यद्यपि उत्तराखंड से पलायन की समस्या आजादी के तत्काल बाद से ही शुरू हो गई थी, लेकिन पिछले दो दशकों में उसका सबसे डरावना रूप हमारे सामने आया है। सैकड़ों गांव घोस्ट यानी भुतहे गांवों की श्रेणी में आ गए और हजारों गांव अर्ध बंजर हो गए। राज्य सरकार के योजना आयोग की रिपोर्टों ने बार-बार इस तथ्य की पुष्टि की लेकिन एक के बाद एक सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठा पाईं। पिछली हरीश रावत सरकार ने भी “हिटो पहाड़” नाम का नारा दिया था लेकिन किसी ठोस योजना के अभाव में वह बेअसर ही रहा। त्रिवेन्द्र रावत की भाजपा सरकार ने समस्या की गंभीरता को देखते हुए पलायन आयोग का गठन किया, जिससे कुछ आशा बंधी कि शायद अब समस्या को गंभीरता से समझा जाएगा।
कोविड महामारी ने मौजूदा सरकार को एक अवसर दिया कि वह देश या प्रदेश के विभिन्न शहरों से घर लौट आये लोगों को प्रदेश में ही रोक पाए और रोजगार तथा जिन्दगी के बेहतर अवसर मुहैया करवा सके। उसने कोशिश की भी है। पलायन आयोग ने उत्तराखंड लौटे दो लाख 75 हजार लोगों से इस सम्बन्ध में बातचीत भी की कि यदि गांवों या कस्बों में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाए जाएं तो क्या वे यहीं रुकना चाहेंगे? आश्चर्य की बात यह है कि सर्वे में भाग लेने वाले सिर्फ 30 प्रतिशत लोगों ने ही प्रदेश में ही रह जाने की बात स्वीकारी। बाकी लोग महामारी खत्म हो जाने के बाद अपने-अपने ठिकानों में लौट जाना चाहते थे। सवाल यह भी है कि जो तीस प्रतिशत लोग यहां रह जाना चाहते हैं, उनका जोश या मातृभूमि के प्रति लगाव कितने दिन टिका रह पायेगा, क्योंकि प्रदेश के हालात में आज भी बहुत सुधार नहीं आया है। बात सिर्फ रोजगार की ही नहीं है। पहाड़ की जिन्दगी की जो मुश्किल परिस्थितियां हैं, खास कर गांवों में महिलाओं की जो मुश्किलें हैं, उनमें सुधार आते-आते अभी बहुत वक्त लगेगा। जिन लोगों को शहरी जिन्दगी की आदत पड़ गई है, वे बहुत कोशिश करने पर भी फिर से ग्रामीण जीवन के साथ तादात्म्य कायम नहीं कर पायेंगे। देखना यह भी है कि नया राज्य बनने के बाद हुआ ज्यादातर पलायन गांवों से शहरों में हुआ है, भले ही शहर प्रदेश के भीतर ही क्यों न हों।
आबादी के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 के बाद सबसे ज्यादा पलायन अल्मोड़ा और पौड़ी जिलों से हुआ। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि ये जिले प्रदेश के बड़े और मैदानी शहरों के सबसे करीब थे। कोटद्वार, रामनगर, हरिद्वार, हल्द्वानी और देहरादून शहरों का चूंकि बहुत तेजी से विकास हो रहा था, इसलिए लोग गांव छोड़ कर शहरों-कस्बों में अपने भविष्य की तलाश करने लगे। फिर राज्य बनने के बाद औद्योगिक विकास भी हरिद्वार, उधम सिंह नगर का ही ज्यादातर हुआ। पन्तनगर, सितार गंज, रुद्रपुर और हरिद्वार में ही नए औद्योगिक संस्थान बने। इन शहरों ने प्रदेश के उन युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाए, जो तृतीय या चतुर्थ श्रेणी के कामों के लायक थे। साथ ही विकसित होते अन्य शहरों ने भी ग्रामीणों को अपनी ओर आकर्षित किया। शहरों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी सुविधाएं तो हैं ही, साथ ही महिलाओं को घर में ही रह कर या छोटी-मोटी सफेदपोश नौकरियों के अनुभव ने शहरी जीवन का स्वाद तो चखा ही दिया। सुबह-सवेरे उठकर पानी भरना, गोठ से गोबर साफ करना, जंगल से घास और लकड़ी काट कर लाना और खेती-बाड़ी के श्रम-साध्य कामों से एक बार आदत छूट गयी तो फिर से उसी दलदल में कौन धंसना चाहेगा?
जो युवा कृषि, वानिकी या कुटीर उद्योग से सम्बंधित अपने रोजगार स्थापित करना चाहते हैं, वे भी गांव की कष्टसाध्य जिन्दगी नहीं जीना चाहते। अंततः ये लोग भी पड़ोस के शहर या कस्बे में आकर रहने लगेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार ने ढेर सारे रोजगार विकल्प इन युवाओं को दिए हैं, 25 लाख रुपए तक के आसान ऋण देने की घोषणा भी की है, लेकिन वास्तव में सरकार की मशीनरी का जमीनी तबका अभी उसके लिए तैयार नहीं है, इसलिए आंकड़ों में जो उजली तस्वीर अभी दिखाई दे रही है, जमीन तक उतरते-उतरते उसमें वक्त लगेगा। यह अच्छी बात है कि बहुत से उजड़े गांवों में फिर से खेतों की जुताई होने लगी है, घरों में लटके ताले खुलने लगे हैं। साथ ही पहले से गांवों में रह रहे लोगों ने इन नवागतों का स्वागत किया है, लेकिन यह टिकाऊ साबित हो, तब बात बनेगी। इसलिए केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों को इस समस्या को गंभीरता से लेकर ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए, जिससे क्षेत्रीय असंतुलन दूर हो, गांव और शहर के बीच जीवन की खाई दूर हो, मैदान और पहाड़ के बीच भेदभाव दूर हो। निश्चय ही इसके लिए अर्थ और विकास नीति में व्यापक बदलाव करना होगा। तभी यह रिवर्स पलायन भी स्थायी साबित होगा और भविष्य में भी युवा छोटे-छोटे रोजगारों के लिए बड़े शहरों में दर-दर भटकने को मजबूर न हों।
(लेखक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी में पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन स्कूल के निदेशक हैं)