फ्री ट्रेड एग्रीमेंट: क्या करे भारत सरकार कि विदेशों में बढ़े कारोबार?

यदि भारत ने एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के साथ इस तरह के व्यापक मुक्त व्यापार समझौते के लिए मना कर दिया है, तो इसमें एक विवशता दिखाई देती है, क्या हैं इसके कारण
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 भारत सरकार का दावा है कि वह अब तक हुए सभी मुक्त व्यापार समझौतों (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट, एफटीए) की समीक्षा कर रही है। यह तो आने वाले वक्त बताएगा कि समीक्षा में क्या निकलेगा, लेकिन डाउन टू अर्थ ने एफटीए के असर की पड़ताल की और रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट क्या है। पढ़ें, दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा कि आखिर केंद्र सरकार को आरसीईपी से पीछे क्यों हटना पड़ा। तीसरी कड़ी में अपना पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स की वजह से पुश्तैनी काम धंधे बंद होने शुरू हो गए और सस्ती रबड़ की वजह से रबड़ किसानों को खेती प्रभावित हो गई। चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स ने चौपट किया कपड़ा उद्योग ।पांचवीं कड़ी में अपना पढ़ा, सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद दाल क्यों आयात करता है भारत । छठी कड़ी में पढ़ा कि लहसुन तक चीन से आना लगा तो क्या करे किसान? । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, दूसरे देशों से कारोबार में भारत ने खाई मात, बढ़ा व्यापार घाटा । तो अब भारत सरकार को क्या करना चाहिए , इस विषय पर डाउन टू अर्थ के लिए भारतीय वैश्विक संबंध परिषद गेटवे हाउस में फॉरेन पॉलिसी स्टडीज प्रोग्राम शोधार्थी राजीव भाटिया ने एक लेख लिखा। पढ़ें, 

‘अगले चार साल तक भारत कोई भी मुक्त व्यापार समझौता करने की स्थिति में नहीं’

राजीव भाटिया

आरसीईपी में शामिल नहीं होने का निर्णय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उठाया गया एक साहसिक कदम है। हालांकि यह उनके लिए आसान निर्णय नहीं था, लेकिन उन्होंने इसे इसलिए लिया क्योंकि आरसीईपी आर्थिक दृष्टिकोण से भारत के लिए आकर्षक नहीं था और इसका हमारे अपने कारोबार पर बुरा असर पड़ता। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस कदम का हमारे पूर्व की नीतियों और इंडो-पैसिफिक नीतियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता और इससे क्षेत्र में हमारी स्थिति कमजोर होगी। मैं उनसे सहमत नहीं हूं। हम जानते हैं कि भारत को उन क्षेत्रों की आवश्यकता है और उन क्षेत्रों को भारत की आवश्यकता है। रणनीतिक, राजनीतिक और राजनयिक विश्लेषण बताते हैं कि हमारे हित एक-दूसरे से जुड़े हैं। 

लेकिन हमें अधिक लचीला और व्यावहारिक होना होगा। यद्यपि मैं एक अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन मुझे लगता है कि भारत आने वाले तीन से चार वर्षों में किसी भी नए मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर नहीं कर सकता। देश को मजबूत बनाने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना होगा। तभी, भारत मुक्त व्यापार समझौतों में भाग लेने में सक्षम होगा।

यूरोपीय संघ के साथ एक समान व्यापार समझौते के बारे में केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल के हालिया बयान को सुनकर, ऐसा लगता है कि यह सामरिक हो सकता है। यदि भारत ने एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के साथ इस तरह के व्यापक मुक्त व्यापार समझौते के लिए मना कर दिया है, तो यह दर्शाता है कि इसकी विवशता वास्तविक और मजबूत हैं। 

जब भारत अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ व्यवहार करेगा तो वे गायब नहीं होंगे। यह ये सुझाव देने के लिए नहीं है कि भारत को सभी वार्ताओं को रोक देना चाहिए, लेकिन इस मोर्चे पर धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। पिछले दशक में भारत-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ किए गए मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर चीजें बदल गई हैं। दोनों पक्ष अब अपना पूरा लाभ पाने के लिए वार्ता का पुनर्मूल्यांकन करेंगे। भारत को द्विपक्षीय व्यापार समझौतों का पूरा लाभ नहीं मिल रहा था क्योंकि इसके सेवा क्षेत्र की पहुंच आसियान, जापान और अन्य बाजारों तक नहीं थी। अब, हमारा ध्यान विदेशी वस्तुओं के प्रवाह को विनियमित करने और अन्य देशों में सेवाओं को बढ़ावा देने पर होगा।

(लेखक गेटवे हाउस में फॉरेन पॉलिसी स्टडीज प्रोग्राम में शोधार्थी हैं)


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