहा है। 

मणिपुर, भारत के उन चुनिन्दा कृषि प्रधान राज्यों में है। जहां किसानों और कृषि जमीन की सुरक्षा के लिये वर्ष 2014 में ‘धान योग्य कृषि भूमि संरक्षण कानून’ लागू किया गया, लेकिन विगत एक दशक के ही भीतर लगभग 8 हजार एकड़ कृषि भूमि – गैर कृषि कार्यों के लिये हस्तांतरित हुई है।  

एक ऐसे राज्य जहां 71 प्रतिशत लोगों के भूमिहीन होने के बावजूद भी यदि भूमि आबंटन के बजाए कृषि भूमि का अवैधानिक हस्तांतरण जारी हो, वहां किसान असुरक्षित ही नहीं बल्कि एक दिन आजीविका-विहीन भी हो सकते हैं। और बाद के बरसों में ठीक यही हुआ भी। 

बहरहाल, मई 2023 से जारी हिंसा के चलते खेमचंद और उसके जैसे हजारों किसान इस बरस धान नहीं उगा सके। किसानों के अधिकारों के लिये कार्य करने वाले वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता मुतुम चूड़ामणि मैतैई कहते हैं कि लगभग 30 हजार एकड़ जमीन में खरीफ फसल नहीं ली जा सकी, जिसका विपरीत प्रभाव उन हजारों परिवारों पर हुआ जिनके पास आज पेट भरने को अनाज नहीं है। 

यही नहीं हिंसा के चलते पशुधन पर आधारित आजीविका वाले हजारों परिवार भी संकट का सामना कर रहे हैं। खेमचंद और उसके गांव के लगभग 78 परिवार आज लगभग 9 महीनों से राहत शिविरों में मिलने वाले अन्नदान पर जिन्दा हैं। 

मणिपुर में किसानों के अधिकारों के लिये संघर्षरत चूड़ामणि कहते हैं कि हजारों स्वाभिमानी खेतिहर किसान आज राहत शिविरों में आधे-अधूरे सरकारी रहमोकरम पर जिन्दा हैं।

वर्तमान में हिंसा से विस्थापित हजारों लोग, आज जिस असुरक्षा के दुश्चक्र से घिरे हैं – उसके समाधानों का मार्ग वास्तव में भूमि और कृषि सुधारों से हो कर जाता है। जारी हिंसा के दौर में आसन्न अनाज संकट के चौखट पर खड़े मणिपुर के बहुसंख्यक किसानों का दर्द, राजनैतिक उलझनों में कहीं दम तोड़ रहा है।  

चुराचांदपुर की वरोनिका कहती हैं कि मणिपुर के भूमिहीन-किसान और आदिवासी समुदाय के लोग वास्तव में वर्ष 2020 के महामारी के दौरान भी इतने असुरक्षित नहीं थे,  जितने कि आज हैं।

वांगो काइराप गांव के खेमचंद महीनों से जारी हिंसा को, उस ढांचागत हिंसा का महज एक हिस्सा भर मानते हैं – जिसके चलते मणिपुर के लाखों भूमिहीनों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी अभिशप्त भूमिहीन रह गयी।  

राहत शिविरों के सन्नाटों में कैद इन हजारों भूमिहीनों का दंश केवल यह नहीं कि उन्हें अब भी अपने पुरखों के कमाये हुये खेतों का अधिकार नहीं मिला, बल्कि उनका दुखांत यह भी है कि भूमि और कृषि सुधार, आज भी राजनैतिक प्राथमिकताओं और प्रतिबद्धताओं में कहीं नहीं हैं।

वास्तव में यही हिंसा का अग्निबीज है। प्रश्न शेष है कि सरकार और समाज इसका समाधान चाहते हैं या नहीं – खेमचंद सहित लाखों भूमिहीनों को आज इस सवाल के तत्काल उत्तर सहित स्वाधीनता के अमृतकाल में अपने जमीन – अपने जमीर की प्रतीक्षा है।    

(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के महासचिव हैं, लेख में व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं)

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