बीस तारीख को होने वाली वोटिंग से महज एक हफ्ते पहले उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले की सरीला तहसील के अंतर्गत आने वाले पवई गांव के रामसेवक और उनका परिवार काम की तलाश में गुजरात जा रहा है। वोट डालने के लिए एक हफ्ते और न रुकने का कारण पूछने पर वे कहते हैं कि वोट डालने से हमको क्या मिलेगा? मिलना जुलना कुछ है नहीं तो फिर एक हफ्ते का समय क्यों खराब करें? रामेश्वर जैसे सैकडों लोग हर रोज काम की तलाश में बाहर जा रहे हैं।
महोबा-राठ-हमीरपुर से दिल्ली, इंदौर और दूसरे बड़े शहरों के लिए प्राइवेट बसों का संचालन करने वाले मुबारक अहमद बताते हैं कि इस समय उनकी 12-13 बसें दिल्ली की तरफ जा रही हैं। यह केवल मेरी हैं, दूसरे सभी ऑपरेटर भी मिलकर लगभग इतनी ही बसें भेज रहे हैं।
बाहर जाने वालों की संख्या पूछने पर वह बताते हैं कि इस मार्च के अंतिम सप्ताह के बाद से मजदूरों का बाहर निकलना शुरु हुआ था, तब दो बसें भेजते थे, उसके बाद से जाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। आज की तारीख के में दो हजार के आसपास लोग प्रतिदिन बाहर जा रहे हैं, इनमें से ज्यादातर दिल्ली एनसीआर की तरफ जा रहे हैं।
बसों के अलावा रेलवे यात्रा का बड़ा साधन है, मानिकपुर से हजरत निजामुद्दी तक जाने वाली उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति एक्सप्रेस जिसे बुंदेलखंड के इलाके “पलायन एक्सप्रेस” भी कहा जाता है। कुल्पहाड़ रेलवे स्टेशन मास्टर संदीप (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि स्टेशन पिछले एक महीने में इस स्टेशन से करीब 2000 हजार लोग बाहर गये हैं, यह हाल तब है जबकि कुल्पहाड़ एक छोटा सा हॉल्ट स्टेशन है, ज्यादा ट्रेने यहां से केवल गुजरती हैं।
बांदा के तिंदवारी गांव की रामकली जो अपने परिवार के साथ बस से यात्रा कर रही थीं। कहती हैं, गांव में कोई काम नहीं है, चुनाव की घोषणा के चलते मनरेगा का काम भी बंद है, और उसके अलावा कोई काम यहां है नहीं तो फिर कोई केवल वोट देने के लिए यहां क्यों रुके? मनरेगा पर्यवेक्षक के तौर पर कार्य कर रहे अखिल राजपूत कहते हैं कि कई महीनों से लोगों को उनका मनरेगा का पैसा नहीं मिला है, उसके बाद चुनाव आ गये तो काम ही बंद हैं।
ललितपुर जिले के जाखलौन ब्लॉक के देवगढ़ और उसके आसपासक के कई सहरिया आदिवासी की बहुलता वाले गांव है, जहां प्रवासी मजदूरों की अच्छी खासी संख्या है। इन गावों के ज्यादातर लोग काम की तलाश में इंदौर, भोपाल, ग्वालियर और झांसी की तरफ जाते हैं, जहां पर वे आमतौर पर ईंट भठ्ठों में या फिर निर्माण मजदूर के तौर काम करते हैं।
कुछ लोग चाट के ठेले भी लगाते हैं। गुजरात के अहमदाबाद में एक मजदूरों के इलाके में एक कैंटीन चलाने वाले धनसिंह सहरिया को वोट डालने में कोई रुचि नहीं है। वह कहते हैं कि फायदा क्या है जो इतने दिन रुका जाए? मनरेगा के सहारे अपनी जीवन यापन नहीं किया जा सकता। प्रधान काम ही नहीं देता, अगर मांगने जाओ तो कहता है कि जब काम आएगा तो बताएंगे, जबकि काम सब हो रहे हैं।
मोतीबाई कहती हैं कि उम्र बढ़ गई है जिसकी वजह से अब वे बाहर नहीं जाना चाहती, इसलिए सोचा था कि गांव में ही मनरेगा में काम करके गुजारा करेंगी, उसके बाद बचे खाली समय में जंगल से लकड़ी बीनकर अपने परिवार का गुजारा कर लेंगी। कई बार दरख्वास्त करने के बाद आज तक उन्हें काम नहीं मिला है। जिन लोगों ने कुछ दिन काम किया भी है लेकिन उन्हें उनका पैसा नहीं मिला। ऐसे में केवल वोट देने के लिए यहां कोई क्यों रुकेगा।
समाजवादी पार्टी के एक कार्यकर्ता नाम न बताते हुए कहते हैं कि लोकसभा का चुनाव क्षेत्र बहुत बड़ा होता है, इसलिए मतदाताओं को रोकने के लिए लालच भी नहीं दिया जा सकता है, छोटे चुनावों में तो अपने मतदाता को वापस बुलाने/रोकने के लिए प्रत्याशी, राजनीतिक दल पैसा भी खर्च करते हैं। लेकिन अबकि बार ऐसा नहीं किया जा रहा है वजह कि एक तो बाहर जाने वालों की संख्या ज्यादा है, दूसरा प्रवासी मजदूर पहले से ज्यादा गरीबी और बेरोजगारी में डूबे हुए हैं।
17 मई को प्रधानमंत्री ने हमीरपुर के राठ में जनसभा को संबोधित करते हुए बुंदेलखंड के विकास के बारे में कोई बात नहीं की, उन्होंने यहां के पलायन, सूखे, बेरोजगारी से निपटने के लिए कोई रोडमैप भी प्रस्तुत नहीं किया। इसके उल्ट उन्होंने जनसभा को संबोधित करते हुए बुंदेलखंड़ को और नकारात्मकता में प्रस्तुत किया जब उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड में पानी की समस्या इतनी गंभीर है कि यहां के लोग ट्रेन के शौचालयों में लगे नलों से निकालकर पानी पीते थे।
प्रधानमंत्री ने अपनी सभा में केन-बेतवा लिंक परियोजना, डिफेंस कॉरिडोर का जिक्र जरूर किया लेकिन उनमें से कोई भी ऐसी नहीं है मजदूरों को उनकी समस्याओं से तुरंत राहत दिला सके।