डीबीटी: 23 प्रतिशत लोगों के पास नहीं हैं बैंक खाते तो कैसे मिलेगा पैसा

डीबीटी का फायदा तब ही मिल सकता है, जब बैंक खाते होंगे और बैंक भी आधार नंबर से जुड़े होंगे तो फिर कितने को मिल रहा है फायदा
फोटो: मीता अहलावत
फोटो: मीता अहलावत
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प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डीबीटी सरकारी योजनाओं की धुरी बन गई है। मौजूदा स्वास्थ्य और आर्थिक संकट को देखते हुए भारत ने इस पर काफी जोर दिया है। संकट गहराने पर इसकी असली परीक्षा होगी। डाउन टू अर्थ ने डीटीबी की चुनौतियों की विस्तृत पड़ताल की।  पहली कड़ी में आपने पढ़ा- डीबीटी: गरीब और किसानों के लिए कितनी फायदेमंद । रिपोर्ट की दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, डीबीटी: स्वीकार्यता बढ़ी, लेकिन लाभ कितना बढ़ा? । पढ़ें, तीसरी कड़ी - 

असंगठित क्षेत्र गणना से बाहर

अभी कम से कम कृषि क्षेत्र में लक्षित लाभार्थियों की लिस्ट है। सैनी बताती हैं, “असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों का कोई डाटाबेस नहीं है। शहरों में असंगठित क्षेत्रों की पहचान करना बड़ी चुनौती है। इस क्षेत्र के मजदूर हर प्रकार के लाभ से वंचित रहते हैं।” श्रीवास्तव उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “वर्तमान संकट में शहरी गरीब और बेघर बड़ी संख्या में लाभ से वंचित होंगे। बहुत से सीजनल प्रवासी मजदूर राज्य की योजनाओं से इसलिए बाहर हो जाते हैं क्योंकि योजनाओं का लाभ लेने के लिए उन्हें भटकना पड़ता है। कई बार उनके परिवार के लोग भी योजना से बाहर हो जाते हैं।” यही वजह है कि सरकार ने इस संकटकाल में मुफ्त राशन लेने के लिए राशन कार्ड की अनिवार्यता खत्म कर दी। वहीं, 14 मई को घोषित दूसरे पीएमजीकेवाई पैकेज में 8 करोड़ बिना राशन कार्ड वाले प्रवासी मजदूरों को मुफ्त राशन देने के लिए 3,500 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया गया है।

पीडीएस को सार्वभौमिक करना समस्या का समाधान लग सकता है लेकिन बहुत से मामलों में ऐसा नहीं होता। उदाहरण के लिए बिहार को लीजिए। अर्थशास्त्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज ने 2016 में बिहार के मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में कहा, “हमें लगता है कि ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी झुग्गियों में पीडीएस को सार्वभौमिक करना बहुत जरूरी नहीं है क्योंकि बिहार में पीडीएस का कवरेज सार्वभौमिक के करीब (84 प्रतिशत) है। हालांकि वास्तविक कवरेज मुश्किल से 70 प्रतिशत है क्योंकि 2011 के बाद आबादी बढ़ी है जिसे केंद्र सरकार ने नजरअंदाज किया।” उन्होंने लिखा, “अगर एक तिहाई आबादी को योजना से बाहर कर दिया जाता है तो 30 प्रतिशत परिवारों पर भूख का संकट खड़ा हो सकता है। इसका मतलब है कि बिहार की 10 प्रतिशत (2019 की अनुमानित जनगणना के मुताबिक 1.3 करोड़) आबादी के सामने इस वक्त भुखमरी की स्थिति है।

झारखंड ने फरवरी 2018 में पीडीएस के जरिए दिए जाने वाले राशन की सब्सिडी सीधे हस्तांतरिक करने का प्रयोग किया था जिसका लाभार्थियों ने विरोध किया। प्रदर्शनकारियों ने अपने विरोध प्रदर्शन को “राशन बचाओ” अथवा “जन वितरण प्रणाली बचाओ” का नाम दिया। डीबीटी के तहत यह पायलट प्रोजेक्ट रांची के नगरी ब्लॉक में अक्टूबर 2017 में शुरू किया गया था। इसमें लाभार्थियों को राशन की सब्सिडी कैश के रूप में बैंक से लेनी थी जिससे वे राशन की दुकान से 32 रुपए प्रति किलो के भाव से चावल खरीद सकें। पहले वे राशन की दुकान से 1 रुपए प्रति किलो की दर से चावल खरीदते थे।

जनवरी 2018 में सिविल सोसायटी संगठनों ने द्रेज के संयोजन में नगरी ब्लॉक के 13 गांवों में सर्वेक्षण किया ताकि लोगों की राय जानी जा सके। सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले थे। सर्वेक्षण में पाया गया कि डीबीटी से लोगों को भारी असुविधा हो रही है और सर्वेक्षण में शामिल 97 प्रतिशत लोगों ने पीडीएस कार्डधारकों ने इसका विरोध किया। करीब आधे लाभार्थी राशन लेने से वंचित हो गए क्योंकि सब्सिडी राशि प्राप्त करने और इसके बाद राशन लेने में उन्हें औसतन 12 घंटे लगते थे। इन लोगों के घर से बैंक 5 किलोमीटर दूर है और 70 प्रतिशत लोगों के पास बिना बैंक गए यह जानने का कोई जरिया नहीं था कि डीबीटी राशि उनके खाते में आई है या नहीं।

जेएएम और बैंकिंग में खामियां

जनधन खाता उन लोगों के लिए था जिनकी पहुंच वित्तीय संस्थानों तक नहीं है। इससे यह सुनिश्चित किया जाना था कि विभिन्न योजनाओं की सब्सिडी उनके खाते में सीधे पहुंच जाए। लेकिन इसमें बहुत सी खामियां हैं। उदाहरण के लिए जनधन खाता खोलने की अर्हता बहुत कमजोर है, नतीजतन बहुत से लोगों के कई खाते हो गए। श्रीवास्तव कहते हैं, “जनधन खाते उन ग्रामीण और शहरी गरीबों के लिए थे जिनके बैंक खाते नहीं थे। लेकिन इसकी जांच नहीं हो सकी और लोगों ने कई खाते खुलवा लिए। इन लोगों को लगता था कि सरकार उनके खातों में 15 लाख रुपए जमा करेगी।” चूंकि प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण का आधार जेएएम (जनधन, आधार और मोबाइल) है, इसलिए सरकार ने इसके तंत्र को मजबूत करने पर ध्यान दिया। सरकार का ध्यान नामांकन बढ़ाने पर नहीं रहा। 2014-19 में सरकार ने 125.7 करोड़ आधार कार्ड जारी किए। इसका जनधन खाते खोलने में इस्तेमाल किया गया।

अब बात मोबाइल की। भारत ने इंटरनेट मोबिलिटी ने पिछले कुछ सालों में अपनी जड़ें जमा ली हैं। ग्रामीण भारत में करीब 20 करोड़ सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। इनमें से 97 प्रतिशत की इंटरनेट तक पहुंच मोबाइल के माध्यम से बनी है। भारत में डीबीटी मिशन के जरिए जब से पैसे का हस्तांतरण शुरू हुआ है, तभी से जेएएम में खामियां रही हैं। उदाहरण के लिए आधार को बैंक खाते से जोड़ना संपूर्ण या पुख्ता उपाय नहीं है। संसद में एक प्रश्न के जवाब में वित्त राज्यमंत्री ने कहा था कि 24 जनवरी 2020 तक 85 प्रतिशत चालू और बचत खाते आधार से जोड़ दिए गए हैं। इसका मतलब है कि अब भी कम से कम 15 प्रतिशत यानी 16 करोड़ भारतीय ऐसे हैं जिनके खाते आधार से नहीं जोड़े गए हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के 2019 के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 40 प्रतिशत गरीबों में से 23 प्रतिशत के पास बैंक खाता नहीं है। इनमें अधिकांश प्रवासी मजदूर हैं। मेहरोत्रा कहते हैं, “सरकार को इन 23 प्रतिशत लोगों की पहचान करनी चाहिए।” श्रीवास्तव का कहना है कि सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी परिवार से लाभ से वंचित न रहे। बड़ी संख्या में निष्क्रिय खाते एक अन्य बड़ी समस्या है। आरबीआई द्वारा दिसंबर 2019 में जारी “रिपोर्ट ऑन ट्रेंड एंड प्रोग्रेस ऑफ बैंकिंग इन इंडिया 2018-19” बताती है कि भारत के कुल गरीबों के खातों में 45 प्रतिशत निष्क्रिय हैं। राहत कार्यक्रमों के दायरे से ये लोग बाहर हो सकते हैं।

अप्रैल के पहले हफ्ते में उत्तर प्रदेश के निर्माण मजदूरों के खाते में भेजी गई आर्थिक मदद के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। टाटा ट्रस्ट माइग्रेशन प्रोग्राम के उत्तर प्रदेश राज्य कार्यक्रम प्रबंधक सलिल श्रीवास्तव ने डाउन टू अर्थ को बताया कि श्रम विभाग में 20 लाख मजदूर पंजीकृत हैं लेकिन आर्थिक मदद केवल 59 हजार मजदूरों के खातों में जमा की जा सकी। ट्रस्ट राज्य के श्रम विभाग के साथ कॉऑर्डिनेशन का काम करता है। सलिल श्रीवास्तव आगे बताते हैं, “शेष खातों में पैसे इसलिए नहीं जमा किए जा सके क्योंकि वे निष्क्रिय थे अथवा उनमें गलत जानकारियां थीं। श्रम विभाग ने ऐसे लोगों के लिए एक वाट्सऐप नंबर जारी किया जिसमें वे बैंक खाते की जानकारी फिर से भेज सकें।”

इसी तरह बहुत से जनधन खाते भी निष्क्रिय हैं। वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने 3 अगस्त 2018 को संसद को जानकारी दी कि 11 जुलाई 2018 तक कुल 6 करोड़ से अधिक जनधन खाते निष्क्रिय हैं। सरकारी अधिकारी कहते हैं कि अप्रैल की 500 रुपए की किस्त सभी 20 करोड़ महिला जनधन खाताधारकों को भेज दी गई है। नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट के डिपार्टमेंट ऑफ फाइनैंशियल इन्क्लूजन एंड बैंकिंग टेक्नॉलजी के चीफ जनरल मैनेजर एलआर रामाचंद्रन कहते हैं, “अगर निष्क्रिय खातों की कोई समस्या है तो उसका समाधान कर लिया जाएगा।”

इसमें कोई संदेह नहीं है कि बैंक इस विस्तृत राहत कार्यक्रम के केंद्र में हैं और वही तय करते हैं कि नगद हस्तांतरण प्रभावी है या नहीं। लेकिन देश में बैंक केंद्रों की कमी है। सरकार के लगभग 1,26,000 बैंक मित्र अथवा बैंक संवाददाता हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सेवा प्रदान करते हैं। इन बैंक मित्रों का भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में 42 हजार गैर बैंक केंद्र हैं और सामाजिक दूरी व लॉकडाउन ने पहुंच को मुश्किल बना दिया है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल वित्त सेवाएं बेहद लचर हैं। 2017 में नाबार्ड द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर किया गया सर्वेक्षण बताता है कि ग्रामीण भारत में 2 प्रतिशत से भी कम आबादी मोबाइल और इंटरनेट बैंकिंग पर निर्भर है। ग्रामीण भारत में मोबाइल इंटरनेट सामान्य है लेकिन नेटबैंकिंग नहीं। ऐसे समय में लोगों को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए कैश की आवश्यकता है। मध्य प्रदेश के रीवा जिले के पकारा गांव के किसान रमेश प्रसाद पांडे बताते हैं कि मुझे बैंक खाते में 2,000 रुपए प्राप्त होने का संदेश प्राप्त हुआ है, लेकिन मैं इसे निकालने की स्थिति में नहीं हूं क्योंकि बैंक 13 किलोमीटर दूर है। गांव का कोई भी व्यक्ति बैंक तक नहीं जा पाया है।

ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग की एक बड़ी चुनौती डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है। 2019 में देश में कुल 2,32,446 एटीएम थे जिनमें से केवल 19 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में थे। इस समय बैंकों को मूलभूत काम करना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में एटीएम की देखरेख और यह सुनिश्चित करना कि लोगों को समय पर पैसा मिल रहा है, बैंकों के लिए मुश्किल है। हालांकि रामाचंद्रन कहते हैं कि इसकी कोई समस्या नहीं है और आरबीआई ने बैंकों को पर्याप्त फंड मुहैया कराया है।

डीबीटी के ठीक से काम करने के लिए वित्तीय समावेश, वित्तीय साक्षरता और रियलटाइम में पैसों तक पहुंच जरूरी है। लेकिन इनकी उपलब्धता और पहुंच देश में समान नहीं हैं। सैनी और उनकी टीम ने 2017 में 26 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेश में किए गए विस्तृत अध्ययन में पाया कि सभी राज्य डीबीटी के लिए समान रूप से तैयार नहीं हैं। राज्यों में नगद हस्तांतरण के लिए बुनियादी ढांचा ही नहीं है। ओडिशा और झारखंड के सुदूर इलाकों में बैंक सेवाएं नदारद हैं। ऐसे क्षेत्रों के लिए बैंक संवाददाता बहुत जरूरी हैं। सरकार यहां नगद हस्तांतरण के लिए गैर लाभकारी संगठनों, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और पंचायती राज संस्थानों की मदद ले सकती है। इनका पूरा डाटाबेस नीति आयोग के पास है।

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