“मरी हुई गायों को घसीटकर ट्रकों में लादा जा रहा है और रोड से होकर हड्डा रोड़ी (वह जगह जहां मृत जानवरों को फेंका जाता है) या गांव के नजदीक की खाली जमीन में डम्प करने के लिए ले जाया जा रहा है। हड्डा रोड़ी में पहले से ही मृत मवेशियों का अंबार लगा हुआ है। ट्रक मृत गाय को फेंककर लौटते हैं और दोबारा मृत गायों को लोड किया जाने लगता है।” राजस्थान के मलकीसर गांव के बबलू गोदारा ने लम्पी महामारी का आंखों देखा हाल बताते यह जानकारी दी। उन्होंने आगे बताया कि कुछ महीने पहले जब गायों के शरीर में गांठें उभरने लगी थीं और बुखार आने लगा था, तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसे दृश्य देखने को मिलेंगे, लेकिन कुछ हफ्तों के भीतर ही इस बीमारी से ग्रस्त गाय दम तोड़ने लगीं। इसके बाद तो जैसे गायों की मृत्यु यात्रा ही निकलने लगी। हर रोज लगभग एक दर्जन गाय मरने लगीं। विलाप करते हुए बबलू कहते हैं, “हम गाय को मां की तरह मानते हैं। अगर गाय की मृत्यु होती है, तो घर के लोग तब तक निवाला मुंह में नहीं डालते, जब तक उसे दफना नहीं दिया जाता। कई लोग तो मृत्यु के बाद के कर्मकांड के लिए हरिद्वार भी जाते हैं।” बबलू का गांव मलकीसर बीकानेर जिले में है, जो मवेशियों में फैले लम्पी चर्म रोग का केंद्र बिंदु बनकर उभरा है। लम्पी चर्म रोग एक वायरल संक्रमण है जो गाय-भैंस को चपेट में लेता है। इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। लक्षण दिखने पर बीमारी का प्रबंधन किया जा सकता है और अगर मवेशी तंदुरुस्त हो, तो इस बीमारी से पार पा सकता है। बबलू गोदारा की बहन पूजा गोदारा कहती हैं, “जुलाई-अगस्त में जब बीमारी अपने चरम थी, तो इतनी ज्यादा फैल गई थी कि मृत गायों को हड्डा रोड़ी तक ले जाने के लिए वाहन तक नहीं मिल रहा था। एक ट्रैक्टर वाला 300 रुपए प्रति किलोमीटर की दर से प्रति मवेशी शवों को ढोने के लिए तैयार हुआ।” गोदारा परिवार ने इस बीमारी से अगस्त में 17 मवेशियों को खो दिया।
लम्पी चर्मरोग का वायरस पॉक्स वायरस है, जो शीप पॉक्स व गॉट पोक्स वायरस की प्रजाति से ताल्लुक रखता है। यह वायरस मच्छर, मक्खी और टिक जैसे खून चूसने वाले कीटाणु के जरिए व साथ ही साथ लार व गंदे पानी और भोजन के जरिए फैलता है। इस बीमारी के लक्षण के रूप में पूरे शरीर पर व खासकर माथा, गर्दन, थन और लिंगों पर दो से पांच सेंटीमीटर के आकार की गाठें उभर आती हैं। ये गांठ बड़े और गहरे जख्म में बदल जाती हैं। यह वायरस रुग्णता का भी कारण बनता है। यह तेजी से फैलता है। भारत में लम्पी बीमारी का पहला मामला साल 2019 में ओडिशा में सामने आया था और महज 16 महीनों के भीतर 15 राज्यों में फैल गया (देखें, देशव्यापी फैलाव, पेज 42)। लेकिन, लम्पी बीमारी की जो ताजा लहर अप्रैल-महीने में शुरू हुई, वह इतनी घातक है कि इसकी मृत्यु दर भी रुग्णता दर जितनी ही है। केंद्रीय मत्स्य, पशुपालन व डेयरी मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 23 सितम्बर तक इस बीमारी से देश के 16 राज्यों के 251 जिलों में कुल एक लाख मवेशियों की मृत्यु हो चुकी है और 20 लाख मवेशी संक्रमित हुए हैं।
इस साल लम्पी बीमारी से मौत का आंकड़ा पिछले साल मवेशियों में फैली तीन बीमारियों से हुई मौत से 20 गुना अधिक है। पिछले साल मुंहपका-खुरपका बीमारी से 4,881, गलाघोटू से 98 और एंथ्रॉक्स से 84 मवेशियों की मृत्यु हुई थी। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर), दिल्ली के पशु विज्ञान के डिप्टी डायरेक्टर जनरल भूपेंद्र नाथ त्रिपाठी कहते हैं, “पूर्व में सिर्फ पशु महामारी रिंडरपेस्ट ने ऐसी तबाही मचाई थी। पूरी दुनिया से इस बीमारी का उन्मूलन साल 2011 में ही कर दिया गया।”
रोकथाम के लिए वैक्सीन
यूं तो लम्पी बीमारी का कोई इलाज नहीं है, लेकिन इसे रोकने के लिए वैक्सीन है, जिनका इस्तेमाल राज्य सरकारें कर रही हैं। फिलवक्त, मवेशियों को इस रोग के संक्रमण से बचाने के लिए गॉट पॉक्स वैक्सीन का इस्तेमाल हो रहा है। इस साल अगस्त में आईसीएआर ने इस बीमारी के लिए एक स्वदेशी वैक्सीन की घोषणा की, जिसके प्रयोग की अनुमति तो मिल चुकी है, मगर उत्पादन शुरू होना बाकी है। दूसरी तरफ, ये संकेत भी मिल रहे हैं कि अभी जिस वायरस ने तबाही मचाई है, उसने अपना स्वरूप बदल लिया होगा।
हरियाणा के हिसार स्थित आईसीएआर के राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र में प्रधान विज्ञानी नवीन बताते, “पॉक्सवायरस का जीनोम काफी बड़ा है। जिस सार्स-सीओवी2 वायरस से कोविड-19 फैला था, उसमें 30,000 न्यूक्लियोटाइड (डीएनए के बिल्डिंग ब्लॉक्स) हैं, जबकि पॉक्सवायरस में 1,51,000 न्यूक्लियोटाइड हैं।” उन्होंने कहा कि जब जेनेटिक म्यूटेशन होता है, तो हर स्ट्रेन एक-दूसरे से अलग होता है, मगर सीरोलॉजिकली वे एक-दूसरे को क्रॉसचेक करते रहते हैं। वह कहते हैं, “कुछ स्ट्रेन कठोर रूप से रोगजनक होते हैं, कुछ हल्के लक्षण वाले होते हैं और कुछ घातक रोगजनक हो सकते हैं। समय के साथ जीनोम में हो रहे बदलाव को लेकर आईसीएआर साल 2019, 2021 और 2022 के वायरल स्ट्रेन का अनुक्रमण कर रहा है ताकि अनुवांशिक बदलावों की सटीक जानकारी मिल सके। लेकिन, उच्च रोगजनक के लिए कौन सा स्ट्रेन जिम्मेदार है, यह पता लगा पाना कठिन है।”
इस साल लम्पी से प्रभावित होने वाले मवेशियों में नई कठिनाइयों के लिए अनुवांशिक बदलाव जिम्मेदार हो सकते हैं। मिसाल के लिए, बीकानेर जिले के पिंपेरम गांव के निवासी प्रभुनाथ कहते हैं कि उनकी एक गाय लम्पी चर्मरोग के कुछ दिन बाद अंधी हो गई। अंधापन गाय के स्वास्थ्य पर असर डालता है क्योंकि इसकी वजह से गाय ठीक से खा नहीं पाती। कम से कम तीन डॉक्टरों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उन्होंने लम्पी रोग के बाद मवेशियों में अंधापन के कई मामले देखे, लेकिन वे पुष्टि नहीं कर सकते कि किस वजह से ऐसा हुआ क्योंकि इस बीमारी से जुड़े साहित्य में इस असर के बारे में कोई जिक्र नहीं मिलता। भूपेंद्र नाथ त्रिपाठी कहते हैं, “कॉर्नियल ओपेसिटी के चलते अंधापन हो सकता है। कुछ मामले सामने आए तो हैं लेकिन हमारे पास इसको लेकर पर्याप्त आंकड़ा नहीं है।”
सितंबर के आखिरी हफ्ते में डाउन टू अर्थ ने लम्पी से सबसे ज्यादा ग्रस्त राजस्थान के तीन जिलों के छह गांवों का दौरा किया। 23 सितंबर तक भारत में लम्पी बीमारी से कुल 97,435 मवेशियों की मृत्यु हुई, जिनमें से सिर्फ राजस्थान में 64,311 मवेशियों की जान गई। पशुधन की आबादी मामले में राजस्थान दूसरे स्थान और मवेशियों के मामले में छठे स्थान पर है। लम्पी से कुल 20 लाख पशु ग्रसित हुए, जिनमें से 14 लाख पशु सिर्फ राजस्थान में थे, जबकि पंजाब में 1.7 लाख और गुजरात में 1.6 लाख पशु लम्पी रोग से संक्रमित हुए। लम्पी रोग के फैलाव को रोकने के लिए इससे संक्रमित पशुओं को क्वारंटीन में रखना चाहिए। जब लम्पी रोग का संक्रमण शुरू हुआ तो प्रभावित क्षेत्रों में तैनात पशुपालन विभाग के अधिकारी और पशु रोग चिकित्सकों ने लोगों को यही सलाह दी। मगर, जिन छह गांवों का दौरा डाउन टू अर्थ ने किया, वहां पाया कि ज्यादातर लोगों के पास पर्याप्त जगह नहीं है कि वे संक्रमित और स्वस्थ मवेशियों को अलग-अलग रखते। कुछ मामलों में देखा कि एक बाड़े में पांच से छह मवेशियों को एक साथ बांधकर रखा गया है।
राजस्थान के ज्यादातर किसानों की अर्थव्यवस्था पशुधन पर निर्भर करती है। लम्पी से मवेशियों की मृत्यु ने इन परिवारों को बड़ा आर्थिक नुकसान पहुंचाया है। गंगानगर जिले के दौलतपुरा गांव के इकबाल सिंह और उनकी पत्नी हरपिंदर कौर की होलस्टेन-फ्रिजियन गाय अगस्त में लम्पी बीमारी की भेंट चढ़ गईं। उनके पास दूध देने वाली ये इकलौती मवेशी थी और उनकी कमाई का मुख्य जरिया भी। इकबाल सिंह कहते हैं, “पिछले साल हमने 55,000 रुपए में यह गाय खरीदी थी और अभी बाजार में इसकी कीमत 80,000 रुपए है। गाय स्वस्थ थी और दोनों वक्त मिलाकर 10-11 लीटर दूध देती थी। वह बछड़े को जन्म देने ही वाली थी कि लम्पी रोग हो गया और संक्रमण से उसकी मौत हो गई।” उनकी कमाई का दूसरा जरिया कपास की खेती है, लेकिन सितंबर में वाइटफ्लाई के हमले से कपास पर भी बुरा असर पड़ा। सभी तीन जिलों में डाउन टू अर्थ ने पाया कि मरने वाली ज्यादातर गाय गर्भवती थीं या ज्यादा दूध देने वाली थीं।
यूएन खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) ने साल 2012 की एक रिपोर्ट में बताया है कि जो गाय अधिक दूध देती हैं, उन पर लम्पी रोग का गहरा असर पड़ता है। जिन 6 जिलों का डाउन टू अर्थ ने दौरा किया, वहां के किसानों ने बताया कि लम्पी रोग से उभर चुके मवेशियों में दूध निकलना कम हो गया है। कुछ मामलों में मवेशी काफी दुर्बल भी हो गए हैं। लालरी का मामला ऐसा ही है। लालरी एक गाय है, जिसे यह नाम उसके शरीर पर चढ़े लाल रंग के कारण दिया गया है। इसकी मालकिन बीकानेर जिले के लूनकरनसर तालुका के 1 एलकेडी (लूनकरनसर डिस्ट्रिब्यूटरी) गांव की रहने वाली लक्ष्मी देवी हैं। जुलाई में लक्ष्मी ने देखा कि लालरी गाय के पैरों में सूजन आ गई है और एक दिन के भीतर ही उसका शरीर लम्पी रोग में होने वाली गाठों से भर गया। स्थानीय पशु चिकित्सक ने लालरी को अलग-थलग रखने की सलाह दी। चूंकि लक्ष्मी देवी के पास पर्याप्त जगह नहीं है, तो वह लालरी को अन्य गाय से महज 6 मीटर दूर ही रख पाईं। इसके बाद अगले पांच दिनों में अन्य दो गायों के शरीर पर भी गाठें पड़ने लगीं। लक्ष्मी देवी कहती हैं, “शरीर में गांठें पड़ने से एक दिन पहले तक लालरी बिल्कुल ठीक थी। फिर अचानक वह बीमार पड़ गई और दूध देना बंद कर दिया।” उनके परिवार में पांच सदस्य हैं और सभी की रोजीरोटी पशुपालन पर ही आश्रित है। उनके पास 13 गाय हैं, जिनमें से चार वायरस के हमले से पहले रोजाना 40 लीटर दूध दिया करती थी। दूध से उन्हें रोजाना 1,400 रुपए की कमाई हो जाया करती थी। लेकिन अब दूध उत्पादन प्रतिदिन 33 लीटर घट गया है। इससे उन्हें रोजाना सीधे 1,155 रुपए का नुकसान हो रहा है। फिलहाल केवल दो गाय सात लीटर दूध रोजाना देती है। लालरी का वजन 100 किलोग्राम घट गया है और वह इतनी कमजोर हो गई है कि खड़े होने के लिए भी सहारे की जरूरत पड़ती है। एफएओ भी कहता है कि बीमारी के संक्रमण के बाद छह महीने तक मवेशी दुर्बल हो सकता है, जिसमें उसकी दूध देने की क्षमता घट जाती है क्योंकि मुंह में जख्म के चलते मवेशी कम भोजन लेते हैं। देसी गाय में दूध का उत्पादन 26 से 42 प्रतिशत तक और विदेशी नस्ल की गाय में 50 प्रतिशत तक कम हो सकता है।
पशुपालकों की दूसरी चिंता मवेशियों के शरीर पर रह जाने वाले जख्मों के निशानों को लेकर है। किसान दूध या चमड़े के लिए बीमारी से उभर चुके मवेशी बेचने जाते हैं तो, जख्मों के निशान के कारण कम कीमत मिलती है। एफएओ की साल 2020 की रिपोर्ट जिसमें दक्षिण, पूर्वी और दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देशों में लम्पी रोग से हुए आर्थिक नुकसान का आकलन किया गया है, कहती है कि विदेशी बीमारी की शिनाख्त होने से व्यापार पर असर हो सकता है। रिपोर्ट कहती है, “एशिया ने 2017 में 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के गाय व भैंसों के मीट व मीट उत्पाद, डेयरी उत्पाद व चमड़े का निर्यात किया।”
दोहरा खतरा
भारत में लम्पी का कहर ऐसे समय में शुरू हुआ, जब अफ्रीकी स्वाइन फीवर (एएसएफ) मवेशियों को चपेट में ले रहा था। एएसएफ बहुत तेजी से फैलने वाला वायरल संक्रमण है, जो घरेलू व जंगली सूअर को निशाना बनाता है और इस बीमारी की मृत्यु दर 100 प्रतिशत है। सबसे पहले इस बीमारी का विस्फोट साल 1921 में केन्या में हुआ था और इसके बाद यह यूरोप, रूस, चीन व म्यांमार में फैल गया। भारत में इससे जुड़ा पहला मामला 2020 में सामने आया। वैश्विक स्तर पर पशुओं में होने वाली बीमारियों को लेकर सूचना एकत्रित करने व पशु स्वास्थ्य में सुधार पर पारदर्शी तरीके से काम करने के लिए साल 1924 में एक अंतरसरकारी संगठन वर्ल्ड ऑर्गनाइजेश फॉर एनिमल हेल्थ (ओआईई) की स्थापना की गई थी। इस संगठन ने अपनी रिपोर्ट में भारत में एएसएफ का पहला मामला साल 2020 के शुरू में असम में सामने आने की जानकारी दी। एफएओ की रिपोर्ट “अफ्रीकन स्वाइन फीवर सिचुएशन अपडेट इन एिशया एंड पैसिफिक” के मुताबिक, तब से अब तक 17 अन्य राज्यों में यह बीमारी फैल चुकी है।
एएसएफ सॉफ्ट टिक के जरिए फैलता है और देखते ही देखते सूअरों की पूरी आबादी को अपनी जद में ले लेता है। इसका कोई इलाज नहीं है और न इसे रोकने के लिए कोई वैक्सीन है। इस बीमारी को नियंत्रित करने का एक ही उपाय है कि इससे संक्रमित और संक्रमित सूअर के संपर्क में आए सूअरों को मारकर चूना के साथ गहरे गड्ढे में दफ्न कर दें।
भूपेंद्र नाथ त्रिपाठी कहते हैं, “लम्पी चर्मरोग और एएसएफ अपने पैर भारत में जमा चुके हैं। हम अब और नई बीमारी नहीं झेल सकते।” पशुओं में होने वाले रोगों की निगरानी करने वाली बंगलुरू की संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वेटरिनरी एपिडेमिलॉजी इन्फॉर्मेटिक्स (एनआईवीईडीआई) ने पशुधन को होने वाले 13 प्राथमिक रोगों की शिनाख्त की है, लेकिन लम्पी और एएसएफ अभी इस सूची में शामिल नहीं हुई है। सूची में शामिल 13 बीमारियां तेजी से फैलती है और इनकी मृत्यु दर अधिक है। भारत के लिए ये बीमारियां स्थानिक बन चुकी हैं। हालांकि इनमें से अधिकतर बीमारियों का इलाज और वैक्सीन मौजूद है, लेकिन फिर भी भारत में खत्म नहीं हुई हैं। इससे देश के वैक्सीन कार्यक्रम की क्षमता पर भी सवाल उठ रहे हैं। आईसीएआर के तहत काम करने वाली हैदराबाद की संस्था नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च मैनेजमेंट के साल 2012 के एक अध्ययन में किसानों ने बताया कि वैक्सीन के बावजूद मुंहपका और खुरपका रोग हो रहे हैं।
एनआईवीईडीआई द्वारा साल 2027 का अनुमानित आकलन पेश कर बताया गया है कि आने वाले सालों में पशुधन में होने वाली कम से कम छह बीमारियों का ग्राफ ऊपर जाएगा, जिनमें से चार रोग परजीवी से फैलते हैं। ये छह बीमारियां छेरा रोग (परजीवी संक्रमण जिसे सामान्य लिवर फ्लक भी कहा जाता है, इससे पित्त वाहिका और पित्ताशय में सूजन होता है), थेलेरिओसिस (यह टिक-जनित परजीवी संक्रमण है, जो जिससे बुखार होता है और लसिका ग्रंथी बड़ी हो जाती है), ट्राइपेनोसोमिआसिस (एक परजीवी संक्रमण जिससे एनिमिया और लसिका ग्रंथी बड़ी हो जाती है), बेबेसियोसिस (एक टिकजनित परजीवी बीमारी जिससे लाल रक्त कोशिकाओं में जानलेवा संक्रमण होता है), एंटरोटोक्सेमिया या ओवरइटिंग बीमारी (बैक्टीरिया जनित बीमारी जिसका संक्रमण डायरिया, बेहोशी या अचानक मृत्यु का कारण बनता है) और पेस्ट डेस पेटिट्स रूमिनेंट्स या पीपीआर (एक वायरल बीमारी जिससे बकरियों व भेड़ों में बुखार, निमोनिया और कभी कभार मौत भी हो जाती है) हैं।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार
लाइवस्टॉक (पशुधन) शब्द “लाइव” (जीवित रहने) और “स्टॉक” (माल या इस मामले में फार्म की चल संपत्ति) से मिलकर बना है। इसमें घरेलू नस्ल के पशु जैसे गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, मुर्गी, सूअर और याक शामिल हैं। साल 2019 की पशुधन जनगणना के मुताबिक, भारत में कुल 5,367.6 लाख पशुधन है और साल 2019-20 में इस सेक्टर ने कुल 4.35 प्रतिशत का सकल मूल्य जोड़ा। सच तो यह है कि दुनियाभर में सबसे अधिक 3,030 लाख गाय भारत में हैं। गरीब किसानों के लिए ये जिंदगी का आधार है। अल्प वर्षा या शुष्क इलाकों में मवेशी संबल का काम करता है क्योंकि खेती के मुकाबले मवेशी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को अपनाने में लचीला होते हैं। मध्यम व बड़े किसानों के मुकाबले छोटे व सीमांत किसान जिनके पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है, ज्यादातर पशुपालन करते हैं।
नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) की रिपोर्ट “सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल हाउसहोल्ड्स एंड लैंड एंड लाइवस्टॉक होल्डिंग्स ऑफ हाउसहोल्ड्स इन रूरल इंडिया 2019” के मुताबिक, 0.01 हेक्टेयर जमीन वाले 10.9 प्रतिशत किसान पशुपालन से जुड़े हुए हैं, जबकि 4-10 हेक्टेयर जमीन वाले महज 1.2 प्रतिशत और 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन वाले सिर्फ 0.8 प्रतिशत किसान पशुपालन कर रहे हैं। सीमांत किसान भी पशुपालन से होने वाली कमाई पर ही ज्यादा निर्भर हैं। एनएसओ सर्वेक्षण से पता चलता है कि किसान परिवार समूह के लिए पशुपालन आय का स्थायी स्त्रोत है और उनकी मासिक कमाई का 15 प्रतिशत हिस्सा पशुपालन से आता है। 0.01 हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों की मासिक आमदनी में पशुपालन की भागीदारी फसल उत्पादन के मुकाबले ज्यादा है (देखें, आजीविका का साधन)।
कमेटी ऑन डबलिंग फार्मर्स इनकम डेयरी, पशुपालन, मुर्गीपालन, मत्स्य पालन और बागवानी को उच्च वृद्धि का माध्यम मानती है और इन पर केंद्रित नीति बनाने की अनुशंसा करती है। अनुषांगिक क्षेत्रों के बढ़ते महत्व को पहचानते हुए अप्रैल 2016 में यह अंतर्मंत्रालय कमेटी बनाई गई थी। इस सेक्टर में 2014-15 और 2019-20 में 8.15 प्रतिशत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से विकास हुआ है, लेकिन विकसित देशों के मुकाबले भारत में पशुपालन सेक्टर की उत्पादकता कम है। इसकी मुख्य वजहों में एक बीमारियों के चलते पशुधन के स्वास्थ्य में गिरावट है।
हालांकि, पशुधन में बीमारियों से हुए आर्थिक नुकसान को लेकर कोई एकमुश्त आंकड़ा नहीं है, लेकिन आईसीएआर के अध्ययन में चार मुख्य बीमारियों– पेस्ट डेस पेटिट्स रूमिनेंट्स, मुंहपका-खुरपका रोग, हैमोरेजिक सेप्टिसेमिया और ब्रुसेलोसिस के एकमुश्त हमले से एक साल में 56,000 करोड़ रुपए के नुकसान का संकेत मिलता है। इस नुकसान में लम्पी बीमारी और अफ्रीकी स्वाइन फीवर से हुए आर्थिक नुकसान को जोड़ दें। इस हिसाब किताब के अनुसार, लम्पी बीमारी से एक लाख मवेशियों की मौत से सीधे 500 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ होगा। भूपेंद्र नाथ त्रिपाठी कहते हैं कि अगर अवसर लागत के नुकसान का भी हिसाब किया जाए, मसलन गाय की मौत से दूध का नुकसान, बीमारी से उबर चुकी गाय में दूध की कमी, गर्भधारण में देरी, शरीर के वजन में गिरावट, गर्भवती गाय का गर्भपात और बांझपन आदि के नुकसान भी जोड़ लिया जाए तो लम्पी बीमारी से अब तक लगभग 2,000 करोड़ का नुकसान हुआ होगा। यह आकलन भी असल नुकसान से कम ही है।
रोग की गतिशीलता
मानव इतिहास का सबसे खतरनाक रोगजनक चुपके से अलग रूप में विकसित हो चुका है। खासकर पशुधन में होने वाली बीमारियों को लेकर ऐसा ही हुआ है क्योंकि मवेशियों की बीमारियों का प्रायः इलाज नहीं होता। हाल के वर्षों में विज्ञानियों ने बीमारी की गतिशीलता में तेज बदलाव देखे हैं जिसमें नए और पुराने रोगजनकों का उभरना और पूर्व में इनसे अछूते रहे क्षेत्रों में फैलना जारी है।
केन्या के नैरोबी स्थित इंटरनेशनल लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएलआरआई) के दक्षिण एशिया के क्षेत्रिय प्रतिनिधि हबीबुर रहमान ने डाउन टू अर्थ को बताया कि अलग-अलग देशों में पशु रोगों के उभार की वजहों में एक वजह उन देशों के साथ असंगठित व अवैध व्यापार है, जहां पहले से ही ये बीमारियां फैली हुई हैं। सूअरों में होने वाली पॉरसिन रिप्रोडक्टिव एंड रेस्परिरेटरी सिंड्रोम नाम की वायरल बीमारी साल 2013 में भारत में चीन व म्यांमार से पूर्वोत्तर की खुली सीमा के जरिए आई। इस बीमारी पर हालांकि नियंत्रण कर लिया गया था। लेकिन, जल्द ही एएसएफ भी इसी तरह आ गया। रहमान आगाह करते हैं कि ऊंटों में होने वाली जानलेवा बीमारी मिडिल ईस्टर्न रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (एमईआरएस) पाकिस्तान में पहुंच चुकी है और यह भारत में भी प्रवेश कर सकती है क्योंकि राजस्थान और गुजरात की सीमा पाकिस्तान से लगती है तथा इन राज्यों में ऊंटों की आबादी अधिक है। इसके अलावा बारिश की प्रवृत्ति में बदलाव, बार-बार बाढ़ व सूखा तथा गर्म दुनिया में तीव्र हीटवेव संक्रामक बीमारियों के संक्रमण को प्रभावित करते हैं। शोध व विकास संगठन इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर (सीआईएटी) ने साल 2014 में यूएन फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज को अलग-अलग जलवायु बदलाव में खेती के जोखिम का मूल्यांकन पेश किया। संगठन ने पशुधन में बीमारियों के वाहक को समझने के लिए 54 अफ्रीकी देशों के वेटेरिनरी अथॉरिटी का सर्वेक्षण किया और पाया कि बीमारी की गतिशीलता में जलवायु परिवर्तन की बड़ी भूमिका है और अन्य वजहों में पशु उत्पाद का व्यापार, मानव आबादी में इजाफा और पशुधन में तीव्रता शामिल हैं।
मौजूदा जानकारियों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन दो तरीके से पशुधन में बीमारियों को प्रभावित करता है। एक हीट स्ट्रेस है जो सीधे प्रभावित करता है और दूसरा अप्रत्यक्ष तरीका चरम मौसमी गतिविधियां और उसका प्रभाव हैं, जिनका असर बीमारियां फैलाने वाले रोगजनक और वेक्टर पर पड़ता है। मई 2020 में ओपेन वेटरिनरी जर्नल में छपे एक शोध पत्र में बांग्लादेश के ढाका में स्थित स्वायत्त सरकारी शोध केंद्र बांग्लादेश लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट ने लिखा, “सभी पशुओं में थर्मल कम्फर्ट जोन होता है जो उनके लिए फायदेमंद होते हैं। जब वायुमंडलीय तापमान अधिकतम स्तर पर पहुंचता है, तो पशुधन में हीट स्ट्रेस, चयापचय में असंतुलन और रोग प्रतिरोध में गिरावट आती है, जिसके परिणामस्वरूप बीमारियों और मृत्यु की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। शोधकर्ता लिखते हैं, हीट स्ट्रेस के दीर्घकालिक प्रभाव से मुर्गियों व बछड़ों में खराब रोग प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया दिखती है, वैक्सीन के असर को नुकसान पहुंचता है और बैक्टीरिया से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले न्यूट्रिफिल्स की कार्यक्रम प्रणाली को क्षति पहुंचती है। प्रतिरक्षा दमन संक्रमण के संभावना को तेज करता है जिसके परिणामस्वरूप एंटीमाइक्रोबियल के इस्तेमाल और एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध में इजाफा होता है।
अध्ययनों से यह मालूम चलता है कि गर्मियों में स्तन में सूजन के मामले बढ़ जाते हैं और इसका संबंध हीट स्ट्रेस से है। राजस्थान यूनिवर्सिटी के वेटरिनरी एंड एनिमल साइंसेज के बीछवाल स्थित लाइवस्टॉक रिसर्च स्टेशन में पशु चिकित्सक जितेंदर कहते हैं, “बारिश में इजाफा और आर्द्रता में बढ़ोतरी के साथ कुछ वर्षों से हीट स्ट्रेस निश्चित तौर पर बढ़ रहा है। एक गाय का सामान्य तापमान 102.5 डिग्री फारेनहाइट होता है। लेकिन, हमने उनका तापमान 107 डिग्री और 109 डिग्री फारेनहाइट देखा है, जिसमें थर्मामीटर तापमान दिखाना बंद कर देता है।” वह आगे कहते हैं कि उमस की वजह से भी जानवरों के शरीर से गर्मी नहीं निकल पाती है, इसलिए गायों के रहने की जगह पर्याप्त वेंटिलेशन की आवश्यकता होती है। पशु ऐसी चरम स्थितियों में नहीं बच पाते हैं।
वेक्टर कारक
जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभाव स्पष्ट तौर पर परिलक्षित नहीं होते हैं लेकिन पशुधन में रोगों के संक्रमण में इनसे भारी असर पड़ता है। मसलन चारागाह वाले क्षेत्रों में लगातार सूखे से पशुपालक पशुओं को चराने के लिए लम्बी दूरी तय करते हैं, जिससे दूर के इलाकों के मवेशियों में नई बीमारी के फैलने का खतरा रहता है। तापमान में इजाफा, तीव्र वर्षण, बाढ़ और आर्द्रता भी रोगजनक या वेक्टर की चयापचय प्रक्रिया, प्रजनन दर बढ़ा सकते हैं जिससे बीमारियों का जोखिम बढ़ता है। आईएलआरआई के शोधकर्ताओं ने अफ्रीका के दो पशुधन रोगों रिफ्ट वैली फीवर व टिक-बॉर्न बीमारी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का विश्लेषण किया है। साल 2018 में छपी अपनी किताब द क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर पेपर्स में इन शोधकर्ताओं ने लिखा है कि अफ्रीकी देशों में सामान्य से अधिक वर्षण के बाद रिफ्ट फीवर का विस्फोट हुआ। यह एक मच्छर जनित बीमारी है, जिससे भेड़, बकरियां, गाय, भैंस और ऊंट में गर्भपात और नवजात की मृत्यु बढ़ जाती है। जलवायु परिवर्तन रिफ्ट वैली बुखार के संक्रमण का भौगोलिक दायरा बढ़ सकता है क्योंकि पूर्वी अफ्रीका, सोमालिया, इथोपिया और केन्या में औसत बारिश बढ़ने और दक्षिणी अफ्रीका में घटने की संभावना है। इसी तरह लेख में दुनिया में फैलने वाले कई तरह के पशुधन रोगों को आश्रय देने वाले टिक में बदलाव का भी अनुमान लगाया गया है। लेख में कहा गया है कि अंगोला के पश्चिमी शुष्क क्षेत्रों, कांगो के दक्षिणी हिस्से और नामीबिया में टिक-जनित रोग घटेंगे बशर्ते पूर्व में इन क्षेत्रों का मौसम गर्म और शुष्क रहा हो क्योंकि पहले से ही गर्म रहे क्षेत्र में तापमान की बढ़ोतरी टिक-जनित रोगों के लिए प्रतिकूल होगी। इसके उलट बोट्सवाना के कुछ इलाकों, कांगो के पूर्वी क्षेत्र, दक्षिण अफ्रीका के उत्तरी व पूर्वी केप प्रोविंस तथा जाम्बिया में 2020 के दशक में बीमारी के फैलने के लिए अनुकूल वातावरण बनेगा क्योंकि इन क्षेत्रों में बारिश और न्यूनतम तापमान में इजाफा होगा। उच्च तापमान में संधिपाद प्राणी जैसे टिक नियमित तौर पर खाता है ताकि अपने चयापचय कार्य को बरकरार रख सके। इससे होस्ट के बीच संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। आईएलआरआई की साल 2020 की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि पशुओं में होने वाले 65 रोगों में से 58 रोग जलवायु को लेकर संवेदनशील हैं।
भारत में लम्पी रोग के ताजा कहर में वायरस में म्यूटेशन के अलावा गर्म व आर्द्र मौसम की भी भूमिका हो सकती है। सोहन लाल कहते हैं, “पिछले दो महीनों में राजस्थान में लम्पी बीमारी जंगल की आग की तरह फैली है।” भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, इस साल जुलाई में राजस्थान में 270 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई, जो पिछले सात दशकों में जुलाई के महीने में सबसे अधिक है। जून के आखिरी हफ्ते में बीकानेर में सामान्य से 100 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गई थी, जबकि अगले ही महीने यानी जुलाई के पहले दो हफ्तों में क्रमशः सामान्य से 247 प्रतिशत व 435 प्रतिशत अधिक बारिश हो गई। सामान्य से कई गुना अधिक बारिश का ट्रेंड बीकानेर और अन्य जिलों में अगस्त तक जारी रहा। लाल कहते हैं कि गांवों में तो भारी बारिश के साथ साथ लम्पी बीमारी के केस भी बढ़ने लगे। आवारा मवेशियों में संक्रमण की भी लम्पी रोगों के फैलने में भूमिका हो सकती है। पिछले साल जनवरी में जब लम्पी रोग ने देश को अपने शिकंजे में लेना शुरू किया था, तो डाउन टू अर्थ के पत्रकारों ने कई राज्यों का दौरा कर बीमारी के बारे में जानकारी जुटाई थी। उस दौरे में पत्रकारों ने देखा था कि लम्पी रोग से ग्रस्त राज्यों में आवारा मवेशियों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई थी। भारत में आवारा मवेशियों की आबादी लगभग 50 लाख है और इनमें से 48 प्रतिशत आबादी सिर्फ राजस्थान और उत्तर प्रदेश में है।
बदलते पशुजन्यरोग
पशुधन में बीमारियों का गहरा प्रभाव न केवल पशुओं की सेहत और वैश्विक स्तर पर खाद्य आपूर्ति व अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, बल्कि इसका असर मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। आबादी बढ़ने के चलते कृषि उत्पादों की मांग बढ़ने से कृषि का विस्तार हो रहा है। इस वजह से प्राकृतिक ईकोसिस्टम फार्म व खेतों में तब्दील हो रहा है, जिससे लोगों का अधिक समय मवेशियों व वन्यजीवों के साथ बीतता है। अंदरूनी इलाकों में सूअरों व मुर्गियों के कृत्रिम ठिकाने मानव, पशुधन और वन्यजीवों के वायरसों के घर बन रहे हैं। अन्य पालतु पशु केवल वन्यजीवों से संक्रमण लाकर मानव तक पहुंचाने में पुल का काम कर रहे हैं। वायरस एक बार मानव के शरीर में प्रवेश कर गया, तो ये पशुजन्य रोगजनक बहुत तेजी से पूरी दुनिया में फैल जाते हैं, जिससे घातक महामारी का विस्फोट होता है क्योंकि मनुष्य में इन नई बीमारियों से लड़ने की क्षमता नहीं होती है। यह बात मौजूदा कोविड-19 महामारी में स्पष्ट तौर पर जाहिर हो गया।
कोविड-19 से ठीक पहले यूएन की एक रिपोर्ट सार्वजनिक हुई जिसमें बताया गया है कि पिछले 170 वर्षों में 9 महामारियां पशुधन से मनुष्य में फैलीं और इनमें से छह महामारियां साल 1990 के बाद फैलीं। हाल के दशकों में जूनोटिक बीमारियों के बार-बार विस्फोट की स्पष्ट वजह कृषि का विस्तार है। 6 अक्टूबर को गार्डियन में छपे एक लेख में कहा गया है कि पिछले 50 वर्षों में पॉल्ट्री की वैश्विक आबादी में छह गुना इजाफा होकर 3,600 करोड़ पहुंच गई है। वहीं, सूअरों की संख्या दोगुना बढ़कर 95.26 करोड़ और गायों की संख्या 110 करोड़ से बढ़कर 150 करोड़ पर पहुंच गई है। जून 2019 में नेचर सस्टेनेब्लिटी में “इमर्जिंग ह्युमन, इन्फैक्सियस डिजिजेज एंड द लिंक्स टू ग्लोबल फुड प्रोडक्शन” शीर्षक से आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पशुधन में मौजूद 77 प्रतिशत रोगजनक, वन्यजीव व मनुष्य समेत अन्य जीवों में संक्रमण फैलाने में समर्थ हैं। इससे भी बुरा तो यह है कि जहां समृद्ध देशों में स्थानिक रोगों में गिरावट जारी है, गरीब देशों में यह स्थिर है या पशु स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और वहां बीमारियां फैल रही हैं।
मानव और पशुधन घनत्व में अधिकांश वृद्धि विकासशील देशों में होने की उम्मीद है, जहां रोग निगरानी, कीट नियंत्रण, स्वच्छता और चिकित्सा और पशु चिकित्सा देखभाल सीमित हैं। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा गरीब किसानों को भुगतना पड़ रहा है। आईएलआरआई के हबीबुर रहमान बताते हैं, “एक अरब गरीब पशुपालक किसान पशुजन्य रोगों का बोझ उठाते हैं। वे वही हैं, जो जानवरों के साथ रहते हैं।” रहमान कहते हैं कि हर सात में से एक पशु प्रति वर्ष एक या एक से अधिक पशुजन्य बीमारियों से पीड़ित होता है। ये मनुष्यों में स्थानांतरित न भी हो, तो भी पशु की उत्पादन क्षमता में 20 प्रतिशत का नुकसान होता है। रहमान ने कहा, “इससे पशु खाद्य जैसे दूध, मांस और अंडे की कमी पैदा होगी। हमें पशुओं को पशुजन्य बीमारियों से बचाना होगा क्योंकि यह मनुष्यों के लिए पोषण और खाद्य सुरक्षा का मामला है।”
भारत पर खतरा
आईएलआरआई के अनुसार, भारत उन चार देशों में शामिल है, जो व्यापक बीमारी और मृत्यु के साथ सबसे अधिक पशुजन्य बीमारी से पीड़ित हैं। अन्य तीन देश इथियोपिया, नाइजीरिया और तंजानिया हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वेटरनरी एपिडेमियोलॉजी एंड डिजीज इंफॉर्मेटिक्स (एनआईवीईडीआई) द्वारा निगरानी किए गए 13 पशुधन रोगों में से चार पशुजन्य हैं। ये एंथ्रेक्स (अत्यधिक संक्रामक जीवाणु रोग जो किसी व्यक्ति की त्वचा, फेफड़े या आंत को प्रभावित कर सकते हैं। यह बीमारी संक्रमित जानवरों के संपर्क में आने, दूषित मांस खाने या बैक्टीरिया के बीजाणुओं को सांस के जरिए अपने भीतर खींचने से फैलती है), बेबियोसिस (एक जानलेवा परजीवी बीमारी जो मनुष्यों में टिक काटने, रक्त आधान या संक्रमित मां से उसके बच्चे तक फैल सकती है), फैसियोलॉसिस (एक परजीवी कृमि संक्रमण जो दूषित जलकुंभी या अन्य जल पौधों के खाने से होता है) और ट्रिपैनसोमोसिस या स्लीपिंग सिकनेस (एक परजीवी रोग जिसमें बुखार, थकान, सुस्ती और लिम्फोनोड्स में सूजन आ जाता है। यह टिक-टिक मक्खियों से फैलता है) हैं। इस तरह के और जूनोटिक या तो स्थानिक हैं या दोबारा उभर रहे हैं। ऐसा ही एक रोग बफेलोपॉक्स है। 2018 में इस बीमारी ने महाराष्ट्र के धुले जिले में 28 दूग्ध किसानों को संक्रमित किया, जिनका भैंसों के साथ निकट संपर्क था (देखें, नुकसानदेह अंतर्संबंध,)।
संभावित बीमारी के प्रकोप को रोकने के लिए, एनआईवीआडीआई हर महीने चेतावनी जारी करता है। संस्थान का दावा है कि यह 90 प्रतिशत से अधिक सटीक होती है और इससे हितधारकों को सही वक्त पर निवारक उपाय अपनाने में मदद मिली है। अक्टूबर 2022 के बुलेटिन में एनआईवीआडीआई कहता है, “हालांकि कम रिपोर्टिंग और मामलों की रिपोर्टिंग ही नहीं होने की संभावना भी है।”
डाउन टू अर्थ के राजस्थान दौरे के दौरान, एक पशु चिकित्सक ने नाम सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर कहा, “अगर हम मुंहपका और खुरपका बीमारी के बारे में रिपोर्ट करते हैं, तो इसे अधिकारी असुविधाजनक रूप में देखते हैं और वे हम पर ठीक से वैक्सीनेशन नहीं करने का आरोप लगाते हैं।” अधिकारी रोग के बारे में रिपोर्टिंग प्रणाली में समन्वय की कमी का भी हवाला देते हैं। मसलन, रेबीज और एंथ्रेक्स जैसे जूनोज की निगरानी पशुओं और मनुष्यों के लिए अलग-अलग तरीके से की जाती है। पशुपालन और डेयरी विभाग (डीएएचडी) के पशुपालन आयुक्त प्रवीण मलिक लम्पी त्वचा रोग और अफ्रीकी स्वाइन फीवर से निपटने में लापरवाही बरतने के लिए राज्य सरकारों को दोषी ठहराते हैं। वह कहते हैं, “2019 में, जब लम्पी ने भारत में प्रवेश किया, तो केंद्र ने निवारक उपाय के रूप में गॉटपॉक्स के टीके को मंजूरी दी। राज्यों को संक्रमित मवेशियों को क्वारंटीन करने और व्यापार को लेकर सख्त कदम उठाने के लिए भी कहा गया था, लेकिन बीमारियों को उस तरीके से नियंत्रित नहीं किया गया था, जैसे होना चाहिए था।”
निगरानी की जरूरत
पशुधन रोग कार्यक्रम तैयार करने के लिए डीएएचडी ने 2020 में राष्ट्रीय डिजिटल पशुधन मिशन (एनडीएलएम) लॉन्च किया। इसका काम पशुधन रोग कार्यक्रम तैयार करना है, जो जूनोटिक रोगों से जुड़ी गतिविधियों और इसे नियंत्रित करने के बारे में सूचनाएं साझा करने के लिए वन्यजीव व मानव रोग को एकीकृत कर सके। इस मिशन के अंतर्गत लोगों के लिए आधार कार्ड की तरह, देश के सभी 50 करोड़ प्रमुख पशुधन को एक यूनिक 12-अंकीय पहचान (आईडी) नंबर के साथ टैग करने का लक्ष्य है। अब तक 24.5 करोड़ मवेशियों को उनके विवरण जैसे उम्र, नस्ल, दूध उत्पादन, टीकाकरण और कृत्रिम गर्भाधान की तारीखें और बछड़े की डिलीवरी के साथ टैग कर पूरी जानकारियां एक केंद्रीय डेटाबेस में दर्ज की गई है। यह आईडी टीकाकरण सहित सभी राज्य और राष्ट्रीय कार्यक्रमों की नींव के रूप में काम करेगी।
पशुधन रोगों की रोकथाम और नियंत्रण टोल फ्री हेल्पलाइन नंबर, 1962 से जुड़ी मॉडलिंग और निगरानी मोबाइल पशु चिकित्सा इकाइयों के माध्यम से की जाएगी। प्रवीण मलिक कहते हैं, “मान लीजिए कि कोई किसान मवेशियों की समस्या को लेकर उक्त नंबर पर कॉल करता है, तो दूसरे फोन लाइन पर मौजूद कर्मचारी मवेशी की आईडी के जरिए उसका इतिहास जानने में सक्षम होगा और उसी के आधार पर सूचनाएं दे सकता है। एक गांव में समान प्रकृति के 10-20 मामले सामने आते हैं, तो यह जांचने के लिए अलर्ट जारी किया जाएगा कि कहीं कोई बीमारी तो नहीं है।”
विश्लेषक एनडीएलएम के डिजिटल आर्किटेक्चर की सराहना करते हैं, लेकिन बेहतर बुनियादी ढांचा और डायग्नोस्टिक सिस्टम की जरूरत पर जोर देते हैं। आईसीएआर के अंतर्गत संचालित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च के डायरेक्टर प्रताप बिरथल कहते हैं, “भारत में पहले से ही पशुधन रोगों के लिए मोबाइल डिस्पेंसरी हैं। उन्हें मजबूत किया जाना चाहिए और पंचायतों के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। सैंपल संग्रह और जागरुकता के लिए वैज्ञानिकों को महीने में एक-दो बार गांवों का दौरा करना चाहिए। पोलियो उन्मूलन की तर्ज पर टीकाकरण किया जाना चाहिए।”
उत्तर प्रदेश के इज्जतनगर के इंडियन वेटरिनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रधान विज्ञानी द्विपायन बर्धन ने कहा, “सभी वेटनरी अस्पतालों में कोल्ड स्टोरेज की सुविधा नहीं है, जिस कारण वैक्सीन अप्रभावी हो जाती हैं। हमें इस असमानता को पाटने की जरूरत है।” इसके अलावा क्षेत्रीय चिकित्सा केंद्र के अभाव के चलते पशु रोग चिकित्सकों को भोपाल स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाई सिक्योरिटी एनिमल डिजीजेज पर निर्भर रहना पड़ता है, जो टेस्ट रिपोर्ट देने में 10-15 दिन लेता है। वह आगे कहते हैं कि सुविधाओं के अभाव और चिकित्सा प्रक्रिया के केंद्रीकृत होने के चलते पूर्वोत्तर में अफ्रीकी स्वाइन फ्लू को नियंत्रित नहीं किया जा सका था। नई उभरती बीमारियों ने चौकन्ना हो जाने का इशारा किया है। वर्धन खतरे से आगाह करते हुए कहते हैं, “व्यापार में इजाफा के चलते भी अफ्रीका से रिफ्ट वैली बुखार के यहां आने की संभावना है। हालांकि अभी यह असंभव लगता है, लेकिन कुछ साल पहले तक हमने लम्पी चर्म रोग से निपटने के बारे में सोचा भी नहीं था।”