राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने हाल ही में 2022-23 का आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) जारी किया। यह वार्षिक सर्वेक्षण देश में रोजगार की स्थिति का आकलन करने वाला सबसे बड़ा सर्वेक्षण है। ताजा सर्वेक्षण में 1,01,655 परिवारों के कुल 4,19,512 लोगों को शामिल किया गया। इसे महामारी के वर्षों के बाद सामान्य स्थिति का प्रदर्शित करने वाला पहला सर्वेक्षण माना जा सकता है, इसलिए इसके निष्कर्षों का विशेष महत्व है।
सर्वेक्षण के अनुसार, देश में बेरोजगारी कम हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में 2017-18 में 5.3 प्रतिशत के मुकाबले 2022-23 में 2.4 प्रतिशत बेरोजगारी है। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में 2017-18 में 7.7 प्रतिशत के मुकाबले 2022-23 में 5.4 प्रतिशत बेरोजगारी है।
यह आंकड़ा आकर्षक है, भले ही गैर-सरकारी आंकड़े बेरोजगारी या आजीविका के संकट की ओर इशारा करते हों। आम धारणा है कि देश में रोजगार की स्थिति अच्छी नहीं है। लेकिन क्या यह बड़ा सर्वेक्षण ऐसे किसी संकट की तरफ इशारा करता है जो इसके शीर्षक या निष्कर्षों में छिपा हो?
सर्वेक्षण के निष्कर्ष इस एक तथ्य को बहुत स्पष्टता से दोहराते हैं कि देश में समग्र रोजगार का चरित्र नहीं बदला है। रोजगार देने में अनौपचारिक क्षेत्र का दबदबा है और कृषि प्रमुख रोजगार सृजक है।
असल में कृषि में रोजगार बढ़ा ही है। यह 2018-19 में 41 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 43 प्रतिशत हो गया है। इसके अलावा अनौपचारिक रोजगार अब भी देश में आजीविका का प्रमुख स्रोत है और रोजगार क्षेत्र को औपचारिक बनाना दूर का सपना बना हुआ है।
संक्षेप में कहें तो अधिकांश श्रमबल रोजगार के लिए कृषि क्षेत्र की ओर भाग रहा है। ऐसी स्थिति में एक वाजिब प्रश्न यह उठता है कि क्या कृषि क्षेत्र में अधिक लोगों को खपाने की क्षमता है?
यदि नहीं तो निश्चित रूप से हमारे सामने आजीविका का संकट है। हालांकि, बेरोजगारी दर में कमी इस बात की तरफ इशारा है कि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार तो मिला है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है?
पीएलएफएस डेटा से पता चलता है कि भारत में रोजगार की स्थिति किस वास्तविक संकट से गुजर रही है। भारत में रोजगार का प्रमुख विशेषता यह है कि यहां श्रमबल स्वरोजगार में लगा हुआ है।
यदि कोई व्यक्ति खुद के सेटअप के साथ काम करता है या अपने उद्यमों में लोगों को नियोजित करता है तो उसे स्वरोजगार माना जाता है। स्वरोजगार की परिभाषा व्यापक है। इसमें चाय की दुकान चलाने से लेकर खेत में काम करने व डॉक्टरों का अभ्यास तक शामिल है।
इस श्रेणी के दो प्रकार हैं। एक हैं खाता कामगार या नियोक्ता और दूसरा घरेलू उद्यमों में लगे हेल्पर। स्वरोजगार के दूसरे प्रकार में मूलरूप से अपनी आर्थिक गतिविधियों में किया गया अवैतनिक कार्य है। सर्वेक्षण के अनुसार, देश की कुल नियोजित आबादी में स्वनियोजित लोगों की हिस्सेदारी 2018-19 में 52 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 57 प्रतिशत हो गई है।
दिलचस्प बात यह है कि कुल नियोजित आबादी में अनौपचारिक और नियमित वेतन पाने वालों, दोनों की हिस्सेदारी में कमी आई है। देश में कुल स्वनियोजित लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी 2018-19 में 53 प्रतिशत से 2022-23 में 65 प्रतिशत तक बढ़ गई है।
स्वनियोजित महिलाओं में खुद का काम करने वाली या घरेलू उद्यम में लगी महिलाओं की हिस्सेदारी 2018-19 की तुलना में बढ़ी है। लेकिन दूसरी श्रेणी में यह वृद्धि ज्यादा हुई है। रोजगार के वैश्विक आंकड़ों की मानें तो स्वरोजगार गरीब और विकासशील देशों में अधिक है। आमतौर पर निम्न प्रति व्यक्ति आय वाले देशों में स्वनियोजित आबादी ज्यादा होती है। ऐसे में कह सकते हैं कि दुनिया के अधिकांश गरीब स्वनियोजित हैं।
ये वे लोग हैं जिनके पास नौकरी का करार नहीं है और इनमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो अवैतनिक घरेलू कार्य करते हैं। इसलिए, स्वनियोजन का ऊंचा स्तर संकेत है कि कोई अन्य विकल्प नहीं हैं, इसलिए लोग इन गैर-लाभकारी कामों से चिपके रहते हैं। सर्वेक्षण से भी पता चलता है कि भारत में दिहाड़ी का काम स्वरोजगार के विकल्प से अधिक लाभकारी है।
अन्य देशों की तरह भारत में भी यह विकल्प अधिकांश छोटे और सीमांत किसानों के साथ-साथ भूमिहीनों को भी लुभाता है। इससे पता चलता है कि देश गहरे रोजगार संकट का सामना कर रहा है, लेकिन स्वनियोजन की उच्च दर का इस्तेमाल इस संकट को छुपाने के लिए किया जा रहा है।