प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना: कहां हुई चूक?

40 करोड़ युवाओं के कौशल में विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना की शुरुआत हुई थी, लेकिन...
कार्टून साभार: विक्रम नायक, एकता परिषद
कार्टून साभार: विक्रम नायक, एकता परिषद
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एक सत्यकथा है। 9 नवम्बर 2014 को एक नये मंत्रालय का जन्म हुआ जिसका मकसद देश के लगभग 65 फीसदी युवाओं को बेहतर भविष्य देने के लिये रोज़गार योग्य कौशल सुनिश्चित करना था /है। 15 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा कौशल विकास योजना का प्रारूप रखते हुए यह तय हुआ कि हर बरस लगभग एक करोड़ युवाओं को बेहतर रोजगार योग्य कौशल में प्रशिक्षित करके देश के विकास से जोड़ा जाए। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के अंतर्गत महत्वपूर्ण रूप से रिकग्निशन ऑफ प्रायर लर्निंग (RPL) का आयाम रखते हुये यह माना गया कि उन्हें असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में लाया जाएगा। सत्य यह भी है कि भारत जैसे देश में कौशल मंत्रालय ने बहुत ही कम समय में उम्मीदों की पूरी एक दुनिया खड़ी कर दी है।

आज देश के जो लाखों करोड़ों युवा बेरोजगार, महामारी और आर्थिक असुरक्षा के मध्य अपने गावों की ओर लौट रहे हैं, उन्हें भी/ही इस सत्यकथा का पात्र होना था। बहरहाल, वे असम से लगभग 3500 किलोमीटर दूर मजदूरी की तलाश में केरल में हैं; बिहार से 1500 किलोमीटर चलकर पंजाब आये युवाओं की आंखों में भी वही सपना है; तेलंगाना से लगभग 1000 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र आए मजदूरों को लगता है कि बेहतर रोजगार की मुट्ठी भर संभावना यहां है, और ओडिशा से गुजरात 2000 किलोमीटर आए हजारों युवाओं ने यह मान लिया है कि अपनें घरों से दूर शायद यहीं वो कुछ कमाकर पूरे परिवार का पेट पाल सकते हैं। इनमें से हर कोई इतना सौभाग्यशाली नहीं था, जिसे कौशल विकास प्रशिक्षण केंद्र में जाने-सीखने का अवसर मिलता। यह महज संयोग है कि इनमें से ज्यादातर युवा 'कौशल विकास मंत्रालय' के विषय में नहीं जानते, लेकिन यह केवल संयोग नहीं है कि लगभग ये सभी प्रवासी श्रमिक ऐसे किसी भी संभावनाशील मंत्रालय के प्रति गंभीर नहीं हैं।

राहुल मरावी, मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल डिंडोरी जिले का युवा है जो इस बरस अपने जिले के लगभग 200 से अधिक युवाओं के साथ रोजगार की तलाश में आंध्र प्रदेश और कर्नाटक गया। राहुल बताते हैं कि ज्यादातर लोग यहां भवन निर्माण, लोडिंग-अनलोडिंग और छोटी कंपनियों में काम करते हैं। उनका कौशल क्या था ये वो सब पूरी तरह से भूल चुके, रोजगार कार्यालय में कब पंजीयन करवाया था उन्हें यह भी अब याद नहीं। डिंडोरी में कोई प्रतिष्ठान, कौशल विकास केंद्र के रूप में दर्ज़ है ऐसा कभी उन्होनें सुना ही नहीं है। राहुल और उसके जैसे पलायन करने वाले युवा श्रमिक, यह गहराई से जानते और मानते हैं कि उनकी नियति, सरकार की योजनायें और घोषणाएं नहीं, बल्कि एक ऐसी मज़बूरी है जो डिंडोरी के आदिवासी गावों से निकलकर सुदूर महानगरों में एक असुरक्षित भविष्य तलाशनें के लिये उन्हें बाध्य करती है।

झारखण्ड के सिमडेगा जिले की एल्मा एक्का भी उन भाग्यशालियों में नहीं थी, जिन्हें सरकार ने लाखों बेरोजगारों के बीच कौशल केंद्र में कुछ सीखने समझने का अवसर देती। एल्मा कहती है कि मैं बांस और लकड़ी के कारीगरों के गांव में जनमी और पली बढ़ी। मुझे लगता था कि एक दिन मैं भी इसी काम को आगे बढ़ाते हुए परिवार को पाल-पोस सकूंगी। और फिर हमारे जंगलों में वन विभाग का राज आते ही हम सब वन-अपराधी घोषित कर दिए गए। हमारे अपने बाप-पुरखा के जंगल से बांस और लकड़ी लाने की सजा, सरकार ने मुकर्रर कर दी। हमारा संसाधन और हुनर दोनों छिन गया। पलायन मुझे विरासत में नहीं, बल्कि एक ऐसी मजबूरी की वास्तविकता के रूप में मिली, जिसने मुझे और मुझ जैसे हजारों युवतियों को उनके गांवों से हमेशा-हमेशा के लिए जुदा कर दिया।

बहरहाल यदि आपको डिंडोरी और सिमडेगा में किसी सक्रिय कौशल विकास केंद्र की तलाश है, तो वो पूरी होने पर राहुल और एल्मा जैसे आँखों में सुरक्षित भविष्य का सपना संजोए युवाओं को जरूर बताइए। घोषित किए तंत्र पर उनका जो मरता हुआ भरोसा था वो संभव है किसी सच्ची ख़बर से पुनः जिंदा हो जाये। लेकिन यदि आपकी तलाश अधूरी है तो यह झूठ कहने का साहस जुटाइये कि समाज और सरकार 'उनको' लेकर संवेदनशील है। अच्छा होता, राहुल और एल्मा को सच और हमें झूठ कहने का अवसर न मिला होता।

बुनियादी सवाल यह है कि इस देश को 'आत्मनिर्भरता' को प्रोत्साहित करने वाले कौशल संवर्धन का तंत्र चाहिये या 'आत्मनिर्भर कौशलकारों और हुनरमंदों ' को सम्मान और उन्हें उनका स्थान देने की ईमानदार पहल चाहिए ? मंडला, मुर्शिदाबाद, मधुबनी और मयूरभंज के बरसों से स्थापित बेहतरीन कौशल को खारिज करते हुए लोगों को मशीनों में झोंक देना आखिर कौन सा कौशल संवर्धन है? यदि जांजगीर चाम्पा के बुनकरों से अधिक कीमती, पावर प्लांट के अकुशल मज़दूर हैं तो क्या कौशल विकास की नयी परिभाषा नहीं गढ़ी जानी चाहिये? और फिर भागलपुर के हजारों कारीगरों को पंजाब-हरियाणा के ईंट भट्ठों में मजदूरी के लिये धकेल देना आखिर किनकी असफलताओं की जिंदा मिसालें हैं?

वर्ष 2019 में नीति आयोग का सुझाव था कि कौशल विकास की संभावना के मद्देनजर विद्यालयीन शिक्षा को इसका माध्यम बनाया जा सकता है ताकि प्रशिक्षण के लिए आधारभूत संरचना का विस्तार किया जा सके। इसीलिए वर्ष 2017-18 के 2356 करोड़ रुपए की तुलना में वर्ष 2018-19 के बजट में 3400 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया ताकि वर्ष 2022 तक लगभग 40 करोड़ सक्षम युवाओं को विभिन्न कौशल में प्रशिक्षित किया जा सके। भारत सरकार की रिपोर्ट के अनुसार अब तक लगभग 2.5 करोड़ युवाओं को प्रशिक्षित किया जा चुका है। अर्थात आगामी ढाई बरस के भीतर लगभग 37.5 करोड़ युवाओं को प्रशिक्षित किया जा सकता है।

सूरत के मिल में कार्य करने वाला बिहार का अनिल कुमार, विज्ञान का स्नातक है किन्तु अब मिल में एक साधारण सा सुरक्षा गार्ड है। लगभग यही कहानी बंगाल के दीपनारायण की भी है जो इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा घर पर छोड़ आया और अब इंदौर के कंपनी में माल ढुलाई का हिसाब किताब रखने वाला मुंशी है। मणिपुर की संध्या देवी का हुनर बेहतरीन सूती कपड़े और शॉल बनाना था, लेकिन अब उसकी पहचान दिल्ली में एक और गुमनाम घरेलू कामगार की तरह है। हरियाणा का सुखविंदर भी उन पढ़े लिखे बेरोजगार की कतार में कहीं खड़ा ऊर्जावान युवा था जो अब मुंबई का एक अनाम टैक्सी ड्राइवर है। बहरहाल इनमें से कोई भी वर्ष 2022 की पटकथा का जिंदा पात्र नहीं हो सका और न ही ये सब अब भी अपनी उम्मीदों को फिर जिंदा करने का कोई असाधारण सा सपना पाले हैं।

बेरोजगारों का ये कारवां किसी घोषित अवसर की प्रतीक्षा में खड़ा भी रह सकता था। लेकिन इनमें से हर कोई अपनी पगडंडियां खुद गढ़ने आगे बढ़ गये। आज उनका मुट्ठीभर सपना केवल इतना ही है कि घर-परिवार का ठीक से भरण पोषण कर सकें। नये भारत के निर्माण के लिये उन 40 करोड़ संभावनाशील युवाओं में शामिल न होने की टीस उन सबमें भी है तो ज़रूर, लेकिन 2022 तक का फ़ासला भी तो कम नहीं।

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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