वित्त वर्ष 2020-21 के लिए राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की तरफ से पेश किए गए ताजा आंकड़े उसी बात को दोहराते हैं जिसकी पहले से संभावना थी। लेकिन, मौजूदा वित्त वर्ष के लिए यह इस बात का संकेत देते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था गहरी नींद की अवस्था में गिरती जा रही है।
इसके पीछे कारण है ग्रामीण इलाकों में मांग और खपत में आई कमी, जो देश की दो-तिहाई आबादी का भरण-पोषण करती है। यह भी इसके बावजूद कि सिर्फ कृषि ही ऐसा सेक्टर है जिसने 2020-21 में 20.40 लाख करोड़ रुपये के सकल मूल्य के साथ सकारात्मक वृद्धि दर्ज कराई। इस साल मानसून भी सामान्य से बेहतर रहने वाला है।
2019-20 और 2020-21 के बीच भारत के सकल घरेलू उत्पादन में 10.56 लाख करोड़ रुपये का नुकसान दर्ज हुआ है। यह -7.3 फीसदी की नकारात्मक वृद्धि है। लेकिन खपत पर मौजूद आंकड़े वही दोहराते हैं जिसकी उम्मीद थी: अर्थव्यवस्था में आई गिरावट के कारण निजी खपत में सामूहिक स्तर पर गिरावट हुई है।
इसके बिना कोई अर्थव्यवस्था कभी फल-फूल नहीं सकती। निजी खपत खर्च जो कि 2019-20 में 83,21,701 करोड़ रुपये (जीडीपी का 57.1 फीसदी) से गिरकर 2020-21 में 75,60,985 करोड़ रुपये (जीडीपी का 56 फीसदी) रह गया। यह कुल जीडीपी नुकसान का 70 फीसदी है। यह दर्शाता है कि आर्थिक वृदि्ध में निजी खपत कितनी अहम होती है।
इसके पहले ही, देश लगातार चौथे साल अर्थव्यवस्था में गिरावट देख रहा था। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों की निजी खपत में इतना इजाफा नहीं हो रहा था, जिससे आर्थिक वृद्धि 5 फीसदी से अधिक होने का बल मिल सके।
प्रति व्यक्ति निजी खपत 2020-21 में 55,783 रुपये सालाना रही जो कि 2019-20 में 62,056 रुपये सालाना थी। खपत खर्च को आय के स्थान पर गरीबी स्तर मापने के लिए उपयोग किया जा सकता है, जैसा भारत में होता है। खपत खर्च को इस्तेमाल करके, अंदाजे के तौर पर यह कहा जा सकता है कि महामारी आने के पहले साल में देश में मासिक प्रति व्यक्ति आय 4,649 रुपये थी। यह महामारी से पहले के साल के मुकाबले किए गए खर्च के स्तर से तकरीबन 10 फीसदी कम थी।
यह आंकड़ा क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि सभी तरह की आर्थिक गतिविधियों में कमी आई है, जैसा कि महामारी के पहले साल में अंदेशा भी था। लेकिन विरोधाभासी बात यह है कि यह खर्च भी तब हुआ जब बड़ी संख्या में लोगों की आय के साधन नहीं रहे या उनकी नौकरी अनियमित हो गई। इससे यह साफ होता है कि इसमें से अधिकांश लोगों ने अपनी बचत का इस्तेमाल करके घर चलाया। सीधा हिसाब लगाया जाए तो कहा जा सकता है कि या तो लोगों के पास मौजूदा वक्त में कोई धन बाकी नहीं है या फिर लोग धीरे-धीरे नौकरियों की तरफ लौट रहे हैं, जैसा कि पिछली तिमाही के जीडीपी के आंकड़े दर्शाते हैं कि नौकरियों में इजाफा हो रहा है, भले ही यह बेहद कम क्यों न हो।
इस गिरावट ने भारत को विषम तरीके से प्रभावित किया है। विश्व बैंक के आंकड़ों का इस्तेमाल करके प्यू रिसर्च सेंटर ने आकलन किया है कि महामारी के चलते आई आर्थिक मंदी के कारण एक ही साल में भारत में गरीबों (प्रतिदिन 2 डॉलर या उससे कम की आय वाले लोग) की संख्या 6 करोड़ से 13.4 करोड़ हो गई है। यह इजाफा दोगुना से भी अधिक है।
यहां से भारत ऐसी परिस्थिति की तरफ जा रहा है जो अकल्पनीय तौर पर विपदाग्रस्त नजर आ रही है। यह आंकड़ा ऐसे समय पर आया है जब हमें लगा था कि महामारी तकरीबन खत्म हो ही चुकी है। गंभीर हानि पहुंचाने वाली दूसरी लहर भी भारत में अप्रैल में आई, जब नया वित्त वर्ष शुरू होता है। यह दूसरी लहर अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी सेंध लगा रही है, जिसके चलते अधिक क्षेत्रों में और लंबे समय तक के लिए पाबंदियां और लॉकडाउन लगाया जा रहा है। और ऐसे में जब तकरीबन 50 करोड़ लोग भारत के गांवों में रहते हैं, तो इसे दुनिया की पहली ग्रामीण महामारी कहा जा सकता है।
1 मई से 24 मई के बीच भारत में तकरीबन 78 लाख नए मामले दर्ज किए गए, जो किसी महीने में अब तक सबसे अधिक हैं। इस दौरान, दुनिया में आने वाला कोविड-19 का हर दूसरा नया मामला भारत से था। और इस महामारी के चलते दुनिया में होने वाली हर तीसरी मौत भारत में हुई। इस दौरान भारत में दर्ज हुआ हर दूसरा नया मामला ग्रामीण इलाकों से रहा जबकि हर दूसरी मौत भी गांवों में ही दर्ज की गई। यानी दुनिया का हर तीसरा मामला भारत के ग्रामीण इलाकों से निकला।
पहली लहर में ग्रामीण क्षेत्रों पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था, बल्कि तब यह आम धारणा थी कि कोविड-19 शहरी इलाकों की बीमारी है। जब हम यह देख ही चुके हैं कि क्षमता से अधिक भार पड़ने पर शहरों और महानगरों में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा कैसे बिखरा है, तो ग्रामीण क्षेत्रों में क्या हाल हुआ होगा, इसकी कल्पना मात्र ही डरावनी लगती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि भारत पिछले वित्त वर्ष की तुलना में अपनी आर्थिक स्थिति बरकरार रखेगा या और खराब करेगा? संकेत तो ऐसे हैं कि इस साल हालात पिछले साल के मुकाबले कहीं अधिक खराब होने वाले हैं। इस बीमारी ने ग्रामीण क्षेत्रों पर जो हमला किया है, उसके चलते देश का अच्छे हालात में लौटना मुश्किल और अप्रत्याशित लगता है।
दूसरी लहर, जो कि ग्रामीण इलाकों तक भी पहुंची है, वह देश की पहले से गरीब आबादी के लिए और भी घातक बनकर उभरी है। विशेषज्ञों का पूर्वानुमान है कि देश की 50 करोड़ से अधिक की ग्रामीण आबादी एक क्रूर चक्र में फंस जाएगी।
ग्रामीण भारतीय- जिसमें अधिकतम लोग अनौपचारिक श्रमिक बल का हिस्सा हैं और लगभग सभी परिभाषाओं से गरीब हैं- वे महामारी से होने वाले विध्वंस के कारण पिछले एक साल से अनियमित रोजगार के साथ जी रहे हैं। अधिक ग्रामीण मामलों के साथ यह दूसरी लहर पहले से मौजूद आर्थिक संकट को और बढ़ा देगी।
इतना ही नहीं, मामलों के बढ़ने के कारण स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च भी तेजी से ऊपर जा सकता है, जिससे लोगों की आय या बचत पानी की तरह बह सकती है। फिलहाल सभी राज्यों में लोगों के घर से बाहर निकलने और गतिविधियों पर रोक लगी है।
लॉकडाउन की कड़ाई पिछले साल जैसी नहीं है, इस साल इस राज्य से दूसरे राज्य तक और राज्यों के भीतर एक जिले से दूसरे जिले तक लॉकडाउन की स्तर अलग-अलग है। ठीक ऐसे ही, पाबंदियों का हटाया जाना भी राज्यों पर निर्भर करेगा। लिहाजा, जिन लोगों के पास पिछले एक साल से नियमित आय नहीं है, वे गंभीर आर्थिक अनिश्चितता की स्थिति में जी रहे हैं। सभी संकेत इस तरफ इशारा करते हैं कि इन हालातों के चलते लोग गरीबी के कुचक्र से बाहर नहीं आ पाएंगे।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) के मुताबिक, नौकरियों के खोने और बेरोजगारी के जो आंकड़ों ग्रामीण इलाकों से दर्ज कराए जा रहे हैं वे पिछले साल जैसे नहीं हैं।
सीएमआईई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय बेरोजगारी दर पिछले साल जून के स्तर के करीब हैं, जब देशभर में लगे लॉकडाउन और पाबंदियों के चलते बेराजगारी अपने चरम पर थी। मई 16 वाले सप्ताह में शहरी इलाकों के लिए बेरोजगारी दर 14.71 फीसदी था, जबकि ग्रामीण इलाकों के लिए यह 14.34 फीसदी था। मई माह के मासिक बुलेटिन में भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा, “महामारी ने मजदूरों के काम करने की दर को गिरा दिया है। 2019-20 में यह दर औसतन 42.7 फीसदी थी, जो घटकर 39.9 फीसदी रह गई।”
बेरोजगारी का यह स्तर, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में, इसी को ‘गिरावट का बिंदु’ कहा जाता है। संतोष मेहरोत्रा के मुताबिक, ‘2017-18 में बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे ज्यादा थी। कोविड-19 ने इस स्थिति को गंभीर बना दिया है।’ कई अनुमानों के मुताबिक, दूसरी लहर ने अनौपचारिक सेक्टर को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। मेहरोत्रा ने कहा, ‘पहली लहर से अलग, इस लहर में किसान और उत्पादनकर्ता भी प्रभावित हुए हैं, लिहाजा इससे ग्रामीण सप्लाई चेन पर भी असर पड़ेगा।’
ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूदा महामारी का आर्थिक प्रभाव बेहद नुकसानदेय होने वाला है क्योंकि यहां पर अधिकतर अनौपचारिक और बेहद कम कमाई करने वाली मजदूर आबादी रहती है। दूसरी तरफ भारत की ग्रामीण आय देश की कुल आय में तकरीबन 46 फीसदी का योगदान करती है।
पिछले साल ग्रामीण अर्थव्यवस्था किसी तरह स्थिर बनी रही। कृषि क्षेत्र में हुए ठोस इजाफे और सरकार की तरफ से ग्रामीण योजनाओं पर किए गए खर्च का इसमें बड़ा हाथ रहा। लेकिन इस साल, यह भी रुक कर रह गई है। लाखों लोगों के गांव लौटने के चलते कृषि क्षेत्र में रोजगार में 3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन इस साल इसमें और लोगों को रोजगार दे पाने की क्षमता नहीं है।
इसके अलावा कृषि सौदे के नियम प्रतिकूल होने के कारण बंपर पैदावार होने पर भी कमाई कम और कम ही होती जा रही है। इस वजह से लगातार तीसरे साल सामान्य मानसून रहने के जो फायदे बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं, वे नहीं होंगे। कम आय का मतलब होगा खपत पर कम खर्च।
ठीक ऐसे ही, देश में होने वाले निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग का 50 फीसदी ग्रामीण इलाकों में होता है। इसमें ग्रामीण आबादी सिर्फ मजदूर की भूमिका नहीं निभाती, बल्कि काम देती भी है। लॉकडाउन के चलते इन गतिविधियों पर भी असर पड़ता है और डिमांड में आई कमी के चलते यह गतिविधियां सुस्त पड़ी हैं। यहां भी ग्रामीण क्षेत्रों की आय में गिरावट दर्ज होगी।