डीबीटी: स्वीकार्यता बढ़ी, लेकिन लाभ कितना बढ़ा?

1 जनवरी 2013 को भारत पहली बार सात केंद्र प्रायोजिक योजनाओं को डीबीटी के अधीन ले आया
डीबीटी: स्वीकार्यता बढ़ी, लेकिन लाभ कितना बढ़ा?
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प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डीबीटी सरकारी योजनाओं की धुरी बन गई है। मौजूदा स्वास्थ्य और आर्थिक संकट को देखते हुए भारत ने इस पर काफी जोर दिया है। संकट गहराने पर इसकी असली परीक्षा होगी। डाउन टू अर्थ ने डीटीबी की चुनौतियों की विस्तृत पड़ताल की।  पहली कड़ी में आपने पढ़ा- डीबीटी: गरीब और किसानों के लिए कितनी फायदेमंद । पढ़ें, इस रिपोर्ट की दूसरी कड़ी-

ऐसा हुआ डीबीटी का उद्भव

वर्तमान में 420 योजनाएं डीबीटी के दायरे में आती हैं। इनमें से 63 योजनाएं वस्तु अथवा जिंस के रूप में हैं और शेष नगद भुगतान अथवा वस्तुपरक योजनाओं का मिश्रण है। यह तंत्र पिछले दो दशकों के दौरान विकसित हुआ है। पूर्ववर्ती योजना आयोग ने साल 2011 में नगद हस्तांतरण का खाका तैयार किया था। मेहरोत्रा तब योजना आयोग के इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड मैनपावर रिसर्च में महानिदेशक थे। उन्होंने ही “इंट्रोड्यूसिंग कंडिशनल कैश ट्रांसफर इन इंडिया” शीर्षक से दस्तावेज तैयार किया था। यह दस्तावेज कहता है, “भारत में गरीबों तक सब्सिडी पहुंचाने की दोषपूर्ण व्यवस्था का लंबा इतिहास रहा है। इसे बदलने की जरूरत है क्योंकि 2008 के आर्थिक संकट के बाद इन सब्सिडी का राजकोष पर असहनीय भार बढ़ता रहा है।” तमाम योजनाओं के भारी भरकम खर्च को देखते हुए यहीं से डीबीटी का विचार आया।

आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, भारत साल 2000 में विकास के लिए एक रुपए उपलब्ध कराने पर 3.65 रुपए उसकी डिलीवरी पर खर्च करता था। आर्थिक सर्वेक्षण 2010-11 में पहली बार पूरी तरह डीबीटी मोड में जाने के लिए बदलाव किए गए और अधिक से अधिक कैश ट्रांसफर योजनाओं को इसके दायरे में लाया गया। केंद्रीय बजट 2011-12 में सरकार ने उद्यमी नंदन नीलेकणी के नेतृत्व में एक टास्कफोर्स का गठन किया। टास्कफोर्स को डीबीटी को लागू करने के लिए उपाय और माध्यम तलाशने का काम दिया गया, खासकर सब्सिडी के लिए। 1 जनवरी 2013 को भारत पहली बार सात केंद्र प्रायोजिक योजनाओं को डीबीटी के अधीन ले आया (देखें, डीबीटी की यात्रा)। सरकार ने योजना आयोग के अधीन डीबीटी मिशन की शुरुआत की।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के पहले कार्यकाल (2014-19) में डीबीटी पर बहुत जोर दिया गया। आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15 में जेएएम (जनधन-आधार-मोबाइल) का सुझाव दिया गया। इसने डीबीटी के तहत योजनाओं का लाभ हस्तांतरित करने के लिए एक आधार बना दिया। इसने प्रधानमंत्री की उस रणनीति को भी बल दिया जिसमें सरकारी कार्यक्रमों का फायदा सीधा लोगों तक पहुंचाने की बात थी। यह एक चुनावी रणनीति भी थी। पहले कार्यकाल में उन्होंने 22 करोड़ लोगों तक डीबीटी पहुंचाने का निर्देश दिया। सभी मूलभूत सेवाएं घरेलू स्तर तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया, चाहे वह सेवा आवास, रोजगार, सब्सिडी वाला राशन से जुड़ी हो अथवा शौचालय निर्माण, बिजली, स्वास्थ्य बीमा, कृषि सहायता या बीमा से संबंधित हो। बाद में उन्होंने पाइप्ड जल को भी इससे जोड़ दिया। वर्तमान में इनमें कम से कम एक योजना का लाभ प्रत्यक्ष रूप से परिवारों को प्राप्त हो रहा है।

पिछले सात सालों में विकास योजनाओं को पहुंचाने में डीबीटी की स्वीकार्यता बढ़ी है। इस माध्यम से भारत में करीब 450 योजनाओं को 90 करोड़ से अधिक लोगों तक पहुंचाया गया है। डीबीटी मिशन वेबसाइट के मुताबिक, 2014 से सरकार ने 8.22 लाख करोड़ रुपए यानी केंद्र सरकार के कल्याणकारी और सब्सिडी बजट का 60 प्रतिशत लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे पहुंचाया है। साल 2019-20 में डीबीटी के माध्यम से कुल 3.81 लाख करोड़ रुपए बैंक खातों में भेजे गए। साल 2013 में जब डीबीटी की शुरूआत हुई थी, तब 7,368 करोड़ रुपए हस्तांतरित किए गए थे। यानी तब से अब तक इसमें 40 गुणा वृद्धि हुई है।

साल 2020-21 के बजटीय आवंटन में डीबीटी के अधीन आने वाली योजनाओं का बजट कुल कृषि बजट का लगभग 81 प्रतिशत है। इससे पता चलता है कि कितने बड़े स्तर पर डीबीटी का प्रयोग किया जा रहा है। सरकार का कहना है कि डीबीटी ने केवल डिलीवरी को ही आसान नहीं किया है बल्कि प्रशासनिक खर्च भी बचाया है। डीबीटी मिशन वेबसाइट के मुताबिक, यह बचत 1.7 लाख करोड़ की है जो कोरोनावायरस के पहले राहत पैकेज के बराबर है।

वस्तुपरक योजनाओं के लाभ

63 वस्तुपरक योजनाओं में सबसे प्रमुख है सस्ता राशन, आंगनवाड़ी के माध्यम से दिया जाने वाला पूरक पोषण कार्यक्रम, मध्याह्न भोजन योजना, उर्वरक सब्सिडी, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, आयुष्मान भारत और उज्ज्वला। वस्तुपरक योजनाओं में सरकार और उसकी एजेंसियां वस्तु को खरीदने और वितरण का आंतरिक खर्च वहन करती हैं ताकि लक्षित उपभोक्ताओं तक उसे नि:शुल्क अथवा सस्ती दरों पर उपलब्ध कराया जा सके। उदाहरण के लिए भारतीय खाद्य निगम सरकारी एजेंसी है जो अनाज को खरीदने, उसके परिवहन, भंडारण और पीडीएस के तहत आने वाली राशन की दुकानों तक पहुंचाने के लिए उत्तरदायी है।

लाभार्थी का चयन

डीबीटी का सबसे मूलभूत और चिंताजनक पहलू है लाभार्थियों की पहचान। अधिकांश डीबीटी योजनाएं राज्यों द्वारा प्रबंधित की जाती हैं। कुछ योजनाएं जैसे मनरेगा, पीएम किसान और पीएमयूवाई राज्यों के अधिकारक्षेत्र में नहीं आतीं। इन योजनाओं के तहत केंद्र सरकार सीधे लाभार्थियों के खातों में धनराशि भेजती है। हर डीबीटी योजना के लिए सरकार का अलग मापदंड, लाभार्थियों की लिस्ट और डिलीवरी चैनल हैं। उदाहरण के लिए मनरेगा में 9 करोड़ कामगार पंजीकृत हैं, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) में 81 करोड़, पीएम किसान में 14 करोड़ से अधिक और पीएमयूवाई में 8 करोड़ से अधिक लोग पंजीकृत हैं। समस्या यह है कि सरकार संकट के समय बेतरतीब ढंग से लाभार्थियों का चयन करती है जिससे बहुत से लोग लाभ से वंचित रह जाते हैं। बहुत से मामलों में लाभार्थियों का चयन ठीक से नहीं हुआ और सभी शामिल नहीं किए गए।

उदाहरण के लिए पीडीएस को ही लीजिए। 1990 के दशक के शुरुआत में भारत ने पीडीएस का लक्ष्य निर्धारित किया और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को सस्ती दरों पर राशन उपलब्ध कराया। गैर लाभकारी संगठन ऐड एट एक्शन इंटरनेशनल में माइग्रेशन एंड एजुकेशन के निदेशक उमी डेनियल बताते हैं कि देश में पहला बीपीएल सर्वेक्षण 1997 में किया गया। इसके बाद कोई लिस्ट नहीं बनी। बीपीएल की कोई नई लिस्ट न होने के कारण एनएफएसए के लिए चिन्ह्ति लाभार्थियों की लिस्ट का इस्तेमाल पीडीएस में किया जा रहा है। पहली एनएफएसए लिस्ट 2011-12 में बनाई गई थी।

भारत की सबसे बड़ी नगद भुगतान योजना पीएम किसान से भी लाभार्थी वंचित रह जाते हैं। 2019 में इसकी शुरुआत से चिन्ह्ति किए गए लाथार्थियों और भुगतान किए गए लाभार्थियों के बीच बड़ा अंतर रहा है। शुरुआती अनुमान था कि इस योजना के 14 करोड़ लाभार्थी होंगे लेकिन बाद में यह घटकर 8.7 करोड़ हो गया क्योंकि योजना के लिए कम लोगों का पंजीकरण हुआ। इन 8.7 करोड़ किसानों को वादा किया गया था कि उन्हें कोरोनावायरस राहत पैकेज के तहत पीएम किसान योजना के माध्यम से समय से पूर्व 2,000 रुपए की आर्थिक मदद मिलेगी।

नई दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च में प्रोफेसर प्रताप सिंह बीरथल कहते हैं, “भारत में 14 करोड़ लोगों के पास भूस्वामित्व है और हो सकता है सभी को लाथार्थी मान लिया गया हो। निश्चित तौर केवल 8.7 करोड़ लोगों ने ही अपडेटेड भूमि रिकॉर्ड उपलब्ध कराया होगा। अन्य लोगों को भूमि रिकॉर्ड पूरा नहीं होगा।” पट्टेदार किसानों और पशुओं को पालकर गुजर बसर करने वालों को लाभार्थी नहीं माना गया। वह कहते हैं कि इस तरह बड़ी संख्या लोग योजना से बाहर कर दिए गए हैं।

दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन और थिंकटैंक इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस में वरिष्ठ कंसलटेंट श्वेता सैनी बताती हैं, “हमें मौजूदा डाटोबेस को जोड़ना होगा। जब तक हमारे पास लाभार्थियों के व्यवसाय और भूमि प्रोफाइल का डाटाबेस नहीं होगा, तब तक योजना का मकसद पूरा नहीं होगा।” दिल्ली स्थित एक अन्य गैर लाभकारी संगठन इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट के सेंटर फॉर इंप्लॉयमेंट स्टडीज में निदेशक रवि श्रीवास्तव कहते हैं कि वर्तमान में लाभार्थियों की लिस्ट को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। मौजूदा संकट को देखते हुए सरकार को जनधन खाताधारकों को लक्षित करने के बजाय मनेरगा और एनएफएसए लिस्ट से लाभार्थियों की पहचान करनी चाहिए। इन लिस्टों में सबसे अधिक लाभार्थियों के नाम दर्ज हैं और उनका बैंक खाता भी है। यह संख्या जनधन खातों से बढ़कर है। 2017 में सरकार ने निर्णय लिया था कि लाभार्थियों की पहचान और ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक योजनाओं के लाभ को हस्तांतरित करने के लिए गरीबी रेखा के बजाय सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) 2011 के आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाएगा।

मेहरोत्रा बताते हैं कि लाभार्थियों की सही पहचान की शुरुआत के लिए एसईसीसी डाटाबेस अच्छा है लेकिन इसकी जमीनी जांच जरूरी है क्योंकि यह डोटाबेस पुराना हो चुका है। वर्तमान में हर चौथा-पांचवा भारतीय नगद अथवा वस्तुपरक योजना का लाभार्थी है। लोगों की इतनी बड़ी संख्या को देखते हुए डीबीटी को ठीक से लागू करना किसी चुनौती से कम नहीं है और इसी वजह से लोग भी लाभ से वंचित रह जाते हैं।

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