एक महीना पहले तक धनीराम साहू को नहीं पता था कि वायरस या सोशल डिस्टेंसिंग किस बला का नाम है। साहू छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के शंकरदह में रहते हैं। वह कहते हैं, “अब हर कोई कोरोनावायरस और इससे खुद को महफूज रखने की बात करता दिख रहा है।” दुनियाभर के तमाम विज्ञानियों और एपिडेमियोलॉजिस्ट की तरह साहू को भी इस वायरस के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। लेकिन, 24 मार्च को उनका सामना इस वायरस के क्रूर चरित्र से हुआ। उस दिन अहले सुबह धमतरी शहर के घड़ी चौक पर वह 1,500 दिहाड़ी मजदूरों के साथ काम के इंतजार में बैठे थे। राइस मिलर, दुकानदारों, बिल्डरों या धनाढ्य घरों के लोग काम करवाने के लिए यहां से मजदूरों को दिहाड़ी पर ले जाते हैं। काम देने वाले तो आए नहीं, लेकिन कुछ पुलिस कर्मचारी आ धमके। पुलिस कर्मचारियों ने मजदूरों से दो टूक लहजे में कह दिया कि सभी अपने घरों में लौट जाएं और तीन हफ्ते तक अपने गांवों से बाहर कदम न रखें। धनीराम उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, “पुलिसवाले ने हमसे कहा कि कोरोनावायरस से निबटने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन की घोषणा की है।
पुलिस की बात सुनकर हममें से ज्यादातर लोग हक्के-बक्के रह गए। हमें समझ ही नहीं आया कि इस पर क्या प्रतिक्रिया दें।” साहू पांच सदस्यों वाले अपने परिवार में इकलौते कमाने वाले शख्स हैं। मजदूरी कर वह रोजाना 150 से 200 रुपए कमा लेते हैं, जिससे दो दिनों तक परिवार के खाने लायक चावल, दाल और सब्जियां आ जाती हैं। 24 मार्च के पुलिसिया फरमान के एक हफ्ते बाद उन्हें फ्री में अगले दो महीने का राशन मिल गया। साहू ने बताया, “राशन में 70 किलो चावल, 2 किलो चीनी और 4 पैकेट नमक के थे।” लेकिन, उनकी चिंता इससे खत्म नहीं हुई। वह सोचने लगे कि बच्चों के लिए अब दाल और सब्जियों का इंतजाम कैसे होगा।
खदादह जैसे गांवों में गोंड जनजाति की हालत भी कमोवेश साहू जैसी ही है। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार अधिनियम के तहत 100 दिनों के रोजगार (मनरेगा) व वन्य उत्पाद मसलन महुआ, इमली और लाख की बिक्री कर गोंड जनजाति अपनी आजीविका चलाती है। धमतरी, एशिया का सबसे बड़ा लाख उत्पादक क्षेत्र है। लेकिन लॉकडाउन के चलते मनरेगा का काम ठप है। दूसरी तरफ, प्रसंस्करण सेंटर और मार्केट भी बंद है। लुप्तप्राय कमरी जनजाति से आने वाली समरी बाई कहती हैं, “महुआ के फूल पूरी तरह तैयार हो चुके हैं। मैंने कई टोकरी महुआ तोड़ कर रखा है, लेकिन बिचौलिया आ नहीं रहा है और साप्ताहिक हाट भी बंद है। महुए की बिक्री नहीं हो रही है जिस कारण मैं सब्जी या तेल खरीद नहीं पा रही हूं।” वन्य उत्पादों के स्थानीय व्यापारी दिलावर रुकारिया विस्तार से समझाते हुए कहते हैं, “साप्ताहिक हाट जनजातीय अर्थव्यवस्था की जीवनरेखा है।” चूंकि अब वे सामान बेच नहीं पा रहे हैं, तो वन्य उत्पादों के लिए जंगल में जाना भी बंद कर देंगे। इससे वन्य उत्पाद जंगल में खराब हो जाएंगे और जनजातियों की आजीविका पर संकट आ जाएगा।
कोरोनावायरस महामारी ने भारत में ऐसे समय (फरवरी से अप्रैल) में दस्तक दी है जब कृषि व वन्य उत्पादों की बिक्री होती है और किसानों के हाथ में पैसा आता है। हाथ में दो पैसा हो, तो ग्रामीण परिवारों में एक अलग तरह का आत्मविश्वास दिखता है। उत्तर प्रदेश के महोबा जिले के पुपवारा गांव में रहने वाले बिंद्रावन समेत अधिकांश किसानों का यह आत्मविश्वास डिगता दिख रहा है। बिंद्रावन बताते हैं कि इस साल जैसी फसल पिछले 10 साल से नहीं हुई। उम्मीद थी कि फसल बेचकर कर्ज चुका देंगे लेकिन जब बाजार में आढ़ती के पास पहुंचे तो फसल में तमाम कमियां निकाल दीं और कम दाम पर फसल लेने को तैयार हुआ। इतना ही नहीं आढ़ती फसल का मूल्य भी तत्काल नहीं दे रहे हैं। उनका कहना है कि दो से तीन महीने में फसल के पैसे मिलेंगे। यह सब देख बिंद्रावन खरेला स्थित मंडी मंे बेचने के बजाय फसल को घर ले आए।
अब उन्हें लॉकडाउन के बाद हालात सुधरने का इंतजार है। वह बताते हैं कि अगर फसल समय पर नहीं बिकी को खरीफ की फसल प्रभावित हो सकती है। उनका कहना है कि 26 अप्रैल को उनके बड़े बेटे की शादी तय हुई थी। शादी की तैयारियों में काफी पैसा खर्च हो गया। लॉकडाउन के कारण शादी कैंसल होने से उन्हें काफी नुकसान पहुंचा है। अगर फसल समय पर नहीं बिकी और उसके ठीक दाम नहीं मिले तो भारी नुकसान होने की आशंका है। हालांकि सरकार ने किसानों, कृषि संबंधी गतिविधियों और खाद्य आपूर्ति को लॉकडाउन से राहत दी है, लेकिन कोरोनावायरस से लड़ाई में सबसे ज्यादा “कोलेटरल डैमेज” देश की कृषि अर्थव्यवस्था को होता दिख रहा है। इसकी मुख्य वजहें कोरोनावायरस के संक्रमण को लेकर तेजी से फैलती अफवाह और आजादी के बाद कामगारों का शहर से अपने गांवों की ओर सबसे बड़ा पलायन हैं।
रबी फसल पर असर
गेहूं और दाल रबी सीजन की सबसे अहम फसलें हैं। मध्य प्रदेश के सेमोर जिले के बिलकिसगंज के किसान प्रवीण परमार ने कहा कि इस बार खेती के सीजन में भगवान मेहरबान रहे। लेकिन, सरकार की लचर तैयारी के कारण प्रवीण अभी परेशान हैं। मध्य प्रदेश के इस क्षेत्र में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के बावजूद पैदावार अच्छी हुई है। प्रवीण के 8 हेक्टेयर खेत में 50,000 किलो गेहूं की पैदावार हुई है। 15 से 17 मार्च के बीच नकदी की सख्त जरूरत थी, तो उन्होंने नजदीकी मंडी में 1,750 रुपए प्रति क्विंटल की दर से 20,000 किलो गेहूं बेच दिया। हालांकि, सरकार ने गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,952 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है। लेकिन, तब तक सरकार ने गेहूं की अधिप्राप्ति शुरू नहीं की थी। परमार कहते हैं, “सरकार को खाद्य पदार्थों की अधिप्राप्ति करने के बाद लॉकडाउन की घोषणा करनी चाहिए थी।” परमार ने बताया कि उनके गांव के किसानों को अनाज स्टोर कर रखने में कठिनाई हो रही है, क्योंकि उनके पास वैसी व्यवस्था नहीं है। वह उदास होकर कहते हैं, “अगर अनाज खराब हो गया, तो हमें भारी नुकसान होगा।” कुछ ऐसी ही स्थिति से बुंदेलखंड के किसान भी जूझ रहे हैं। बांदा जिले के बसहरी गांव में रहने वाले घनश्याम श्रीवास बताते हैं, “कई साल से सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड में कुदरत की मेहरबानी से 20 साल बाद चने की बंपर पैदावार हुई है। एक बीघा में औसतन तीन क्विंटल चना निकला है, लेकिन उपज मंडी तक पहुंचाने में दिक्कत आ रही है। किसान लंबे समय तक उपज को घर में रखने की स्थिति में नहीं हैं।”
सप्लाई चेन बेपटरी
किसानों की चिंताओं को समझते हुए पश्चिम बंगाल सरकार ने 7 अप्रैल को फूलों की खेती करने वाले किसानों को लॉकडाउन से मुक्त कर दिया। लेकिन, इस निर्णय से पूर्व मिदनापुर के महतपुर गांव के किसान गणेश माइती को बहुत खुशी नहीं हुई। उनका कहना है कि जो नुकसान होना था, वह हो चुका। असल में नवरात्र व अन्य पर्व के चलते मार्च से अप्रैल के बीच फूलों खासकर सूरजमुखी की मांग बाजार में ज्यादा रहती है। फूलों की मांग का गणित समझाते हुए 30 वर्षीय माइती कहते हैं, “चूंकि मार्च से अप्रैल तक मौसम बेहद खुशनुमा होता है, तो लोग वैवाहिक कार्यक्रम व अन्य सामाजिक जुटान का आयोजन इसी समय करते हैं। मगर, इस बार इस सीजन में फूलों की मांग नहीं के बराबर रही। अगर फूलों को सही वक्त पर न तोड़ा जाए, तो इससे पौधों की उत्पादन क्षमता को नुकसान हो सकता है। इसलिए हमने टनों फूल तोड़कर मवेशियों को खिला दिया।” माइती को अनुमान है कि उन्हें दो हफ्ते में 15,000 रुपए का नुकसान हो चुका है।
औद्योगिक संगठनों का कहना है कि फूल बंगाल के हावड़ा, नदिया, उत्तर व दक्षिण 24 परगना और पूर्व मिदनापुर के किसानों की महत्वपूर्ण नकदी फसल है। देश में कुछ फूल उत्पादन में बंगाल की भागीदारी करीब 12 प्रतिशत है। बंगाल फ्लावर ग्रोअर एंड ट्रेडर्स एसोसिएशन के महासचिव नारायण चंद्र नायक ने कहा, “मार्च के मध्य में जब सरकार ने सामाजिक जुटान को लेकर तरह-तरह के दिशा-निर्देश जारी करना शुरू किया था, तभी से फूल बाजार में सुस्ती आने लगी थी। हमारा आकलन है कि लॉकडाउन से 8 से 10 करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है।” नायक ने कहा कि फूल किसानों को नियमों में ढील देने के बावजूद 20 प्रतिशत तक ही मार्केट में रिकवरी हो सकेगी, क्योंकि फूलों की सप्लाई के लिए बहुत कम वाहन उपलब्ध हैं। पश्चिम मिदनापुर के फूल किसान हीरानंद मन्ना कहते हैं, “जब तक विज्ञानी कोरोनावायरस का इलाज नहीं खोज लेते और सामाजिक जुटान से प्रतिबंध पूरी तरह हट नहीं जाता है, तब तक हालात सुधरने के आसार नहीं दिखते।” महाराष्ट्र के नासिक जिले के कदकमालेगांव के 39 वर्षीय किसान योगेश रायाते लॉकडाउन की जरूरत को भली-भांति समझते हैं। वह कहते हैं, “इसके बावजूद मैं पहले कभी इतना चिंतित नहीं हुआ जितना आज हूं।” उनका गांव सहयाद्री पहाड़ी पर है, जो अंगूर की वैराइटी के लिए मशहूर है। वह 2 हेक्टेयर में अंगूर और 8 हेक्टेयर में सब्जी उगा रहे हैं। 15 मार्च को वह अंगूर तोड़ कर क्रेट में सजा रहे थे, तभी उनके कानों में खबर आई कि सरकार ने 31 मार्च तक नासिक में गतिविधियों पर रोक लगा दी है। योगेश कहते हैं, “हमें उस दिन 10,000 किलो अंगूर बिक जाने की उम्मीद थी, लेकिन व्यापारी नहीं आए। करीब एक हफ्ते के इंतजार के बाद मैंने क्रेट से अंगूर निकाल कर किसमिस बनाने के लिए धूप में सूखने को डाल लिया। मेरा अंगूर एक्सपोर्ट क्वालिटी का था, लेकिन बिक्री नहीं होने से 30-40 लाख रुपए का नुकसान हो गया।”
अंगूर की बिक्री नहीं होने से हुए नुकसान की भरपाई वह फूलगोभी व बंदगोभी बेचकर करने की योजना बना रहे थे कि केंद्र सरकार ने लॉकडाउन की अवधि बढ़ा दी। वह कहते हैं, “लॉकडाउन बढ़ाने का वक्त हमारे लिए निर्दयी रहा। घोषणा के अगले दिन हमने घर के भीतर रहकर गुड़ी पड़वा (मराठी हिन्दुओं के नए साल की शुरुआत इसी पर्व के साथ होती है और इस पर्व के साथ ही रबी फसल की कटाई भी शुरू हो जाती है) मनाया।” इसके दो दिन बाद ही सरकार ने मंडियों, अधिप्राप्ति करने वाली एजेंसियों, कृषि गतिविधियों और कृषि मजदूरों को लॉकडाउन से छूट दे दी। लेकिन, रायाते का कहना है कि व्यापारियों ने बंदगोभी और फूलगोभी 2-3 रुपए प्रति किलो की दर से खरीदने का प्रस्ताव दिया। व्यापारियों ने इसका कारण मांग में गिरावट और यातायात पर प्रतिबंध बताया। कुछ दिन बाद उन्होंने 1.5 लाख रुपए की खड़ी फसल को रोटावेटर से रौंद दिया। कृषि उत्पादों से उन्हें कमाई नहीं हो पाई है, तो वह सोच नहीं पा रहे हैं कि 18 लाख रुपए का कृषि लोन कैसे चुकाएंगे। नेशनल फार्मर्स वर्कर्स फेडरेशन के राज्य अध्यक्ष शंकर दारेकर ने कहा कि अंगूर के किसानों को बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के कारण पहले ही 30-40 प्रतिशत का नुकसान हो गया था। ऐसे में लॉकडाउन किसानों पर बड़ा धक्का बनकर आया है। रायाते सोच रहे हैं कि प्राकृतिक आपदा की तरह कोरोनावायरस के चलते लॉकडाउन से हुए नुकसान की भरपाई फसल बीमा से की जाएगी या नहीं।
मजदूरों की किल्लत
पश्चिम बंगाल में घरेलू मांग पूरा करने के लिए प्याज की पैदावार बढ़ाई जा रही है। यहां पिछले पांच वर्षों की तरह इस साल भी प्याज की बम्पर पैदावार हुई है, लेकिन हुगली जिले के एक अत्यधिक उत्पादन वाले जोन में प्याज खेतों में बेतरतीब बिखरा पड़ा है। बालागढ़ ब्लॉक के किसान विकास मलिक इसकी वजह के बारे में विस्तार से समझाते हैं। वह कहते हैं, “प्याज की खेती में बहुत मजदूरों की जरूरत पड़ती है। इसकी बुआई से लेकर कटाई, साफ-सफाई और फिर बोरियों में भरने तक का काम हाथ से होता है। एक बीघा प्याज के खेत में सीजन भर कम से कम 10 मजदूर काम करते हैं। मजदूरों ने प्याज को खेत से उखाड़ना शुरू ही किया था कि लॉकडाउन की घोषणा हो गई। जो मजदूर प्याज उखाड़ने के लिए दूसरे जिलों से गए थे, वो अगली सुबह मुर्शिदाबाद व बर्दवान अपने घर के लिए रवाना हो गए।” हुगली जिले के बनसा गांव के किसान सुब्रत कर्मकार ने कहा, “मेरे गांव के ज्यादातर किसानों ने खेत से प्याज नहीं निकाला है। अगर अगले 15-20 दिनों में प्याज नहीं निकाला गया, तो उसके सड़ने का खतरा बढ़ जाएगा। दूसरी ओर, खेत खाली नहीं होने से हम लोग अगली फसल के लिए खेत तैयार नहीं कर पाएंगे।”
हुगली से मजदूरों का पलायन हो जाने से जिले के आलू किसान भी परेशान हैं। हालांकि, आलू को फरवरी में ही मिट्टी से बाहर निकाल कर कोल्ड स्टोरेज में डाल दिया जाता है। कर्मकार बताते हैं, “आलू की बोरियों को मजदूरों की मदद से ही वाहनों पर लादा और स्टोरेज में सजाकर रखा जाता है। मजदूर नहीं होने से बोरियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में दिक्कत होने लगी है।” उन्होंने कहा कि हुगली के बाजार में अब पुराने स्टॉक में महज दो महीने का आलू बचा हुआ है। इस दो महीने के भीतर मजदूर नहीं लौटते हैं, तो क्षेत्र में आलू की कृत्रिम किल्लत हो सकती है।
मजदूरों की किल्लत से देश की 8,000 दाल मिलों का कामकाज भी ठप हो गया है। अनुमान के मुताबिक, देशभर की दाल मिलों में लगभग 2,40,000 मजदूर काम करते हैं। इन मजदूरों का पलायन उन दाल किसानों के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है जो पिछले तीन साल से दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर्याप्त करने की कोशिश कर रहे हैं। इस साल बिना मौसम हुई बारिश और ओले पड़ने से उनकी फसल को क्षति हुई है। दाल मिल एसोसिएशन का कहना है कि बेमौसम बारिश से देशभर में दाल के उत्पादन में 10 प्रतिशत की कमी आई है। पंजाब और हरियाणा में इस साल गेहूं का बम्पर उत्पादन हुआ है, लेकिन लॉकडाउन के कारण अनिश्चितता बरकरार है। पंजाब सरकार ने 15 अप्रैल से गेहूं की अधिप्राप्ति की घोषणा की जबकि हरियाणा में इसके कुछ समय बाद अधिप्राप्ति शुरू होगी। अधिप्राप्ति की अवधि भी बढ़ा कर मध्य जून कर दी गई है। गौरतलब हो कि हर साल बिहार और उत्तर प्रदेश से लगभग 15 लाख मौसमी कृषि मजदूर पंजाब और हरियाणा जाते हैं। ये मूल रूप से फसल की कटाई से लेकर अधिप्राप्ति तक में मजदूरी करते हैं। लेकिन, इस साल ये नहीं आ पाएंगे। राज्य सरकारें इस समस्या को समझते हुए कम्बाइंड हार्वेस्टर्स के इस्तेमाल को प्रोत्साहित कर रही हैं।
मसाला किसानों की मुश्किलें
तमिलनाडु के नीलगिरि और केरल के इडुक्की क्षेत्र के चाय बागानों के लिए लॉकडाउन एक मुश्किल वक्त है। एसोसिएशन ऑफ प्लांटर्स ऑफ केरल (एपीके) के सचिव बीके अजीथ कहते हैं, “प्रसंस्कृत चाय पाउडर के निर्यात में कमी आ जाने से पिछले कई महीनों से हमारी फैक्ट्रियों को नुकसान हो रहा है।” उन्होंने कहा कि नीलगिरि और इडुक्की में करीब 55 प्रतिशत चाय का उत्पादन निर्यात के लिए किया जाता है, लेकिन इस साल इसे कोई खरीदार नहीं मिल पाया। पहले से ही परेशान चाय उत्पादकों की मुश्किलें लॉकडाउन ने और बढ़ा दी हैं। चाय बागानों के कामगारों का कहना है कि चाय की पत्तियों को नियमित तौर पर तोड़ना पड़ता है। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो फिर चाय के पौधों की कटनी-छंटनी करनी होगी और ऐसा करने पर दोबारा पत्तियों के लिए कई महीने तक इंतजार करना होगा। कुन्नूर के संगठन यूनाइटेड प्लांटर्स एसोसिएशन ऑफ साउथ इंडिया के मुताबिक, लॉकडाउन के कारण क्षेत्र के चाय बागानों को लगभग 250 करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है।
वहीं, कोच्चि के संगठन स्पाइसेस बोर्ड के अनुमान के मुताबिक, पूरे दक्षिण भारत के इलाइची किसानों को 210 करोड़ का नुकसान हो सकता है। मालूम हो कि 80 प्रतिशत इलाइची की बिक्री बोली लगाकर की जाती है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर की एजेंसियां और संघ शामिल होते हैं। लेकिन, अभी नीलामी बंद है और खुदरा बाजारों में बिक्री थमी हुई है। इडुक्की के आदिमाली के इलाइची किसान केवी वर्गीज कहते हैं, “दिल्ली व मुफस्सिल इलाकों में स्थित कंपनियों में रोजाना 20-25 टन इलाइची की खपत होती है। ऐसे में लॉकडाउन बढ़ाने का विध्वंसक परिणाम हो सकता है।” एपीके का कहना है कि केरल के वायनाड और कर्नाटक के कोडागु के गोल मिर्च के किसानों को लगभग 80 करोड़ का संभावित नुकसान हो सकता है, जबकि नेचुरल रबर क्षेत्र को 350 करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है। ग्लोव्स बनाने में इस्तेमाल होने वाले लेटेक्स की कीमत भी बढ़ने का अनुमान है।
आग की तरह फैली अफवाह
हरियाणा के पानीपत जिले का 2 हेक्टेयर में फैला विशाल पोल्ट्री फार्म में फरवरी से ही मुर्दा सन्नाटा पसरा हुआ है। ऐसी विरानी यहां पहले कभी नहीं थी। दो माह पहले ही यहां 2,00,000 से ज्यादा पोल्ट्री मुर्गे थे। फार्म के मालिक और नेशनल पोल्ट्री फेडरेशन ऑफ इंडिया के सचिव बिट्टू धांधा कहते हैं, “हम लोग रोजाना केवल दिल्ली में 5,000 चिकन की सप्लाई करते थे। लेकिन, फरवरी की शुरुआत से ही हम तक मेसेज पहुंचने लगा कि चिकन, मीट और अंडा से कोरोनावायरस फैलता है। उस वक्त सिर्फ केरल में कोरोनावायरस के तीन मामले सामने आए थे।” उन्होंने आगे कहा, “हमने हालांकि इस मेसेज को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन ग्राहकों के मन में डर बैठ गया। एक आदमी बीमारी से लड़ सकता है, लेकिन अफवाह से नहीं।” इस अफवाह के जोर पकड़ने के साथ ही बिट्टू के मुर्गे की मांग घटने लगी और फरवरी का तीसरा हफ्ता आते-आते मांग शून्य हो गई। उन्होंने कुछ मुर्गे 15-20 रुपए किलो की दर से बेच दिए और फार्म बंद करने से पहले बचा-खुचा मुर्गा फ्री में बांट दिया। पंजाब में पोल्ट्री किसानों ने 2 करोड़ मुर्गों को मार दिया, क्योंकि खाद्य सप्लाई चेन पूरी तरह तहस-नहस हो गई थी। 30 मार्च को केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को एक पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि चिकन और अंडे सुरक्षित हैं, लोग बेहिचक खा सकते हैं। धांधा कहते हैं, “सरकार की तरफ से प्रतिक्रिया बहुत देर से आई।” महज एक अफवाह के चलते उन्हें एक करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है।
लॉकडाउन ने दूध का व्यापार करने वाले देश के 7.3 करोड़ किसानों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। इनमें से ज्यादातर किसान एक से दो मवेशियों पर निर्भर हैं। दूध की मांग में गिरावट के चलते गांवों के दूध संग्रह केंद्र या तो बंद हो चुके हैं या फिर बाजार में मांग गिर जाने से कम दूध ले रहे हैं। अमूल के मैनेजिंग डायरेक्टर आरएस सोढ़ी कहते हैं, “देश भर में जितने दूध का संग्रह किया जाता है, उसका 10-15 प्रतिशत हिस्सा रेस्तरां, वाणिज्यिक दफ्तरों और होटलों में जाया करता था, लेकिन ये सब अभी बंद हैं।” उन्होंने कहा, “अगर दूध प्रोसेसिंग सेंटरों तक पहुंच भी जाता है, तो कामगारों की किल्लत के कारण मशीनों की क्षमता का पूरा दोहन नहीं हो पा रहा है और उसकी प्रोसेसिंग में दिक्कत आ रही है।” अमूल ने दावा किया कि उसने दूध की खरीद कम कर दी है। वहीं, राजस्थान को-ऑपरेटिव डेयरी फेडरेशन लिमिटेड ने दूध की खरीद एक चौथाई तक कम कर दी है। उत्तर प्रदेश में निजी डेयरीज ने दूध की खरीद में 50 प्रतिशत तक की कटौती कर दी है। उत्तर प्रदेश की ज्ञान डेयरी के मैनेजिंग डायरेक्टर जय अग्रवाल ने कहा, “बैक्टीरिया रहित दूध की मांग में भारी गिरावट आई है, जिस कारण लोग अब दूध का इस्तेमाल दुग्ध उत्पाद बनाने में कर रहे हैं।
इस कठिन समय में भी अपना कारोबार किसी तरह बचाए रखने के लिए पंजाब के किसान अलग तरकीब अपना रहे हैं। उन्होंने खर्च बचाने के लिए मवेशियों को महंगा चारा खिलाना बंद कर दिया है ताकि मवेशी ज्यादा दूध न दे। 31 मार्च को कर्नाटक के बेलागवी जिले के किसानों ने 1,500 लीटर दूध सिंचाई के नाले में बहा दिया, क्योंकि वे किसी भी तरह दूध बेच नहीं पा रहे थे।
डाउन टू अर्थ के साथ ईमेल के जरिए हुई बातचीत में अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज डायनैमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी के डायरेक्टर रमणन लक्ष्मीनारायण ने बताया कि महामारी के चलते हुए लॉकडाउन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बाधित कर दिया है। हालांकि फिजिकल डिस्टेंसिंग नहीं होने से महामारी से मौतों की आशंका के मद्देनजर इस नुकसान को रोका नहीं जा सकता था। मगर फिर भी हमारे यहां यह महामारी अभी नई है और आने वाले दिनों में इसका असर और गहरा होगा। सरकारी योजनाओं के जरिए और ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब आबादी को नकदी ट्रांसफर कर इसमें सुधार करना होगा।