कोविड-19 में श्रम कानूनों की बलि: नव-उदारवादी व्यवस्था ने कल्याणकारी राज्य का खात्मा कर दिया

श्रम अर्थशास्त्री केआर श्याम सुंदर का कहना है, हम श्रम कानूनों के मामले में वापस 19वीं सदी में पहुंच गए हैं
Photo: Meeta Ahlawat
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वैश्विक महामारी नोवल कोरोनावायरस (कोविड-19) ने भारत को एक गहरे स्वास्थ्य और आर्थिक संकट में डाल दिया है। आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए राज्य सरकारें अध्यादेश जारी कर श्रम कानूनों में बदलाव कर रही हैं, फैक्ट्री और उद्योगों में मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए बनाए कानूनी प्रावधानों से छूट दे रही हैं।

डाउन टू अर्थ ने प्रमुख श्रम कानूनों के निलंबन के विभिन्न पहलुओं पर श्रमिक अर्थशास्त्री और एक्सएलआरआई, ज़ेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, जमशेदपुर में प्रोफेसर केआर श्याम सुंदर से बात की। पेश हैं संपादित अंश:

कुंदन पांडेय: कई राज्य सरकारों ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए श्रम कानूनों में ढील दे दी है। इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका को लेकर आपका क्या कहना है?

केआर: राजनीतिक संस्थान और नौकरशाही जिस संवेदनहीनता के साथ मामले से निपट रही है, वह पहले दिन से बहुत अजीब है। वैश्विक महामारी ने हमारे समाज पर कहर बरपाया है। इसका बेहतर तरीके से सामना किया जा सकता था।

लॉकडाउन-1 के दौरान दिल्ली और सूरत में प्रवासी कामगारों के विरोध से सरकार को इशारा समझ लेना चाहिए था। दुर्भाग्य से, कोई सुनियोजित सरकारी नीति सामने नहीं रखी गई।

सरकारी कर्मचारियों को पीएम केयर्स फंड में अनिवार्य योगदान के लिए मजबूर किया गया। केरल को कर्मचारियों का छह दिन का वेतन तीन से छह महीने के लिए रोकना पड़ा। यह दिखाता है कि वित्त प्रणाली कितनी नाजुक है। यह भी दिखाता है कि संघीय वित्तीय प्रणाली काम नहीं कर रही है।

संगठित क्षेत्र में भी हालत बहुत खराब है। कंपनियां कर्मचारियों के वेतन का भुगतान करने में लाचार हैं। एमएसएमई का क्या होगा? श्रम बाजार समस्याग्रस्त है।

ऐसे हालात में, सरकार को दो काम करने चाहिए थे: सप्लायरों को सरकारी खजाने से मदद देनी चाहिए थी और खरीदारों को आय में मदद करनी चाहिए थी। सरकार इसके बजाय बिना कानूनी बाध्यता वाली सलाहें देती रही।

कर्नाटक सरकार ने दबाव में श्रम कानूनों में बदलाव का आदेश वापस ले लिया है। पिछले हफ्ते पंजाब सरकार ने अपने न्यूनतम वेतन आदेश को संशोधित किया। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने जिला मजिस्ट्रेटों से कहा है कि शीर्ष स्तर से सलाह किए बिना मजदूरी का भुगतान नहीं करने वालों के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज करें।

नियोक्ता लॉबी ताकतवर है और हम उन्हें दोष नहीं दे सकते क्योंकि वे अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। लेकिन सरकारें कल्याणकारी राज्य के रूप में काम करने में नाकाम रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की कोशिशों को काफी बताते हुए प्रवासी मजदूरों के मामले में दखल देने से इनकार कर दिया है। इसलिए अदालत का समर्थन भी नहीं मिलने वाला। इस दौरान, जन चेतना एक आध्यात्मिक संकट का सामना कर रही है। लोग मदद के लिए राज्यों की ओर देख रहे हैं। मौजूदा  हालात में उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

मैं संकट के लिए बीते सालों में सरकार द्वारा अपनाए गए नव-उदारवादी चरित्र को जिम्मेदार ठहराऊंगा। कल्याणकारी राज्य का खात्मा हो चुका है। इस वजह से इसने जनकल्याण की अपनी अंतर्निहित क्षमता गंवा दी है।

हालांकि मुझे उद्योगों से सहानुभूति है क्योंकि वे उबरने के लिए बेताब हैं, लेकिन मैं एक विशेषज्ञ के रूप में इससे आश्वस्त नहीं हूं। कुछ श्रम प्रधान उद्योगों को छोड़कर अधिकांश सेक्टर में कुल बिक्री टर्नओवर में श्रम लागत 10-15 प्रतिशत के बीच है। गारमेंट उद्योग में यह 25-30 प्रतिशत तक हो सकती है।

इसका मतलब यह है कि जो नियोक्ता उत्पादन फिर से शुरू करना चाहते हैं, उन्हें टूटी आपूर्ति श्रृंखला के कारण कच्चे माल की अनुपलब्धता जैसी रुकावटों का सामना करना पड़ेगा। बाजार तक पहुंचने में भी उन्हें रुकावटों का सामना करना पड़ेगा। इन समस्याओं पर काम करने के बजाय, कई राज्य सरकारों ने कई श्रम कानूनों के पूर्ण निलंबन के दमनकारी उपाय शुरू कर दिए।

कुंदन पांडेय: श्रम कानून कितने महत्वपूर्ण हैं? उन्हें हासिल करना कितना मुश्किल रहा है?

केआर: भारत में श्रम कानूनों के लिए आंदोलन 1870 में शुरू हुआ था; फैक्ट्रीज अधिनियम 1881 में लागू किया गया। समय के साथ काम के घंटे 16 से घटाकर 14 किए गए और फिर आखिरकार रोजाना 12 घंटे कर दिए गए।

अब, यह फैक्ट्रीज अधिनियम, 1948 के तहत आठ घंटे है। 1940 से 1960 के बीच देश में श्रम अधिकारों को मूर्त रूप दिया गया था। अब, अचानक एक सरकारी आदेश से इसे खत्म कर दिया गया है।

श्रम कानूनों के मामले में हम वापस 19वीं सदी में पहुंच गए हैं। अब कोई नियंत्रण नहीं है बल्कि एक मुक्त श्रम बाजार है। और सरकार मूकदर्शक बन गई है।

एक तरह से सरकार कामगारों से कह रही है कि उन्हें मालिकों की मर्जी के हिसाब से काम करना होगा; यह कि वह किसी भी औद्योगिक विवाद में दखल नहीं देगी; यह कि मजदूर ट्रेड यूनियनों का गठन नहीं कर सकता या श्रम न्यायालयों में नहीं जा सकता।

ऐसे में एक नई फैक्टरी को अपने कर्मचारियों को शौचालय जैसी चीजें देने की जरूरत नहीं है। उन्हें रोशनी या वेंटिलेशन जैसी बेहतर कार्य स्थितियों के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है।

यह सब चंद विदेशी कंपनियों (जो चीन से अपना काम स्थानांतरित करना चाहती हैं) के नाम पर किया जा रहा है। उनका कहना है कि यह निवेश को बढ़ावा देगा और रोजगार पैदा करेगा। यह एक सुंदर कल्पनालोक की, अक्षम्य रूप से बेवकूफाना सोच है जो सरकार पेश कर रही है।

मैं इन कदमों को लेबर मार्केट की आंतरिक इमरजेंसी कहता हूं, जहां सभी अधिकार छीन लिए गए हैं। यह एक तरह से अराजकता है।

केपी: आप मजदूर संगठनों की क्या भूमिका देखते हैं?

केआर: मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश ने श्रम कानूनों को ढीला कर दिया है और खबर है कि गुजरात और असम भी इसी रास्ते का अपनाएंगे। ऐसी हालत में मजदूर संघ क्या कर सकते हैं?

कोई सामाजिक संवाद नहीं है। भारत अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का संस्थापक सदस्य है। इसने 39 आईएलओ प्रस्तावों का समर्थन किया है। 1919 में आईएलओ द्वारा मंजूर किए पहले प्रस्ताव में एक दिन में आठ घंटे काम और एक हफ्ते में 48 घंटे काम का समर्थन किया गया था। अब, छह राज्य सरकारों ने एक दिन में आठ से बारह घंटे और हफ्ते में 48-72 घंटे काम करने का नया मसौदा तैयार किया है। यह काम के लिए तय घंटे के प्रस्ताव के खिलाफ है।

हम त्रिपक्षीय परामर्श अंतरराष्ट्रीय श्रम मानक कन्वेंशन, 1976 के एक हस्ताक्षरकर्ता भी हैं, जिसमें श्रम बाजार से संबंधित कोई भी नीतिगत फैसला लेने से पहले हस्ताक्षरकर्ता सरकार के लिए हितधारकों- नियोक्ताओं और कामगारों की संस्थाओं से सलाह करना जरूरी है।

लेकिन राज्य सरकारों ने ट्रेड यूनियनों से बात नहीं की। संसद में पेश किए गए चार कानूनों पर शायद ही कोई प्रभावी सामाजिक संवाद हुआ, और जिनमें वेतन कानून (वेजेज कोड) भी पारित किया गया था। भारत त्रिपक्षीय परामर्श संधि सी144 का उल्लंघन कर रहा है।

भारत ने सी081 श्रम निरीक्षण प्रस्ताव को भी स्वीकार किया था। मध्य प्रदेश सरकार का कहना है कि कोई नियमित निरीक्षण नहीं होगा और फैक्ट्री मालिक बाहरी एजेंसी से ऑडिट करा सकते हैं। कई दूसरे राज्यों ने भी इसी तरह के आदेश जारी किए हैं। यह ऊपर वर्णित संधि का उल्लंघन है।

हमने 1964 में रोजगार नीति संधि की भी पुष्टि की, जिसके तहत रोजगार नीति पर अमल के लिए एक संस्था जरूरी है। 70 साल की आर्थिक योजना और विकास के बाद भी हमारी कोई रोजगार नीति नहीं है।

ट्रेड यूनियनों का आधार आईएलओ संधियां हैं, चाहे उनका समर्थन किया गया हो या नहीं। पुष्टि की गई संधियां तो ठीक हैं, लेकिन आईएलओ मानकों का उल्लंघन किया जा रहा है। ट्रेड यूनियनों ने मुझे बताया कि उन्हें अदालतों से मदद नहीं मिल पाएगी और मुझे भी लगता ​​है कि यह सच है।

लॉकडाउन की वजह से किसी तरह की लामबंदी नहीं हो सकती है। वे सरकार के दरवाजे पर दस्तक दे रही हैं। कुछ केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने प्रधानमंत्री, केंद्रीय श्रम मंत्री और श्रम सचिव को 21 पत्र लिखे हैं। इसी तरह के कदम राज्य स्तर पर भी उठाए गए होंगे।

सरकार एक तटस्थ संस्था मानी जाती है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सरकार को सब कुछ मजदूर-समर्थक करने की जरूरत है, लेकिन उन्हें कम से कम बातचीत तो करनी ही चाहिए।

श्रम कानूनों में बदलाव करने के बजाय, सरकार को हितधारकों से उनके साथ सामाजिक संवाद के लिए कहना चाहिए था।

एक नोबेल पुरस्कार विजेता ने कहा था मनुष्य को रिटर्न गिफ्ट- पारस्परिक फायदा, देने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इसलिए अगर मजदूर यूनियनों को सारी जरूरी जानकारी दी जाती है और उन्हें सहयोग करने के लिए कहा जाता है, तो वे निश्चित रूप से ऐसा करेंगे।

ऐसे कई तरीके हैं जिनसे ट्रेड यूनियनें सहयोग कर सकती हैं। हम इसे रियायत की सौदेबाजी कह सकते हैं। यह सामाजिक संवाद है जिसकी आईएलओ बात करता है।

आईएलओ ने कोविड-19 को लेकर अपनी दूसरी मॉनीटरिंग रिपोर्ट दी है, जिसमें आर्थिक प्रोत्साहन के कदम उठाने, उद्यम श्रमिकों की सुरक्षा और प्रभावी सामाजिक संवाद के चार स्तंभों की बात की है। भारत में ऐसा नहीं हो रहा है।

मजदूर यूनियनों ने कर्मचारियों के हित की रक्षा करने की पूरी कोशिश की है। लेकिन नियोक्ता पहुंच से दूर हैं और राज्य कुछ खास मददगार नहीं हैं।

केपी: विदेशी कंपनियों को आमंत्रण देने और श्रम कानूनों में ढिलाई देने के बारे में काफी कुछ कहा जा रहा है? क्या दोनों के बीच कोई संबंध है?

केआर: साल 2001 के आईएलओ शोध में डेविड कूसिया ने कहा था कि अच्छी पूंजी ऊंचे श्रम मानदंड लाएगी, और खराब पूंजी सिर्फ खराब श्रम मानदंड लाएगी। ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि निवेशक सस्ते, अनुत्पादक और लचीले श्रमिक चाहते हैं।

बल्कि इसके बजाय, विदेशी निवेशक श्रम बाजार की तरफ से, सहयोगात्मक संबंध और रुकावटें नहीं डालने वाली ट्रेड यूनियन, और सबसे महत्वपूर्ण, कुशल श्रमिक बल चाहेंगे।

इसलिए श्रम बाजार का लचीलापन उनके एजेंडे में शीर्ष पर नहीं है। वे भूमि अधिग्रहण, अनुबंध का पालन, ऊर्जा की उपलब्धता, निर्बाध बिजली आपूर्ति, सप्लाई व्यवस्था और बंदरगाह सड़क रेलवे से कनेक्टिविटी में ज्यादा रुचि रखते हैं। आर्थिक और उत्पादन बाजार के ये कारक उनके लिए ज्यादा मायने रखते हैं।

जिस तरह का लचीलापन सरकार दे रही है- यह सोचना कि अगर कोई श्रम कानून नहीं होगा तो विदेशी निवेश दौड़ते हुए आएंगे- यह कोई आर्थिक समझदारी नहीं होगी। मेरे लिए, यह भ्रामक आशावाद है। हम इसे गलत श्रम नीति के लिए राजनीतिक वैधता हासिल करना कहेंगे।

केपी: मौजूदा संकट ने प्रवासी कामगारों की बदहाली को उजागर किया है। क्या आपको लगता है कि यह सरकारी नीतियों या श्रम बाजार परिदृश्य में कोई बदलाव लाएगा?

केआर: मुझे पूरी उम्मीद है कि राजनीतिक दल और नौकरशाही लंबित व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य कानून के लिए काम करेंगे। सरकार ने अगर चार श्रम कानून- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक अधिनियम और असंगठित सामाजिक सुरक्षा अधिनियम- लागू किए होते तो अर्थव्यवस्था में यह संकट नहीं होता।

प्रवासी श्रमिक अधिनियम, 1979 में बदलाव किया जाना चाहिए। सरकार को मजदूरी कानून भी लागू करना चाहिए और उन्हें बेहतर योजनाएं बनाकर असंगठित क्षेत्र के लिए सामाजिक सुरक्षा लाभ को मजबूत करना चाहिए।

सरकार को विकल्प के रूप में सबके लिए न्यूनतम आय के अर्थशास्त्र के बारे में सोचना चाहिए।

भारत में बेरोजगारी बीमा लाभ नहीं है। अगर कोई बेरोजगारी भत्ता होता तो इस आर्थिक संकट से आसानी से निपटा जा सकता था।

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