ग्राउंड रिपोर्ट: लौट रहा है 'शजर' का दौर, एक जिला एक उत्पाद योजना से आई जान

बांदा के मृतप्राय सदियों पुराने शजर लघु उद्योग में एक जिला एक उत्पाद योजना ने काफी हद तक जान फूंक दी है
ग्राउंड रिपोर्ट: लौट रहा है 'शजर' का दौर, एक जिला एक उत्पाद योजना से आई जान
सभी फोटो: भागीरथ / सीएसई
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बांदा के शजर हस्तकला उद्योग से जुड़े 58 साल के द्वारिका प्रसाद सोनी उन गिने-चुने कारोबारियों में शामिल हैं, जिन्होंने अपने पुश्तैनी व्यवसाय को आंखों के सामने दम तोड़ते देखा है। लेकिन पिछले 6-7 साल उनके लिए राहत भरे रहे हैं।

उन्हें लगता है कि यह मृतप्राय लघु उद्योग अब फिर से जिंदा होने की राह पर है। शजर पत्थर से ताजमहल, इंडिया गेट और राम मंदिर की प्रतिकृति बनाने वाले और 2011 में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित द्वारिका प्रसाद सोनी इसका श्रेय एक जिला एक उत्पाद (ओडीओपी) योजना को देते हैं।

सोनी के अनुसार, साल 2000 से यह उद्योग लगभग पूरी तरह खत्म हो गया था। 2017 तक जिले में केवल 30-35 कारीगर ही इस व्यवसाय से जुड़े थे। लेकिन 2017 में शजर हस्तकला को ओडीओपी में शामिल करने के बाद इस उद्योग से करीब 250 लोग और 15-20 कारोबारी जुड़ गए हैं।

राज्य सरकार की इस योजना ने शजर कारोबारियों को आर्थिक संबल प्रदान किया और उन्हें 50 लाख रुपए तक के लोन पर 25 प्रतिशत की सब्सिडी मिलने लगी है। इससे कई कारोबारी जो उद्योग से मुंह मोड़ चुके थे, वापस इस व्यवसाय से जुड़ने लगे। सोनी ने भी इस योजना के तहत 2019-20 में जिले में सबसे पहले 25 लाख रुपए का लोन लिया था और इस रकम की मदद से उन्होंने अपने कारखाने के लिए कुछ मशीनें खरीदीं थीं।

इस सरकारी प्रोत्साहन के बाद सोनी का टर्नओवर 2019 में 25 लाख रुपए से बढ़कर 2022-23 में डेढ़ से दो करोड़ रुपए तक पहुंच गया। साथ ही उनकी उत्पादन क्षमता भी 5,000 पीस से बढ़कर 25,000 पीस तक पहुंच गई है। सोनी अपने तीन कारखानों में तैयार होने वाले शजर उत्पादों को जयपुर, दिल्ली और मुंबई में व्यापारियों को बेचते हैं, जहां से यह विदेशों में जाता है। वर्तमान में उनके तीन कारखानों में 12-13 कर्मचारियों का स्टाफ है। 2017 से पहले केवल तीन लोग ही उनके कारखानों में काम करते थे।

सोनी के बाद 14 और लोगों ने योजना के तहत लोन लिया। लोन लेने वालों में 7 पुरानी इकाइयों के संचालक थे जबकि 8 नई इकाइयां थीं। ऐसी ही एक नई इकाई शेख अब्बासुद्दीन ने भी 2021-22 में 25 लाख रुपए का लोन लेकर शुरू की है। लोन के बाद उन्होंने अपना राजस्व 30 लाख रुपए से बढ़ाकर 50 लाख रुपए कर लिया है। अब्बासुद्दीन के पिता की आभूषणों की दुकान है। वह बताते हैं कि शजर पत्थर स्वतंत्र रूप से नहीं बिकता। इसे मुख्यत: आभूषणों में जड़कर बेचा जाता है।

ओडीओपी के बाद मार्च 2023 में शजर हस्तकला को अपनी विशिष्टता के लिए मिले भौगोलिक संकेतक (जीआई) ने भी इस लघु उद्योग को पहचान दिलाई। जीआई टैग के लिए 2019 में “केन हस्तशिल्प उत्थान समिति फिल्ट्रेशन” के जरिए आवेदन करने वाले द्वारिका प्रसाद सोनी कहते हैं कि जीआई टैग मिलने से भारत सरकार द्वारा लगाई जाने वाली प्रदशर्नियों में शजर हस्तकला को देशभर में दिखाने का नियमित मौका मिलने लगा।

हालांकि बांदा के अलीगंज में करीब 25 साल से शजर का कारखाना चला रही गीता अग्रवाल मानती हैं कि ऐसी प्रदर्शनियों में माल नहीं बिकता क्योंकि इसमें आने वाले अधिकांश लोगों को इस पत्थर की खूबियां और इतिहास की जानकारी ही नहीं होती। गीता के कारखाने में 10-12 लोग काम करते हैं और उसमें तराशा गया शजर अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में निर्यात होता है।

उपायुक्त उद्योग गुरुदेव रावत डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि ओडीओपी के बाद विभाग चाह रहा है कि इसे ज्यादा से ज्यादा लोग समझें। अभी इससे जुड़े लोग केवल बांदा शहर में ही सीमित हैं। अगर आसपास के गांव के लोग इससे जुड़ेंगे तो इसका प्रचार-प्रसार होगा।

विभाग इसे प्रोत्साहित करने के लिए हर साल प्रशिक्षण देता है। इसमें शामिल होने वाले लोगों को प्रतिदिन 200 रुपए का मानदेय दिया जाता है। उन्हें पत्थर की घिसाई और कटाई के लिए एक टूलकिट भी मिलती है।

शजर के सबसे पुराने शिल्पकारों में शामिल और 1983 में राजकीय पुरस्कार विजेता सतीश चंद्र भट्ट मानते हैं कि सरकारी मदद से इस लघु उद्योग को काफी फायदा मिला है और कई नए लोग इससे जुड़े हैं। हालांकि वह यह भी मानते हैं कि जब तक सरकारी मदद मिलती रहेगी, यह कला जिंदा रहेगी।

2017 में शजर हस्तकला लघु उद्योग को ओडीओपी में शामिल करने के बाद इस उद्योग से करीब 250 लोग और 15-20 कारोबारी जुड़ गए हैं। बांदा के अलीगंज में चल रही एक औद्योगिक इकाई में शजर की सधाई करते कारीगर। यहां तराशा गया शजर कई यूरोपीय और अरब देशों में भेजा जाता है
2017 में शजर हस्तकला लघु उद्योग को ओडीओपी में शामिल करने के बाद इस उद्योग से करीब 250 लोग और 15-20 कारोबारी जुड़ गए हैं। बांदा के अलीगंज में चल रही एक औद्योगिक इकाई में शजर की सधाई करते कारीगर। यहां तराशा गया शजर कई यूरोपीय और अरब देशों में भेजा जाता है सभी फोटो: भागीरथ / सीएसई

क्या है शजर

शजर पत्थर को वैज्ञानिक भाषा में डेंड्राइट एगेट के नाम से जाना जाता है। यह क्वार्ट्ज परिवार का पत्थर है। मोस स्केल पर इसकी कठोरता करीब 7 होती है जो नीलम के समकक्ष है। मान्यता है कि इस पत्थर को पहनने से ताकत और शांति मिलती है और ईश्वर प्रसन्न रहता है। मुस्लिम समुदाय में इसे बेहद पाक माना गया है।

स्थानीय लोगों में यह भी मान्यता है कि पूर्णिमा की रात में पत्थर पर जिसकी भी छाया पड़ती है वह उसमें दर्ज हो जाती है। बांदा के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यिक पत्रिका मुक्त चक्र के संपादक गोपाल गोयल कहते हैं कि एक फोटोजेनिक पत्थर है। वह बताते हैं कि एक बार भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बांदा आए थे। पूर्णिमा की रोशनी में वह केन नदी के पास खड़े थे, तभी उनकी छाया एक शजर पर पड़ी और वह उसमें दर्ज हो गई। वह बताते हैं कि नेहरू की आकृति वाला वह शजर पत्थर बहुत महंगा बिका था।

हालांकि सतीश चंद्र भट्ट ऐसी किसी मान्यता पर यकीन नहीं करते। वह कहते हैं कि इसकी उत्पत्ति की दो थ्योरी है। एक थ्योरी यह है कि वॉलकैनिक युग में जब लावा निकल रहा था, तब एगेट, आयरन और मैगनीज भी निकला। एगेट असल में सिलिका ऑक्साइड है। यह बाहर आकर ऑक्सीसाइड होकर ठोस बन गया।

वह बताते हैं कि इसका मेल्टिंग प्वाइंट है 2,600 डिग्री सेल्सियस है जबकि बाकी खनिजों का मेल्टिंग प्वाइंट 1,100 से 1,600 डिग्री सेल्सियस के बीच है। सिलिका जब सॉलिड हुई तब मिनिरल तरल अवस्था में थे। ये मिनिरल सिलिका की दो परतों के बीच दब गए और पैटर्न के रूप में फैल गए।

भट्ट के अनुसार, दूसरी थ्योरी यह है कि जब सिलिका की दो परतें एक-दूसरे जुड़ीं तो उनके बीच कुछ जगह खाली रह गई। पिघला हुआ मिनरल उस खाली जगह में जमा हो गया और दबाव पड़ने पर उसने पैटर्न बना दिया। वह मानते हैं कि ऐसा नहीं है कि शजर में केवल पैटर्न ही निकलते हैं। इसमें धब्बे भी निकलते हैं। ये घटनाएं उस वक्त ही हैं जब धरती पर जीवन नहीं था। उस समय पृथ्वी आग का गोला थी।

जर्नल ऑफ लैंग्वेज एंड लिटरेचर में 2022 में प्रकाशित उमाशंकर यादव, रविंद्र त्रिपाठी, ज्ञान प्रकाश यादव और मानो आशीष त्रिपाठी ने अपने अध्ययन “शजर स्टोन (हकीक) : इंडियन शजर हेरिटेज इज इन डिक्लाइन स्टेज” में लिखा है, “शजर पर हम जो पैटर्न देखते हैं, वो फंगस (शैवाल) के फंसे हुए जीवाश्मों के अलावा और कुछ नहीं हैं। शजर पत्थर के दो या अधिक टुकड़ों के बीच फंसा फंगस एसिड या बेस पैदा करता है। यह एसिड या बेस पत्थरों को पारदर्शी बनाता है और अकार्बनिक गोंद के रूप में कार्य करता है और अलग-अलग पत्थरों को चिपका देता है। पत्थरों के अंदर फंसे फंगस के जीवाश्म पत्तियों या पेड़ों के पैटर्न की तरह दिखते हैं और पत्थर की सुंदरता को बढ़ाते हैं।”

बांदा में शजर के बड़े व्यापारी द्वारिका प्रसाद सोनी की आभूषणों की दुकान पर शजर फुटकर और आभूषणों में जड़कर बेचा जाता है। द्वारिका बांदा में शजर के बड़े शिल्पकार हैं जिन्हें राष्ट्रपति और राज्य सरकार द्वारा इस कला को प्रोत्साहित करने में उनके योगदान के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है। शजर को जीआई टैग दिलाने में भी उनकी अहम भूमिका रही है
बांदा में शजर के बड़े व्यापारी द्वारिका प्रसाद सोनी की आभूषणों की दुकान पर शजर फुटकर और आभूषणों में जड़कर बेचा जाता है। द्वारिका बांदा में शजर के बड़े शिल्पकार हैं जिन्हें राष्ट्रपति और राज्य सरकार द्वारा इस कला को प्रोत्साहित करने में उनके योगदान के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है। शजर को जीआई टैग दिलाने में भी उनकी अहम भूमिका रही है

सोनी के अनुसार, यह बांदा से गुजरने वाली केन नदी में पाया जाता है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि अब यह पत्थर केन में मिलना बंद हो गया है और बांदा में जिस शजर पत्थर की आपूर्ति होती है वह नर्मदा नदी से लाया जाता है। लेकिन इसमें कोई विवाद नहीं है कि इसे तराशने का काम बांदा में ही होता है। भारत के अलावा यह ब्राजील, चीन, ऑस्ट्रेलिया, कजाकिस्तान, मेडागास्कर, मैक्सिको, मंगोलिया, नामीबिया, उरुग्वे और अमेरिका में भी पाया जाता है।

दिखने में यह आम पत्थर जैसा होता है, लेकिन जब इसके जानकारों द्वारा जब इसे तराशा जाता है तो उसके अंदर पेड़-पौधे, पत्तियों, चिड़ियों, मानवों आदि की खूबसूरत आकृतियों निकलती हैं, जिन्हें शजर कहते हैं। बांदा में पारंपरिक रूप से इसे तराशने का काम किया जाता है। केन नदी के आसपास रहने वाले लोगों खासकर मल्लाह समुदाय को इसकी पहचान होती है।

बरसात या बाढ़ के बाद जब नदी में ज्यादा पानी आ जाता है, तब इस पत्थर को खोजा जाता है और फिर से बांदा में इसे तराशने के काम में लगे व्यापारियों तक पहुंचाया जाता है। शजर कारोबारी गीता अग्रवाल कच्चा पत्थर औसतन 400-500 रुपए किलो के भाव पर खरीदती हैं। जबकि द्वारिका प्रसाद सोनी कहते हैं कि कच्चे पत्थर की गुणवत्ता देखकर ही उसका भाव तय होता है। यह भाव 1,000-5,000 रुपए प्रति किलो तक हो सकता है।

फैक्ट्रियों में पहुंचने पर सबसे पहले पत्थर की कटाई होती है। इस प्रक्रिया में अधिकांश पत्थर बेकार हो जाते हैं क्योंकि शजर न मिलने पर उनका कोई उपयोग नहीं होता। आमतौर पर शजर केवल 5 प्रतिशत पत्थर में ही निकलता है। द्वारिका प्रसाद सोनी कहते हैं कि एक क्विंटल कच्चे माल में मुश्किल से 2-6 पत्थर में ही शजर होता है। कई बार तो पूरी खेप में कोई शजर नहीं मिलता।

पत्थर की कटाई के दौरान जिस पत्थर में शजर की शिनाख्त होती है, उसे छांट लिया जाता है। फिर उसे सधाई के लिए आगे बढ़ाया जाता है। इस प्रक्रिया में शजर को आकार दिया जाता है। इसके बाद इसे चिकना करने वाले कारीगर के पास भेजा जाता है और अंतत: पॉलिश होकर यह अंतिम उत्पाद के रूप में सामने आता है। यह अंतिम उत्पाद मुख्य रूप से आभूषणों में लगकर उसे आकर्षक बनाता है।

शजर इस प्रकार के सामान्य से दिखने वाले पत्थर के अंदर छिपा होता है। शजर के कारोबार से जुड़े कारीगर और उद्यमी ही उसकी पहचान कर सकते हैं। कारोबारियों की शिकायत है कि यह पत्थर काफी महंगा हो गया है, जिससे उनकी लागत बढ़ गई है
शजर इस प्रकार के सामान्य से दिखने वाले पत्थर के अंदर छिपा होता है। शजर के कारोबार से जुड़े कारीगर और उद्यमी ही उसकी पहचान कर सकते हैं। कारोबारियों की शिकायत है कि यह पत्थर काफी महंगा हो गया है, जिससे उनकी लागत बढ़ गई है

पुराना इतिहास

चेन्नई स्थित जियोग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री कार्यालय को उपलब्ध कराए गए दस्तावेजों के अनुसार, बांदा पिछले 300-400 वर्षों से शजर हस्तशिल्प का केंद्र है। करीब 400 साल पहले एक अरब ने इसे खोजा था। इसमें छपी आकृतियों से वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने इसका नाम शजर रख दिया। अरबी में इसका अर्थ पेड़ या झाड़ होता है। मुगलकाल में इस कला को स्थानीय राजाओं व नवाबों ने काफी प्रोत्साहित किया। बांदा के नवाब जुल्फिकार अली खान बहादुर पत्थर की कटाई करने वाले अब्दुल्ला के काम के इतने मुरीद हुए कि वह उसे महाराष्ट्र से बांदा ले आए। अब्दुल्ला ने बांदा के स्थानीय लोगों से शजर की जानकारी ली। इसके बाद वह शजर को तराशने के काम में लग गए। 1911 में शजर कला का प्रदर्शन महारानी विक्टोरिया के दरबार में किया गया था। उस वक्त शजर हस्तशिल्पी और अब्दुल्ला के बेटे अब्दुल गफ्फार महारानी विक्टोरिया के राजतिलक में पहुंचे थे और अपनी कला का प्रदर्शन किया था। 1993 तक अब्दुल्ला की 10-11 पीढ़ियां इस पुश्तैनी काम को करती रहीं। इस काम में उनकी महारथ को देखते हुए उन्हें उस्ताद कहा जाता था।

दस्तावेजों के मुताबिक, 1920-21 में इस काम में 30 परिवार और करीब 250 कारीगर लगे थे लेकिन स्वतंत्रता के बाद यह कला क्षीण होने लगी और 1970 तक लगभग खत्म होने के कगार पर पहुंच गई। 1973-74 में में ईरान एक कारोबारी के बांदा आने के बाद इस काम ने फिर जोर पकड़ लिया। 1970-80 के दशक में विदेशों में इसकी मांग बढ़ने पर कई कारोबारियों ने इस उद्योग को अपना लिया। सतीश चंद्र भट्ट कहते हैं कि उन्होंने खुद 1970 के दशक में ईरान के कारोबारियों को सीधा शजर बेचा था। वह यह भी बताते हैं कि शजर का काम एक नशे की तरह है। इसे एक बार शुरू करने के बाद कारोबारी नुकसान उठाते हुए भी उसे जारी रखता है।

कटे हुए पत्थर में शजर दिखाते द्वारिका प्रसाद सोनी। उनके कुल तीन कारखाने हैं जहां शजर तलाशने का काम किया जाता है। वह बांदा में एक जिला एक उत्पाद के बाद लोन लेने वाले पहले कारोबारी हैं। इस लोन की मदद से उन्होंने अपने कारखानों के लिए  कुछ मशीनें खरीदीं
कटे हुए पत्थर में शजर दिखाते द्वारिका प्रसाद सोनी। उनके कुल तीन कारखाने हैं जहां शजर तलाशने का काम किया जाता है। वह बांदा में एक जिला एक उत्पाद के बाद लोन लेने वाले पहले कारोबारी हैं। इस लोन की मदद से उन्होंने अपने कारखानों के लिए कुछ मशीनें खरीदीं
बांदा के एक कारखाने में पत्थर में शजर दिखाता एक कारीगर
बांदा के एक कारखाने में पत्थर में शजर दिखाता एक कारीगर

दिक्कतें भी हैं

सरकारी प्रोत्साहन के बावजूद शजर के शिल्पियों के सामने कई दिक्कतें हैं। सबसे बड़ी समस्या कच्चे माल की महंगाई है। भट्ट के मुताबिक, कच्चा माल 2,500 रुपए प्रति किलो के आसपास मिलता है। वह बताते हैं कि सरकारी मदद मिलने के बाद शजर के ज्यादातर कारीगर कारखानेदार हो गए हैं और अधिकांश व्यापार उनके हाथ में आ गया है। उन्होंने बिना यह सोचे समझे कि शजर कितने में बिकेगा, कच्चा माल ऊंचे भाव पर खरीदना शुरू कर दिया। इससे कच्चे माल का भाव 100 गुणा तक बढ़ गया है।

एक समस्या यह है कि इस कला और उद्योग के कद्रदान बहुत सीमित मात्रा में हैं। खुद स्थानीय लोग इससे अनजान हैं। भट्ट कहते हैं कि इसके बड़े व्यापारी जयपुर, दिल्ली और मुंबई में है। ये बड़े व्यापारी ही शजर के कारोबार को नियंत्रित करते हैं और भाव भी वही तय करते हैं। उनके मुताबिक, बांदा के स्थानीय व्यापारियों के लिए व्यापार लाइसेंस लेना बेहद कठित है।

गीता अग्रवाल मानती हैं कि एक तो कच्चा माल महंगा है और कभी-कभी उसमें एक भी शजर नहीं निकलता। इससे पूरा माल और पैसे बर्बाद हो जाते हैं। वह शजर कारोबार की बेहतरी के लिए स्थानीय बाजार को बढ़ावा देने पर जोर देती हैं।

इसके अलावा बड़े पैमाने पर केन नदी में वैध और अवैध खनन ने शजर की उपलब्धता बुरी तरह प्रभावित की है। द्वारिका प्रसाद सोनी मानते हैं कि खनन के कारण बालू के साथ शजर भी चला जाता है। वह कहते हैं कि बारिश के 4-5 महीने में उन्हें 10-15 क्विंटल कच्चा माल ही प्राप्त होता है। उनका सुझाव है कि शजर हस्तशिल्प को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को दो काम प्राथमिकता के आधार पर करने चाहिए। पहला, जिले में एक कॉमन फैसिलिटी सेंटर की स्थापना और दूसरा एक शजर बैंक खोला जाए। इससे शजर को पहचान और व्यापार को बढ़ावा देने में मदद भी मिलेगी।

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