भारत सरकार का दावा है कि वह अब तक हुए सभी मुक्त व्यापार समझौतों (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट, एफटीए) की समीक्षा कर रही है। यह तो आने वाले वक्त बताएगा कि समीक्षा में क्या निकलेगा, लेकिन डाउन टू अर्थ ने एफटीए के असर की पड़ताल की और रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट क्या है। पढ़ें, दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा कि आखिर केंद्र सरकार को आरसीईपी से पीछे क्यों हटना पड़ा। तीसरी कड़ी में अपना पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स की वजह से पुश्तैनी काम धंधे बंद होने शुरू हो गए और सस्ती रबड़ की वजह से रबड़ किसानों को खेती प्रभावित हो गई। चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स ने चौपट किया कपड़ा उद्योग ।पांचवीं कड़ी में अपना पढ़ा, सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद दाल क्यों आयात करता है भारत । छठी कड़ी में पढ़ा कि लहसुन तक चीन से आना लगा तो क्या करे किसान? । पढ़ें, अगली कड़ी -
1995 के बाद से विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के बाद भारत में आयात इस कदर बढ़ा है कि देश के किसानों और कारोबारियों को बड़ा नुकसान पहुंचा है। खासकर पुश्तैनी कारोबार तो लगभग समाप्त ही हो गए। कॉरपोरेट द्वारा संचालित ग्लोबलाइजेशन की निगरानी वाली संस्था फोकस ऑन ग्लोबल साउथ के बेनी कुरूविला कहते हैं कि मुक्त व्यापार समझौतों का कृषि पर बड़ा असर पड़ा है। कृषि निर्यात की बजाय आयात बढ़ रहा है।
भारत का कृषि निर्यात 2016-17 में घटकर 33.87 अरब डॉलर हो गया, जो 2013-14 में 43.23 अरब डॉलर था। 2016-17 में कृषि वस्तुओं (बागान और समुद्री उत्पादों सहित) का आयात बढ़कर 25.09 अरब डॉलर हो गया जो 2013-14 में 15.03 अरब डॉलर था।
यूनाइटेड प्लांटर्स एसोसिएशन ऑफ साउथ इंडिया जो तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में चाय, कॉफी, रबड़, इलायची और काली मिर्च के बागानों का प्रमुख निकाय है, के अध्यक्ष एएल आरएम नागप्पन कहते हैं, “आयात व निर्यात नीतियों के कारण बागान वस्तुओं को भी नुकसान पहुंचा है। 2018-19 में बागान की वस्तुओं में व्यापार घाटा 5,717 करोड़ रुपए था।”वहीं, मुक्त व्यापार के कारण एक अन्य नकदी फसल काली मिर्च के उत्पादकों को भी नुकसान उठाना पड़ा है। भारत-श्रीलंका और वियतनाम के साथ मुक्त व्यापार में प्रवेश करने के बाद घरेलू काली मिर्च की कीमत 1999 में 770 रुपए प्रति किलोग्राम से घटकर 2018 में 330 रुपए प्रति किलोग्राम हो गई, जो उत्पादन लागत से काफी कम है।
सेंट्रल एरेकनट एंड कोको मार्केटिंग एंड प्रोसेसिंग कोऑपरेटिव के अध्यक्ष सतीशचंद्र का कहना है कि श्रीलंका से नकली बिल के साथ काली मिर्च आयात की जाती है। यह ऐसी वस्तु है जिसे निर्यात के बजाय आयात किया जा रहा है। 2018-19 के दौरान आरसीईपी में शामिल देशों के साथ काली मिर्च का व्यापार घाटा 415.31 करोड़ रुपए था। एफटीए से भारत के सुपारी उत्पादकों को नुकसान पहुंचा है। दुनिया भर में कुल उत्पादन के मुकाबले अकेले भारत में सुपारी का 50 फीसदी उत्पादन होता है। सतीशचंद्र कहते हैं, “जब भी घरेलू बाजारों में आयातित सुपारी और काली मिर्च की मात्रा अधिक हो जाती है, तो कीमतें गिर जाती हैं।” किसान पहले से ही म्यांमार से आने वाली सस्ती सुपारी की वजह से नुकसान झेल रहे हैं।
दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था माध्यम के निदेशक कवलजीत सिंह कहते हैं कि मुक्त व्यापार समझौता (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स- एफटीएएस) आमतौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाते हैं और इनसे छोटे और मध्यम उद्यमों को नुकसान होता है। ऑस्ट्रेलियन काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स ने भी यह तर्क दिया है कि आरसीईपी समझौते से केवल सस्ते विदेशी श्रमिकों के लिए द्वार खुलेंगे।
आरसीईपी से इनकार करने के लगभग एक सप्ताह बाद 11 नवंबर 2019 को देश के प्रमुख औद्योगिक संगठन पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स ने एक दिलचस्प रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में एआईएफटीए से पहले 2009 तक भारत का निर्यात और आयात में लगभग 22 फीसदी (कंपाउंड एनुअल ग्रोथ रेट, सीजीएआर) की दर से वृद्धि हो रही थी, लेकिन 2010 में द आसियान-इंडिया फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (एआईएफटीए) के बाद सीजीएआर वृद्धि केवल 5 फीसदी ही रह गई।
दिल्ली स्थित इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस के शोधार्थी दुर्गेश के. राय भी कहते हैं कि भारत और आसियान देशों के बीच हुए एफटीए से भारत का एशिया के साथ कुल व्यापार घाटा 2009-10 में 8 अरब डॉलर से बढ़कर 2018-19 में लगभग 22 अरब डॉलर हो गया। भारत इस समझौते में 2010 में शामिल हुआ था। इसी अवधि में भारत का कुल व्यापार घाटा 7 प्रतिशत से बढ़कर 12 प्रतिशत हो गया।
देश ने दक्षिण कोरिया के साथ अपने व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते में भी कमी की है, जहां इसका घाटा 2009-10 में 5 अरब डॉलर से बढ़कर 2018-19 में 12 अरब डॉलर हो गया। ऐसी ही कहानी भारत-जापान एफटीए के साथ भी है, जो अगस्त 2011 से प्रभावी है।
दरअसल, आरसीईपी समझौते से भारत को सबसे ज्यादा खतरा चीन है। चीन ने भारतीय अर्थव्यवस्था में अपनी पैठ लगातार बढ़ाई है। हालांकि भारत और चीन के बीच वर्तमान में आर्थिक और व्यापार सहयोग के लिए एक पंचवर्षीय कार्यक्रम है, जिसे 2014 में शुरू किया गया था। तब से दोनों देशों के बीच एक व्यापार समझौते पर सीमित रूप से प्रगति हुई है।
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विश्वजीत धर ने अपने शोध पत्र (भारत और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी: मुख्य मुद्दे और निहितार्थ) में बताया है कि 2003-04 में भारत को अपने उत्तरी पड़ोसी के साथ 1 बिलियन डॉलर के व्यापारिक घाटे का सामना करना पड़ा, लेकिन एक-डेढ़ दशक के भीतर, यह बढ़कर 63 बिलियन डॉलर हो गया।
ऐसा इसलिए था, क्योंकि आयात 2003-04 में 4 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2017-18 में 77 बिलियन डॉलर हो गया, जबकि निर्यात 3 बिलियन डॉलर से बढ़कर 13 बिलियन डॉलर ही रहा। जुलाई 2018 में जारी एक संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि चीनी सामानों का कई क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, जिसमें फार्मास्यूटिकल्स, सौर, कपड़ा, खिलौने, पटाखे और साइकिल शामिल हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि चीनी वस्तुओं ने कई औद्योगिक इकाइयों को विशेष रूप से एमएसएमईएस (सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्यम) क्षेत्र को अपनी क्षमता से कम पर काम करने या अपना कारोबार बंद करने के लिए मजबूर कर दिया है, जिससे स्थानीय रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
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