देव नारायण सिंह
विश्व की लगभग 20 प्रतिशत पशुधन आबादी वाले देश भारत में सूखे चारे विशेषतः गेहूं के भूसे एवं धान के पुआल की कीमतें पिछले वर्ष की तुलना में 2 से 3 गुना तक बढ़ गई हैं। भूसे की कीमतों में बढ़ोतरी की वजहें स्थानीय हैं। सामान्य बाजार में किसी वस्तु की कीमतें उसकी मांग व उपलब्धता पर निर्भर करती हैं। भूसे एवं चारे की उपलब्धता में कमी के कारणों पर गौर करें तो पता चलता है कि इस समस्या के तात्कालिक कारणों के साथ-साथ बहुत से ऐसे कारण भी हैं जिनका संचित परिणाम आज इस चारा संकट के रूप में उभरा है ।
तात्कालिक कारणों में प्रमुख रूप से गेहूं के रकबे में कमी व जलवायु परिवर्तन के असर से उत्पादन में कमी है। पिछले वर्ष के 336 लाख हेक्टेयर की तुलना में इस वर्ष केवल 317 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर ही गेहूं की फसल उगाई गई। इसके पीछे की प्रमुख वजह घटते भूमिगत जल स्तर से महंगी होती सिंचाई व बढ़ती लागत के कारण किसानों का कम लागत व कम पानी चाहने वाली फसलों जैसे चना व सरसों की तरफ आकर्षित होना है। खाद्य तेलों की बढ़ती कीमतें भी सरसों की खेती के आकर्षण का प्रमुख कारण हैं। इसके अलावा गेहूं की फसल की कटाई हेतु लगातार बढ़ते मशीनों के प्रयोग विशेषतः कंबाइन हार्वेस्टर ने भी भूसे की कमी को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है।
हाथ से फसल काटकर थ्रेसर से मड़ाई करने की तुलना में कंबाइन से कटाई-मड़ाई पर लगभग आधा ही भूसा प्राप्त होता है। हालांकि कंबाइन के प्रयोग को बढ़ावा देने में कटाई हेतु मजदूरों की कमी व इसके पीछे सरकारों द्वारा दिए जा रहे मुफ्त राशन और मनरेगा जैसी योजनाओं का योगदान भी कुछ कम नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में पशुओं के चारे हेतु धान के पुआल की कट्टी की उपलब्धता व प्रयोग भी घटा है। इसके पीछे की वजह भी मशीनों से फसल कटाई है, जिसमें केवल बालियां काट ली जाती हैं और पुआल/पराली को खेत में ही जला दिया जाता है।
आज से एक-डेढ़ दशक पहले की बात करें तो अधिकांश पशुपालक साल के तीन-चार महीने जानवरों को धान के पुआल की कट्टी ही खिलाते थे। लेकिन आज पूर्णतया भूसे पर निर्भर रहते हैं, जिससे भूसे की मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ती जा रही है। भूसे की बढ़ती मांग की एक वजह हमारे देश की बढ़ती पशुधन आबादी भी है जो 0.66 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। 53.6 करोड पशुधन आबादी वाले देश में भूसे की आसमान छूती कीमतों का एक कारण यह भी है कि हमारे यहां अधिकांश मवेशी सूखे चारे यानी भूसा या पुआल, ज्वार-बाजरा की कर्वी एवं राशन (मोटे अनाजों या चावल की कन, चोकर आदि) पर ही निर्भर रहते हैं।
क्योंकि हरे चारे की उपलब्धता बहुत कम है। इसके अलावा बढ़ती आबादी ने सार्वजनिक भूमियों जिनका उपयोग पहले चारागाह के रूप में किया जाता था, पर भी भवन निर्माण व औद्योगिक इकाइयों के निर्माण हेतु कब्जा करके भूसे पर निर्भरता बढ़ाने का काम किया है। भूसे के बढ़ते औद्योगिक उपयोग (कागज एवं ईट भट्ठे आदि में) ने भी आग में घी डालने का काम किया है ।
हरे चारे की उपलब्धता कम होने की अपनी अलग वजहें हैं। विश्व की 17.5 प्रतिशत मानव आबादी वाले देश के पास मात्र 2.3 प्रतिशत भूमि है, ऐसे में वह इस सीमित भूमि को खाद्य फसलों की खेती हेतु प्रयोग करें या चारा उत्पादन हेतु? हालांकि जितनी जरूरी खाद्य फसलें है, उतना ही आवश्यक पशुधन का चारा भी है। परंतु अधिकांश सरकारों ने इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया, तथा चारा उत्पादन सरकारी नीतियों में हाशिए पर ही रहा है। शायद यही वजह है कि विश्व की सबसे अधिक पशुधन आबादी वाले देश में चारा उत्पादन, उपलब्धता, मांग व खपत के आधिकारिक आंकड़े प्रतिवर्ष जारी नहीं किए जाते। आंकड़ों के अभाव में सरकारों के लिए चारा संकट की समस्या को नकारना तो आसान है परंतु इससे समस्या का समाधान नहीं होता।
हरे चारे की कमी की प्रमुख वजह बहुत कम क्षेत्रफल (4 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि) पर सीमित संसाधनों से दोयम दर्जे के प्रबंधन के अंतर्गत इसकी खेती करना है। उच्च उत्पादन क्षमता वाली चारे की फसलों के गुणवत्तापरक बीजों की अनुपलब्धता भी एक प्रमुख कारण है। हरा चारा सूखे चारे की अपेक्षा अधिक पौष्टिक होता है और इसकी उपलब्धता बढ़ाकर न केवल भूसे की बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाया जा सकता है बल्कि दूध उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है। लुसर्न, बरसीम, जौ, जई, सूडान चरी, एमपी चरी, अफ्रीकन मक्का, नेपियर घास, शुगर ग्रेज आदि हरे चारे की फसलें हैं, जिन्हें साल के विभिन्न मौसमों में आवश्यकता अनुसार उगाकर चारा संकट को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।
परंतु यह सरकारों, वैज्ञानिकों व पशुपालक किसानों के संयुक्त प्रयास से ही संभव है। इसके लिए सरकारों को चाहिए कि भूसे के औद्योगिक उपयोग पर प्रतिबंध लगाएं, हरे चारे के उत्पादन को बढ़ावा देने व चारागाहों के विकास हेतु उचित नीतियां बनाएं तथा चारा उत्पादक किसानों को प्रोत्साहन दें। वैज्ञानिकों को हरे चारे की फसलों की उन्नतशील प्रजातियां विकसित करनी होंगी तथा सीमांत व कृषि आयोग भूमियों में कृषि वानिकी के तहत चारा उत्पादन की तकनीक विकसित करनी होंगी तथा पशुपालक किसानों को भूसे पर निर्भरता कम करने व हरे चारे के उत्पादन पर ध्यान देना होगा। लघु एवं सीमांत किसान खेत की मेड़ों पर नेपियर घास जैसी चारे की बहुवार्षिक फसलें उगा कर कुछ हद तक चारे की समस्या को दूर कर सकते हैं ।
(लेखक उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय में सस्य विज्ञान विभाग के सहायक प्राध्यापक हैं)