इक्वाडोर में चल रहा हिंसक विरोध प्रदर्शन दुनिया भर के समाचार पत्रों की सुर्खियां हैं। रेलवे हड़ताल ने बोरिस जॉनसन के यूनाइटेड किंगडम को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जिससे काफी हद तक एक पीढ़ी अनजान रही है। पिछले दो महीनों में लगभग 70 देशों में मुद्रास्फीति, विशेष रूप से खाद्य कीमतों में वृद्धि को लेकर विरोध प्रदर्शन की सूचना आई है।
2011-2012 में भोजन के लिए हुए दंगों और विरोध प्रदर्शनों को छोड़कर विरोध का मौजूदा दौर हाल के इतिहास में सबसे व्यापक है। दुनिया में विरोध के अलग-अलग दौर हैं।
2011-12 में दुनिया भर में बड़ी संख्या में विरोध प्रदर्शन दर्ज किए गए। 2015-17 में इसमें और उछाल आया। 2020 की शुरुआत में महामारी आने से ठीक पहले भी इसकी कुछ रिपोर्ट्स आई थीं। नवीनतम विरोध 2022 की शुरुआत में शुरू हुआ और तेजी से संयुक्त राज्य अमेरिका से ट्यूनीशिया और पाकिस्तान तक फैल गया। इन सभी विरोधों के मूल में आर्थिक संकट रहा है।
इन विरोध प्रदर्शनों का सबसे अहम पहलू यह है कि इसमें युवा आबादी की सर्वाधिक भागीदारी है। ऐसा इसलिए क्योंकि विश्व की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या 40 वर्ष से कम आयु की है। विश्व की जनसंख्या इतनी युवा कभी नहीं थी।
विरोध का वर्तमान दौर अलग है क्योंकि यह उच्च मुद्रास्फीति के इर्द-गिर्द है, विशेष रूप से खाद्य कीमतों में वृद्धि को लेकर। दुनिया एक अभूतपूर्व खाद्य संकट से जूझ रही है। इस संकट को यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने बढ़ा दिया है। साथ ही चरम मौसमी घटनाओं ने उत्पादन पर असर डालकर इसे तीव्र कर दिया है ।
30 देशों के केंद्रीय बैंकों ने मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए पहले ही ब्याज बढ़ा दी है। लगभग 50 देशों ने स्थानीय खपत के लिए पर्याप्त भोजन सुनिश्चित करने और मांग-आपूर्ति संतुलन बनाए रखने के लिए निर्यात को प्रतिबंधित कर दिया है। ब्रिटेन में, सरकार ने नियोक्ताओं को वेतन नहीं बढ़ाने की चेतावनी दी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह अधिक मुद्रा का सर्कुलेशन बढ़ाएगा और इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी। हाल के सप्ताहों में अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी बढ़ती महंगाई से लड़ने के लिए वेतन वृद्धि की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रतिद्वंद्वी अमेरिका और चीन मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए शुल्क-नियंत्रण उपायों पर काम करने में जुटे हुए हैं।
कम से कम 70 देशों के लिए खाद्य मुद्रास्फीति चार दशकों में सर्वाधिक है। विकसित और विकासशील दोनों देशों में भी यही हाल है। आंकड़े इसे प्रमाणित भी करते हैं। कह सकते हैं कि दुनिया की अधिकांश आबादी पहली बार इतनी गंभीर खाद्य मुद्रास्फीति का सामना कर रही है।
बहुत से देशों में युवा आबादी पहली बार कम खा रही है या महंगाई का मुकाबला करने के लिए भोजन पर कम खर्च कर रही है। मूल्य वृद्धि का अर्थ आय का सिकुड़ना भी है। इससे वास्तविक आय कम हो जाती है।
खाद्य महंगाई इसलिए भी चुभ रही है क्योंकि लगभग दो दशक तक सस्ते भोजन की उपलब्धता के बाद खाद्य कीमतों में वृद्धि हुई है। इसकी वजह वैश्वीकृत खाद्य प्रणाली बताई जा रही है। असल में दुनिया एक स्थानीय बाजार बन गई है, जहां किसी को भी परवाह नहीं थी कि भोजन कहां से आता है। उसे बस कम कीमत और आसान उपलब्धता का मजा लेना है। लेकिन अब वैश्वीकृत बाजार चरमरा गया है, जिससे देशों की नाजुक खाद्य सुरक्षा की कलई खुल गई है।
दुनिया की युवा आबादी मुक्त बाजार वाली दुनिया में पली बढ़ी है। वह 'प्रतिबंधित अर्थव्यवस्था' से अनजान है। युवाओं की बढ़ती बेचैनी को देखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि वे मुक्त बाजार से असहज होने लगे हैं? ठीक वैसे ही, जैसे एक दशक पहले कीमतों में उछाल और युवाओं के प्रदर्शन को डीग्लोब्लाइजेशन प्रक्रिया का संकेत मान लिया गया था।
कई लोग इसकी व्याख्या इस रूप में करते हैं कि वर्तमान पीढ़ी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि भविष्य में भी लोगों को ऐसी ही सुरक्षा होगी। पीढ़ीगत असमानता की भी चिंताएं हैं। युवाओं के असंतोष के लंबे दौर को देखते हुए यह निश्चित रूप से सिस्टम विफलता के खिलाफ कोई मामूली प्रतिक्रिया नहीं है।
हाल के वर्षों में देशों द्वारा 'स्थानीय-हित-प्रथम' नीतियों के कारण व्यापार प्रतिबंधों को तेजी से अपनाया जा रहा है। दशकों पहले के वैश्वीकरण के दौर की तरह, एक नए तरह का डीग्लोब्लाइजेशन आकार ले रहा है। इसमें कल्याणकारी राजनीति बहस के केंद्र में है जो दुनियाभर के देशों को आकर्षित कर रही है।
पिछले कुछ महीनों में अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों और यूरोप में कंपनियों को वस्तुओं का स्थानीय उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। यह वैश्वीकृत दुनिया में स्थानीयकरण का पहला संकेत है।