आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 में सरकार के द्वारा दखल देकर विभिन्न क्षेत्रों में सुधार लाने की कोशिशों पर काफी विस्तार से अध्ययन किया गया है। इसमें सरकारी दखल से फायदा होने के बजाय उत्पन्न समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया गया है। इसी कड़ी में कृषि ऋण माफी योजनाओं की सर्वेक्षण में काफी आलोचना की गई है और सरकार को सलाह दी गई है कि बिना सोचे समझे और बिना किसी शर्त के ऋण माफी जैसी योजनाओं से बचें और कानून बनाकर इस प्रवृत्ति को रोका जाए।
सर्वेक्षण में कहा गया है कि राज्य सरकारों के स्तर पर ऋण माफी काफी सामान्य घोषणा बनती जा रही है। चुनाव से तुरंत पहले या सरकार में आने के बाद ऐसी घोषणाओं की प्रवृत्ति की शुरुआत 90 के दशक में हुई। वर्ष 2008 में केंद्र सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर ऋण माफी की योजना के बाद से इस प्रवृत्ति में इजाफा हुआ। इसके बाद आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, तेलंगाना और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में इसकी घोषणा हुई।
आर्थिक सर्वेक्षण में तीन अलग-अलग शोध अध्ययनों का जिक्र करते हुए ऋण माफी के दुष्परिणामों की व्याख्या की गई है। एक शोध अध्ययन में पाया गया कि 2010 में आंध्रप्रदेश में ऋण माफी योजना के बाद सरकार ने छोटे ऋण की वसूली को लेकर बैंक को सख्त निर्देश दिए। इससे लोगों में ऋण न चुकाने की भावना आई और नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) की दर 12.4 प्रतिशत से बढ़कर 24.5 प्रतिशत हो गई। मुखर्जी के शोध में 2008 के ऋण माफी के बाद लोगों में ऋण चुकाने की प्रवृत्ति में बदलाव को दिखाया गया। यह शोध दिखाता है कि जिसे ऋण माफी का लाभ नहीं मिला वह ऋण चुकाने के मामले में लाभार्थी से अधिक अच्छा निकला।
कैसे बिगड़ता है क्रेडिट कल्चर
अध्ययन में पाया गया कि ऋण माफी की चर्चा चलने के साथ ही लोगों में ऋण चुकाने की नैतिकता में भारी बदलाव देखने को मिलता है। ऋण माफी के बाद लोग आगे ऋण लेकर न चुकाने की जुगत में रहते हैं, और इससे न उनकी आय में बढ़त होती है न ही कार्यक्षमता बढ़ती है। शोध से सामने आया कि अगर 1 प्रतिशत लोगों तक ऋण माफी योजना जाती है तो 7 प्रतिशत अतिरिक्त लोग ऋण चुकाने से कतराते हैं, यानि बैंक के एनपीए में इतनी ही वृद्धि होती है। चुनाव से पहले ऋण न चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ती है।
आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाव दिया गया है कि बिना किसी अध्ययन के एक तरफ से सभी किसानों का ऋण माफ करने के बजाए जरूरत समझकर सिर्फ जरूरतमंद किसानों का ऋण माफ किया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो फायदे से ज्यादा नुकसान होता है।
कैसे दोगुनी होगी किसानों की आय
आर्थिक सर्वेक्षण में केंद्र सरकार के द्वारा किसानों की आमदनी दोगुनी करने पर उठाए जा रहे कदम और भविष्य की तैयारियों की झलक देखने को मिली। सर्वेक्षण के मुताबिक कृषि और इससे जुड़े क्षेत्र विकास के लिए काफी महत्व रखते हैं और इससे एक बड़े तबके को रोजगार और भोजन मिलता है। हालांकि, यह चिंता का विषय है कि इस क्षेत्र का योगदान देश की आय में 2014-15 में 18.2 प्रतिशत के मुकाबले 2019-20 में 16.5 प्रतिशत ही रह गया है। इससे यह दिखता है कि किसानों की आमदनी दोगुनी करने के रास्ते में अभी कई बाधाएं हैं। सर्वे के मुताबिक इन बाधाओं में फसल बीमा को सुदृढ करना, किसानों को सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना जैसी चुनौतियों से निपटना होगा।
सर्वे कब मुताबिक यहां एक और चुनौती सामने है और वह है खेती के कार्य में मशीनों का प्रयोग बढ़ाना। हमारे देश में खेती में 40 प्रतिशत मशीनों का उपयोग हो रहा जबकि चीन में 60 फीसदी और ब्राजील में 75 फीसदी तक मशीनीकरण कृषि कार्य में है। हालांकि, पशुपालन के क्षेत्र में 8 प्रतिशत की बढ़त किसानों की स्थिति अच्छी करने में एक सुखद बढ़त है। बावजूद इसके कि खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र भी 5 प्रतिशत की दर से बढ़त हासिल कर रहा है, इसे और अधिक बढ़ाने की जरूरत है। इस क्षेत्र में विकास होगा तो किसानों की फसल कटने के बाद नष्ट होने के मामलों में कमी आएगी और उसका उचित प्रसंस्करण हो सकेगा।
सर्वे में जारी आंकड़ों में दिखता है कि नए तकनीक की सिंचाई पद्धति से 20 से 48 प्रतिशत तक पानी की बचत, 10 से 17 प्रतिशत तक बिजली की बचत, मजदूरों पर खर्च में 30 से 40 फीसदी की कमी और 10 से 19 प्रतिशत तक खाद के उपयोग में कमी देखी गई है। सिंचाई की नई तकनीक से फसल का उत्पादन में 20 से 30 प्रतिशत तक बढ़ा है। वर्ष 2018-19 में 1,20,000 हेक्टेयर में इस पद्धति से सिंचाई की गई जो कि 2017-18 के मुकाबले 20,000 हेक्टेयर अधिक है। सूक्ष्म सिंचाई फंड को नाबार्ड के जरिए 5,000 करोड़ रखा गया है।