बंधुआ मजदूरों की तरह काम करते हैं ईंट भट्ठा मजदूर, 10 माह तक नहीं जा सकते घर

भट्ठों पर मजदूरी का हिसाब व भुगतान सीजन के अंत में ही होता है। जहां इनके राशन के पैसे भी काट लिए जाते हैं
फोटो: चरखा फीचर
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शैतान रेगर, राजस्थान
पिछले 10 साल से राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के ईंट भट्टे पर काम कर रहे बिहार के बांका जिले के रहने वाले मजदूर सुमेश बताते हैं कि इस सीजन वह अपने परिवार के साथ 10 हजार रुपए एडवांस लेकर भट्टे पर काम करने आए हैं। अब हमें पूरा सीजन यहीं काम करना पड़ेगा। सीजन के बीच में घर पर कुछ भी काम पड़ जाए, फिर भी भट्ठा मालिक और ठेकेदार हमें छुट्टी नहीं देता है। वह हमारी मजदूरी का हिसाब भी नहीं करता है। बीच सीजन में हमें पैसा भी नहीं देता है। राशन के लिए कुछ पैसे देता है, जो हमें उसके द्वारा निर्धारित राशन की दुकान से ही सामान लेकर आना होता है। मालिक रोकड़ पैसे इसलिए नहीं देता, क्योंकि वह कहता है कि यदि तुम्हें पैसे दूंगा तो तुम उसका शराब पी जाओगे या घर भाग जाओगे। भला हम मजदूर पूरे सीजन की अपनी मजदूरी छोड़कर कैसे घर भाग जाएंगे? दरअसल वह हमारे पूरे पैसे देने की मंशा कभी रखता ही नहीं है, ताकि हम उसके भट्ठे से कहीं और जा ही न सके, जबकि कई बार हमें दूसरे भट्ठे पर अच्छे पैसे मिल सकते हैं, लेकिन यदि हम चले गए तो इस भट्ठे का मालिक हमारा बकाया नहीं देगा। 

देश की आजादी को सात दशक बीत जाने के बाद भी ईंट भट्ठा मजदूर गुलामी (बंधुआ मजदूरी) का जीवन जीने को विवश हैं। भौगोलिक रूप से भले ही देश को आजादी मिल गई हो या सरकारें कितने ही योजनाएं बना ले, लेकिन सच यह है कि देश में प्रवासी मजदूरों को आज भी वास्तविक आजादी नहीं है। न ही उनको अपनी इच्छा से काम करने की आजादी है और न ही उन्हें किसी योजनाओं का पूर्ण रूप से लाभ मिल पाता है। देश में बड़ी संख्या में ईंट भट्टों और खेतों में ऐसे मजदूर कार्यरत हैं जो रोजगार की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य प्रवास करते हैं। इनमें अधिकतर गरीब, अशिक्षित, आदिवासी और आर्थिक रूप से बेहद कमजोर लोग होते हैं।

देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी ऐसी ही कुछ स्थिति नजर आती है। जहां बड़ी संख्या में ईंट भट्ठे संचालित हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान के अलग अलग जिलों के प्रवासी मजदूर काम करते हैं। इन मजदूरों की संख्या लाखों में है। इन ईंट भट्ठों पर काम करने वाले अधिकांश मजदूर प्रवासी ही रखे जाते हैं ताकि भट्ठा मालिकों द्वारा आसानी से उनका शोषण किया जा सके। ईंट भट्ठों में मजदूरों की भर्ती प्रक्रिया स्थानीय दलालों (ठेकेदार) के माध्यम से होती है। जो मजदूरों को अच्छी तनख्वाह का लालच देकर उन्हें अपने गांवों में ही पेशगी (एडवांस) देकर यहां लाते हैं। भट्टे पर पहुंचने के बाद इन मजदूरों को पूरे सीजन करीब 8 से 9 माह तक उसी भट्टे पर काम करना होता है। फिर चाहे उस भट्ठे पर उन्हें कितनी ही परेशानियां हों, वो सीजन के बीच में घर नहीं जा सकते हैं। यदि कोई मजदूर सीजन के बीच में ही किसी कारणवश घर जाना भी चाहता है तो उसे उसकी तय मजदूरी का आधी दर ही अदा किया जाता है।

इन ईंट भट्ठों पर मजदूरों को पूरे परिवार सहित काम करने लिए लाया जाता है। ज्यादातर मजदूरों को तो यह भी जानकारी नहीं होती है कि उन्हें कौन से भट्ठे पर ले जाया जा रहा है। मजदूरों को ठेकेदार द्वारा भट्ठे पर लेकर आने के बाद पता चलता है कि हम कहां पर आये हैं। यह अधिकांश प्रवासी मजदूर दलित व आदिवासी समुदाय के होते हैं और अधिकतर अशिक्षित ही होते हैं। कई सारे मजदूरों को भट्ठा मालिक का नाम भी पता नहीं होता है. अधिकतर बिहार और यूपी से लाये गए मजदूरों को तो अपनी मजदूरी का भी पता नहीं होता है कि उन्हें यहां कितनी मजदूरी मिलेगी और कितनी देर काम करना होगा?

अधिकतर ठेकेदार इन राज्यों में अपने नेटवर्क दलालों के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर और अशिक्षित मजदूरों को टारगेट करते हैं और फिर उन्हें अच्छी मजदूरी का लालच देकर यहां पहुंचा देते हैं। जहां बुनियादी सुविधा भी नहीं होती है। घर के नाम पर केवल कच्चे ईंटों का बना एक छोटा सा कमरा होता है। जिसमें एक आम इंसान खड़ा भी नहीं हो सकता है। सबसे अधिक कठिनाई इन मजदूरों के साथ आई परिवार की महिलाओं और किशोरियों को होती है. जिन्हें शौचालय और नहाने तक की सुविधा उपलब्ध नहीं होती है. इन्हें प्रतिदिन सुबह होने से पहले खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है।

उत्तर प्रदेश के महोबा की रहने वाली सुनीता कहती हैं, "मैं पिछले चार साल से पति और तीन बच्चों के साथ यहां काम कर रही हूं। मेरी जैसी यहां कई महिलाएं पति के साथ इस भट्ठे पर काम कर रही हैं, लेकिन हम महिलाओं के लिए यहां सुविधा के नाम पर कुछ नहीं है। शौचालय नहीं होने के कारण हम दिन में नाममात्र की खाती हैं ताकि शौच जाने की जरूरत न पड़े। सबसे अधिक कठिनाई माहवारी के समय आती है, जब दर्द के कारण काम नहीं हो पाता है, लेकिन हमें उसी हालत में करना पड़ता है। नहीं तो हमारी मजदूरी काट ली जाएगी। अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए हम अपने बच्चों को भी इस काम में लगा देते हैं लेकिन ठेकेदार बच्चों के काम के पैसे नहीं देता है, लेकिन जब बच्चे काम कर रहे होते हैं तो वह उन्हें मना भी नहीं करता है। सीजन खत्म होने के बाद हम गांव तो जाते हैं लेकिन वहां रोजगार का कोई साधन नहीं होने के कारण फिर यहीं वापस आ जाते हैं"।

ईंट भट्ठों पर मजदूर दिन रात काम करते रहते हैं। यहां पर काम का कोई समय निर्धारित नहीं है। सारा काम पीस (ईंट के टुकड़े) पर निर्धारित होता है. उसी आधार पर मजदूरी मिलती है। हालांकि ईंट भट्टों पर मजदूरों को नियमित रूप से मजदूरी नहीं मिलती है। शुरुआत में पेशगी दी जाती है और बीच बीच में खाने खर्चे के नाम पर 15 दिन में एक बार खर्चा दिया जाता है।

भीलवाड़ा जिले के कई ईंट भट्ठों पर तो बिहार के मजदूरों को खाने खर्चे के नाम पर पैसे भी नहीं दिए जाते हैं। उन्हें पैसे के नाम पर सिर्फ एक पर्ची दी जाती है। इस पर्ची से उन्हें एक निश्चित राशन दुकान पर जाकर बिना मोल भाव किये सामान खरीदना होता है। यह दुकान भी भट्ठा मालिक व इनके ही किसी रिश्तेदार की ही होती है। भट्ठों पर मजदूरी का हिसाब व भुगतान सीजन के अंत में ही होता है। जहां इनके राशन के पैसे भी काट लिए जाते हैं कई बार सीजन के अंत में बहुत से मजदूरों को राशन और अन्य भुगतान का हवाला देकर उनके पैसे काट लिए जाते हैं और नाममात्र की मजदूरी अदा की जाती है।

इस संबंध में भट्टे पर काम करने वाले उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के मिथलेश रैदास बताते हैं, "मैं यहां के ईंट भट्ठों पर पिछले कई सालों से परिवार सहित काम कर रहा हूं। यहां पर जितनी मेहनत लगती है, हमें उसकी आधी मजदूरी भी नहीं मिलती है। यह ऐसा जाल है, जिसमें एक बार कोई मजदूर आ जाता है तो पूरे सीजन भर के लिए उलझकर रह जाता है। हमारी मजबूरी है, इसलिए हम इतना दूर आकर यहां इतना मेहनत वाला काम करते हैं। हमें शुरुआत में पैसगी देकर बांध दिया जाता है और भट्ठा मालिक व ठेकेदार उस दबाव में पूरे सीजन काम कराता रहता है। अगर हम जैसे अनपढ़ों के लिए गांव में ही रहकर रोजगार का कोई इंतजाम हो जाता तो हमें इतनी दूर परिवार के साथ प्रवास करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। लेकिन पैसे के लिए हम यहां बंधुआ मजदूरी करने के लिए विवश हैं"।

ईंट भट्ठा मजदूरों के काम के समय के आधार पर देखा जाए तो इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है. ईंट भट्ठे गांवों से दूर होने की वजह से उनके बच्चे शिक्षा व स्वास्थ्य से कोसों दूर हैं। वहीं दूसरे राज्य के निवासी होने के कारण सरकारी योजनाएं इनकी पहुंच से बाहर होती हैं। यहां के ज्यादातर मजदूर वोट देने के अधिकार से भी वंचित रहते हैं, क्योंकि यह मजदूर अक्सर बाहर के राज्यों में ही काम करते हैं। ऐसे में जब चुनाव होते हैं तब मतदान के समय भट्ठे मालिक इन मजदूरों को घर नहीं जाने देता है ताकि उसके काम का किसी प्रकार से नुकसान न हो। वोट बैंक नहीं होने के कारण स्थानीय राजनीतिक दल भी इनके हितों के लिए आवाज उठाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं।

इन ईंट भट्टों पर मजदूरों को कर्ज देकर काम पर लाया जाता है। उन्हें कभी भी नियमित मजदूरी का भुगतान नहीं किया जाता है. यह मजदूर कहीं भी आने जाने के लिए स्वतंत्र नहीं होते हैं, यह सब भट्ठा मालिक की मर्जी पर निर्भर होता है। इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है एवं भट्ठों पर काम करने का कोई हाजरी रजिस्टर, काम व मजदूरी का हिसाब संबंधी कोई भी दस्तावेज नहीं होता है। जिससे यह साबित किया जा सके कि कौन मजदूर किस भट्ठे पर कब से काम कर रहा है और उसकी मजदूरी कितनी है? यूं कहें कि इतने सारे श्रम कानूनों के बावजूद एक भी श्रम कानून इन ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों पर लागू नहीं होता है। (चरखा फीचर)

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