नोवल कोरोनावायरस बीमारी (कोविड-19) को रोकने के लिए लॉकडाउन के चार चरणों के बाद 8 जून को भारत अनलॉकडाउन के पहले चरण में प्रवेश करेगा। दो महीने से अधिक समय तक चले इस लॉकडाउन के दौरान देश के बड़े-बड़े मैन्युफेक्चरिंग व बिजनेस हब छोड़कर लाखों मजदूर अपने-अपने राज्यों की ओर लौट गए।
अपने सीमित लेकिन विशेषाधिकार प्राप्त दुनिया के भीतर तल्लीन शहरी भारत को तब इस अनौपचारिक कार्यबल की ताकत का एहसास हुआ। शहरों में रह रहे लोगों को यह भी महसूस किया कि इन लाखों मजूदरों का जीवन कितना मुश्किल भरा है और ये मजदूर उनकी औपचारिक अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं। किसी भी तरह के परिवहन के साधन न होने के कारण हजारों श्रमिकों ने अपने घर-गांव तक पहुंचने के लिए परिवारों के साथ सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय की। इससे एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था की छवि को बड़ा धक्का पहुंचा। इन मजदूरों के अनुभव जिसने भी देखे-सुने, वो अंतर्मन तक हिल गया।
हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस स्थिति के लिए लौटने वाले श्रमिकों को दोषी ठहराया। एक टेलीविजन चैनल को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा: "कुछ लोगों ने धैर्य खो दिया और सड़कों पर चलना शुरू कर दिया।" इससे पहले, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से संबंधित कई राजनीतिक नेताओं ने भी इस स्थिति की गंभीरता को भुनाया। लेकिन शाह का तर्क परेशान करने वाला है, और इस सवाल का जवाब देने के बजाय कोई भी पूछ सकता है: श्रमिकों ने धैर्य क्यों खो दिया?
सबसे पहले बात करते हैं कि जिन लोगों ने "धैर्य" खोया, वे कौन लोग थे? वे सभी लोग दैनिक मजदूरी पाने वाले थे, जो शहरों की नगदी आधारित अर्थव्यवस्था में रह रहे थे। किसी ने मजबूरी में अपना गांव छोड़ा था तो किसी ने अपनी इच्छा से। दोनों ही मामलों में, गांव छोड़ने की वजह आर्थिक है। शहरों में, उन्हें जीवन जीने के लिए कमाना पड़ता है, साथ ही अपने गांव में रह रहे परिवार के सदस्यों के लिए थोड़ी बहुत बचत भी करनी पड़ती है।
वे औपचारिक अर्थव्यवस्था के श्रमिकों की तरह नौकरी की सुरक्षा का आनंद नहीं लेते हैं। जब लॉकडाउन ने सभी व्यवसायों को बंद करने के लिए मजबूर किया, तो उन्होंने रोजगार खो दिया और कमाई भी। तो, सवाल: वे क्या कर सकते थे?
ऐसी स्थिति में इन मजदूरों के पास दो विकल्प थे: जहां हैं, वहीं रहना और उम्मीद करना कि कामकाज फिर से शुरू होगा; या वे अपने घर लौट जाएं। पहले विकल्प के मामले में, व्यापार फिर से शुरू होने पर कुछ निश्चितता होनी चाहिए। भारत का लॉकडाउन तीन बार बढ़ाया गया है। ऐसे अनिश्चित शासन संरचना में, मजदूरों ने दूसरे विकल्प को चुना। यही वजह है कि अप्रैल में लॉकडाउन के दूसरे विस्तार के बाद मजदूरों ने लौटना शुरू किया। जब यह शुरू हुआ तो उन्हें वापस पहुंचाने के लिए परिवहन की व्यवस्था करने की कोई सरकारी योजना नहीं थी।
लेकिन दोनों विकल्पों में लोगों को सरकार की ओर से ठोस आश्वासन चाहिए था। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे हालात होने चाहिए थे, जिससे लोगों को भरोसा हो जाता कि सरकार हर हाल में उन्हें बचा लेगी। लोगों को न तो ठोस आश्वासन दिया और ना ही लेागों का सरकार पर भरोसा ही रहा। ऐसे में, जब उनके पास रोजगार नहीं रहा तो वे अपने ठिकानों से बाहर निकल गए, उस जगह जाने के लिए, जिसे वे अपना घर कहते हैं और उन्हें भरोसा था कि वहां उन्हें सिर छिपाने के लिए कम से कम एक छत मिल जाएगी।
अमित शाह अपना आकलन पेश करते हुए तथ्यात्मक नहीं दिखाई दिए। उन्होंने कहा कि "कुछ" लोगों ने धैर्य खो दिया। यह एक बड़े पैमाने पर पलायन है, जैसा कि सरकार ने बाद में महसूस किया और अंततः ट्रेनें और बसें लगाई गई। क्या इसका मतलब यह है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा सरकार पर भरोसा नहीं कर पाया।
पिछले दिनों भारत सहित दुनिया के 11 देशों के पढ़े लिखे और अच्छा खासा कमाने वाले 13 हजार लोगों पर सर्वे किया गया, जिसे 'द 2020 एडेलमैन ट्रस्ट बैरोमीटर स्प्रिंग अपडेट: ट्रस्ट एंड द कोविड पेंडिमिक’ कहा गया। इस सर्वे में पाया गया कि पिछले 20 वर्षों के मुकाबले अब लोगों को सरकारों पर भरोसा बढ़ा है। लगभग 65 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें भरोसा है कि सरकारें महामारी के इस दौर में उन्हें बाहर निकालने में मदद करेंगी।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जनता में भरोसे का यह स्तर देखा गया है। इसी सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि 67 प्रतिशत लोगों ने माना कि महामारी के कारण गरीब और कम विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को यह महामारी अधिक सता रही है।
यह एक फैसला है जिसे हमें एक डरावने तथ्य के साथ स्वीकार करना चाहिए। जब विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही हमारी शासन प्रणाली में असमानता देख रहे हैं और उन्हें भी इस स्थिति में सरकार की सबसे अधिक जरूरत है तो जो व्यक्ति रोज के रोज कमाते हैं, वो अपना धैर्य कैसे नहीं खोते?