डीबीटी: गरीब और किसानों के लिए कितनी फायदेमंद

कोविड-19 वैश्विक आपदा के समय में डीबीटी यानी प्रत्यक्ष लाभ अंतरण का इस्तेमाल बढ़ा है, लेकिन क्या यह फायदेमंद रहा?
फोटो: सीएसई
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प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डीबीटी सरकारी योजनाओं की धुरी बन गई है। मौजूदा स्वास्थ्य और आर्थिक संकट को देखते हुए भारत ने इस पर काफी जोर दिया है। संकट गहराने पर इसकी असली परीक्षा होगी। डाउन टू अर्थ ने डीबीटी की चुनौतियों की विस्तृत पड़ताल की। पढ़ें, इस रिपोर्ट की पहली कड़ी-

साठ वर्षीय दिहाड़ी मजदूर राम केवट जब अपने गांव पहुंचा, तो उसके दिमाग में जो सबसे पहला सवाल उठा, वह यह था कि बिना नगदी और काम के जियेंगे कैसे। राम केवट दिल्ली से 450 किलोमीटर की दूरी तय कर झांसी के नजदीक अपने गांव पहुंचे हैं। केवट ने यह दूरी पांच दिन तक पैदल चलकर पूरी की। औसतन 90 किलोमीटर प्रतिदिन चलकर वह अपने गांव पहुंचे। केंद्र सरकार ने कोरोनावायरस के फैलाव को रोकने के लिए 24 मार्च को जब तीन हफ्तों का राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की, तभी केवट समझ गए थे कि उनके सामने रोजगार और भूख का संकट खड़ा हो जाएगा। इसीलिए यातायात का साधन न होने के बावजूद उन्होंने गांव जाने का फैसला कर लिया।

गांव में उन्हें स्थानीय स्तर पर काम करने वाले एक लाभकारी संगठन से एक हफ्ते का भोजन मिल गया जिससे शुरू में उनका गुजारा हो गया। जब उनका राशन खत्म हो गया, तभी 7 अप्रैल को उनके मोबाइल पर एसएमएस आया कि प्रधानमंत्री जनधन योजना (पीएमजेडीवाई) के तहत उनके खाते में 2,000 रुपए जमा किए गए हैं। वह बताते हैं, “एक साल पहले खुलवाए गए इस खाते को मैं पूरी तरह भूल चुका था। साल 2019 में मुझे कोई पैसा नहीं मिला। इस साल भेजी गई रकम मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं है।” पीएमजेडीवाई 2014 में शुरू की गई थी ताकि बैंकिंग सेवा तक सबकी पहुंच सुनिश्चित की जा सके। साल 2019 में सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम किसान) योजना शुरू की जिससे किसानों तीन किस्तों के जरिए साल में 6,000 रुपए की आर्थिक मदद पहुंचाई जा सके। केवट ने इस योजना में अपना पंजीकरण करवाया था। उन्होंने अपने आधार नंबर की मदद से जनधन खाता खुलवाया और मोबाइल नंबर को उससे जोड़ दिया।

केवट भारत के उन 10 करोड़ प्रवासी मजदूरों में शामिल हैं जिन्होंने जीवनयापन का साधन छिनने पर शहर छोड़ दिया। केवट के मामले से संकटकाल में जीवन रक्षक सरकारी मदद का महत्व समझ में आता है। सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में दिए गए हलफनामे के मुताबिक, 31 मार्च तक 60 लाख लोग सड़क पर थे, जिन्हें रोका गया और उनके रहने का इंतजाम किया गया, जबकि 2.2 करोड़ लोगों को राशन दिया गया। हालांकि यह संख्या बढ़ सकती है। गांव और शहरों में लाखों लोगों को मदद की दरकार होगी। ऐसे लोगों की पहचान और उन तक मदद पहुंचाना सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, खासकर तब जब लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया है। 16 अप्रैल को जारी भारतीय स्टेट बैंक की ईकोरैप रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, देश में करीब 70 प्रतिशत आर्थिक गतिविधियां बंद हैं।

चिंता की बात यह भी है कि देश की अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक योगदान देने वाले महाराष्ट्र, तमिलनाडु और दिल्ली में कोरोनावायरस के मामले सबसे अधिक हैं। अप्रैल में जारी एचडीएफसी बैंक की प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, ये तीन राज्य देश के सकल घरेलू उत्पाद में 30 प्रतिशत योगदान देते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और मध्य प्रदेश के क्लस्टरों में कोरोनावायरस के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इन क्लस्टरों में 34 प्रतिशत उत्पादन गतिविधियां होती हैं। ये हालात भविष्य में भी आर्थिक गतिविधियों को क्षीण करते हैं।

डीबीटी की खुराक

लॉकडाउन के भंवर से लोगों को निकालने के लिए वित्तमंत्री निर्मला सीमारमण ने 26 मार्च को 1.70 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा की थी। यह पैकेज प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (पीएमजीकेवाई) के तहत 80 करोड़ लोगों यानी देश की दो तिहाई आबादी को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) के जरिए दिया जाना था। 12 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक गतिविधियों को गति देने के लिए 20 हजार करोड़ रुपए के पैकेज का ऐलान किया। 12 से 17 मई के बीच निर्मला सीतारमण ने 20 लाख करोड़ और 1.70 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की जानकारी देने के लिए 4 प्रेस कॉन्फ्रेंस कीं।

डीबीटी पैकेज में नगद भुगतान और खाद्य सामग्री शामिल थी। नगद भुगतान के रूप में प्रधानमंत्री जनधन योजना (पीएमजेडीवाई) के तहत 20 करोड़ महिला खाताधारकों के खातों में 500 रुपए हस्तांतरित किए गए। साथ ही पीएम किसान योजना के तरह 8.7 करोड़ किसानों के खातों में 2,000 रुपए भेजे गए। यह राशि किसानों को नई फसल चक्र के वक्त दो महीने पहले प्राप्त हो गई। केवट के खाते में भी यही सहायता राशि पहुंची थी। 3 जून को जारी सरकारी प्रेस विज्ञप्ति बताती है कि देश में 42 करोड़ लोगों को पीएमजीकेवाई के तहत 53,248 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद पहुंचाई गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो हर व्यक्ति को 1,267 रुपए की मदद दी गई है।

राहत पैकेज में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में दी जाने वाली मजदूरी को भी प्रतिदिन 182 रुपए से बढ़ाकर 202 रुपए करने का प्रावधान है। इस बढ़ी मजदूरी का लाभ 13.6 करोड़ लाभार्थियों को प्राप्त होगा। खाद्य सामग्री राहत के रूप में जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए तीन महीने का राशन दिया गया। परिवार के प्रति व्यक्ति को हर महीने पांच किलो गेहूं या चावल, एक किलो दाल और प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) के तहत तीन भरे हुए एलपीजी के सिलिंडर नि:शुल्क वितरित किए गए। सरकार का दावा है कि 4 जून तक 1.03 करोड़ टन अनाज 206 करोड़ लोगों को तीन महीने में दिया गया। 30 जून को मोदी ने घोषणा की कि सरकार आने वाले पांच महीने यानी 30 नवंबर तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देगी। इसकी लागत करीब 90,000 करोड़ रुपए होगी। राज्य सरकारों ने भी फंसे हुए प्रवासी मजदूरों को आर्थिक मदद पहुंचानी शुरू कर दी है।

डाउन टू अर्थ एवं सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के डाटा सेंटर के अनुमान के मुताबिक, पांच राज्यों ने 25 अप्रैल तक 15 लाख मजदूरों को 1,000 रुपए तक की मदद की घोषणा की है। अन्य 15 राज्यों ने भी कोरोनावायरस महामारी से प्रभावित लोगों के लिए अपनी-अपनी योजनाएं शुरू की हैं। हालांकि विशेषज्ञों की मानें तो ये उपाय पर्याप्त नहीं हैं।

ईकोरैप की रिपोर्ट में बताया गया है कि लॉकडाउन के दौरान 37.7 करोड़ कामगारों की आमदनी पूरी तरह खत्म हो गई है। इससे करीब चार लाख करोड़ यानी दो प्रतिशत जीडीपी का नुकसान हुआ है। रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि पैकेज पर्याप्त नहीं है। रिपोर्ट कहती है, “इन सेक्टरों को सामान्य दिनों की तरह विकास करने के लिए 3.5 लाख करोड़ के राजकोषीय पैकेज की जरूरत है। हमारा अनुमान बताता है कि श्रम और पूंजी का नुकसान करीब 3.60 लाख करोड़ रुपए का है, इसलिए राजकोषीय पैकेज को बढ़ाकर 3 लाख करोड़ करना चाहिए। इस सेक्टर के लिए पहले चरण में 73,000 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं।” इसका अर्थ है कि 1.7 लाख करोड़ के पैकेज में केवल 73,000 करोड़ रुपए ही ताजी घोषणा में शामिल किए हैं और शेष राशि केंद्रीय बजट 2020-21 का हिस्सा है।

उदाहरण के लिए बजट में पीएम किसान के तहत निर्धारित राशि समय पूर्व दे दी गई और उसे राहत पैकेज में शामिल कर लिया गया। घोषित राहत लोगों तक पहुंचाना बहुत बड़ा काम है और इसमें कई खामियां भी हैं। 2 मई 2020 को एक वेबिनार में दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट (आईएचडी) ने अनुमान लगाया कि देशभर में केवल एक तिहाई प्रवासी मजदूरों को ही राहत पहुंची है।

उत्तर प्रदेश के श्रावास्ती में रहने वाले कामता प्रसाद वर्मा के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। घोषणा के अनुसार उन्हें पीएम किसान के तहत 2,000 रुपए और उनकी मां के जनधन खाते में 500 रुपए पहुंचने चाहिए थे, लेकिन उनके खातों में यह मदद नहीं पहुंची। वर्मा बताते हैं, “मैं फोन और अपनी पत्नी के आधार कार्ड की जानकारी लेकर गांव के प्रधान के पास पहुंचा। प्रधान ने जांच करने के बाद पाया कि राशि हस्तांतरित नहीं हुई है।” मध्य प्रदेश के उमरिया में रहने वाले 45 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर नरोत्तम बैगा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। गांव में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता वृंदावन सिंह बताते हैं कि गांव में कुल 107 परिवार हैं और सभी का जनधन खाता है। लेकिन गांव में किसी भी आर्थिक मदद नहीं मिली।

ये मामले बताते हैं कि सरकार के सामने डीबीटी को ठीक से लागू करना असली चुनौती है। कोरोनावायरस राहत कार्यक्रम 100 सालों में अब तक के सबसे व्यापक सरकारी राहत कार्यक्रम हैं। सरकारी घोषणा के कुछ दिनों बाद केवट के खाते में आए 2,000 रुपए डीबीटी की तेजी की गवाही देते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर इन्फॉर्मल सेक्टर एंड लेबर स्टडीज के प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा बताते हैं, “डीबीटी के माध्यम से राहत पहुंचाने का बहुत महत्व है।” जिस गति से राहत पहुंचाई जा रही है, वह क्रांतिकारी हो सकती है।

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