देश की तीन-चौथाई आबादी की जीविका-आजीविका को तय करता है मानसून 

देश की तीन-चौथाई आबादी की जीविका-आजीविका को तय करता है मानसून 
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दिनेश चंद मीणा और प्रेमचंद

खेती  भारत में  आजीविका का प्राथमिक स्रोत  है और हमारे देश की लगभग दो-तिहाई आबादी इस पर निर्भर है। देश के कुल खेती वाले क्षेत्र का लगभग 56%  (जो कि 44% खाद्य उत्पादन के लिए जिम्मेदार है), वर्षा पर निर्भर है,  और वर्षा में कोई भी कमी फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। इसके अलावा, भारत की खाद्य और जल सुरक्षा मानसून पर निर्भर हैं  क्योंकि कृषि उत्पादन मिट्टी की नमी और भूजल भंडारण से प्रभावित होता है, जिनका वर्षा से सीधा सम्बन्ध है।  

दक्षिण पश्चिम मानसून (जून से सितंबर) देश में कृषि उत्पादन, खेतिहर  परिवारों की आय और मूल्य स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है। यह कुल वर्षा में लगभग 73% योगदान देता है और उपभोक्ता वस्तुओं, ट्रैक्टरों और कृषि उपकरणों एवं अन्य  इनपुट (कीटनाशक, उर्वरक और बीज) की मांग को प्रभावित करता है क्योंकि कृषि उत्पादन खेतिहर  परिवारों की आय और क्रय शक्ति को प्रभावित करता है।

खरीफ फसलों की खेती के लिए समय पर वर्षा  शुरुआत और सामान्य स्थानिक (स्पेशियल ) वर्षा वितरण महत्वपूर्ण है।  देश का  लगभग 90% धान, 70% मोटे अनाज और 70% तिलहन इन अंतर्गत आते हैं। रबी की फसलें भी मानसून से प्रभावित होती हैं क्योंकि रबी के मौसम में सिंचाई के पानी की आपूर्ति जलाशयों में जमा पानी और मौसमी वर्षा के साथ ग्राउंड वाटर रिचार्ज  पर निर्भर करती है।

 मानसून की शुरुआत में देरी, मानसून के मौसम के दौरान लंबे समय तक 'ब्रेक' या शुष्क अवधि, अपर्याप्त बारिश, और विषम स्थानिक वितरण के बहुआयामी परिणाम अथवा रिपल इफेक्ट्स होते हैं।  टोटल नॉर्मल सोन एरिया  की तुलना में सोइंग एरिया  में गिरावट, सतही जल स्रोतों का सूखना और धारा प्रवाह में कमी, भूजल स्तर  में कमी , चारे की कीमत में वृद्धि, और ग्रामीण आबादी का पलायन इस दौरान आम है।  शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में अल्प और अनियमित मानसून के वर्षों में यह स्थिति  स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है ।

कभी-कभी, लम्बा सूखा या  रुक-रुक कर भारी से अत्यधिक बारिश के छोटे-छोटे दौरों के कारण बारिश पर निर्भर कृषि के लिए समस्याएँ बढ़ जाती हैं क्योंकि हमें सही समय पर सही मात्रा में बारिश नहीं मिल पाती है। इसके अलावा, अत्यधिक गर्मी से भी  कृषि उत्पादन को  नुकसान पहुँचता  है। इस साल मार्च से ही तापमान बढ़ गया था  जिसने  गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचाया है और इसके परिणामस्वरूप पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसल की पैदावार में 10% -35% की अनुमानित  कमी आई है। भारत का निर्यात 2 मिलियन टन घटकर 6.5 मिलियन हो गया है क्योंकि सरकार का इरादा पर्याप्त घरेलू आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए निर्यात को प्रतिबंधित करने का है।

मानसूनी वर्षा की मात्रा में कमी के कारण अक्सर सूखा पड़ जाता है, जो ग्रामीण आबादी की आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।  इसका असर  विशेष रूप से कम आय वाले और गरीब परिवारों पर होता है । ये परिवार फसल से संबंधित अन्य आर्थिक गतिविधियों, पानी की कमी और सूखे से जुड़े आवश्यक खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से उत्पन्न किसी भी झटके के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते  हैं। अतः  देश के कृषि उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और खेतिहर  परिवारों की आजीविका के लिए मानसूनी वर्षा महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, 2002-03 में लगभग 300 मिलियन लोगों की आजीविका और 150 मिलियन मवेशी सूखे से प्रभावित हुए थे। 

सूखा और कृषि

भारत को अक्सर मानसून की विफलता  का सामना करना पड़ता है और हमारे यहाँ  औसतन हर तीन साल में कहीं न कहीं सूखा पड़ता है। 2020 में प्रकाशित पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) की रिपोर्ट के अनुसार, देश के शुष्क  क्षेत्रों में सूखे की  आवृत्ति ( 1960 से 2018 तक प्रति दशक दो से अधिक सूखे औसतन) में वृद्धि  हुई  है । इसके आलावा  वर्षा की बारंबारता, तीव्रता और भारी बारिश वाले इलाकों  में और वृद्धि हो सकती है।

चित्र 1: लंबी अवधि के दौरान  वर्षा का औसत से विचलन (डेविएशन )

1960 के बाद से, हर दशक में कम से कम 2-3 ऐसे साल हुए हैं जिनमें सूखे या बाढ़ का सामना करना पड़ा हो।  पिछले दशक में, हमने 2015 और 2018 में सूखे और 2019 में अत्यधिक वर्षा  का अनुभव किया है। मुख्यतः ,  खरीफ फसल उत्पादन का  ट्रेंड से   विचलन मानसून वर्षा की मात्रा में भिन्नता की दिशा की  समान दिशा में हुआ  (चित्र 1 और चित्र 2)

दक्षिण भारत (तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, अक्टूबर और दिसंबर के बीच, उत्तर-पूर्वी मानसून से अपनी वार्षिक वर्षा का बड़ा हिस्सा प्राप्त करते हैं) पूर्वोत्तर मानसून के दौरान  वर्षा की कमी के कारण 2016 से 2018 तक गंभीर सूखे की चपेट में रहा। 1874-76 के दूसरे सबसे भीषण सूखे के कारण फसल का काफी नुकसान हुआ जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में  भीषण अकाल (1876 से 1878) आया । हालांकि, देश के स्तर पर खरीफ फसल उत्पादन का प्रतिशत विचलन सकारात्मक था क्योंकि उत्तर-पूर्वी मानसून कुल वर्षा में  केवल 27% योगदान देता है।

सूखा वर्ष पिछले वर्ष की तुलना में सूखे वर्ष में उत्पादन में परिवर्तन (%)    
  कृषि उत्पादन का मूल्य पशुधन का मूल्य दूध का मूल्य
2002-03 -10.46 2.71 2.21
2008-09 -1.42 6.45 6.63
2014-15 -2.32 5.85 6.25
2017-18 -0.82 6.66 6.54
       

तालिका 1: पिछले दो दशकों में सूखे के वर्षों के दौरान फसल और पशुधन उत्पादन के मूल्य में परिवर्तन

2002-03 वर्ष के दौरान, पिछले दो दशकों की तुलना में  मानसून वर्षा की कमी सबसे अधिक थी, और उसी वर्ष के दौरान कुल कृषि उत्पादन मूल्य में अधिकतम गिरावट (-10.46) देखी गई (तालिका 1)। इसी तरह, एक और सूखे के दौरान कृषि उत्पादन 0.82% से गिरकर 2.32% हो गया, जो कुल वर्षा में कमी के अनुरूप है। मानसून की विफलता का गंभीर प्रभाव उन क्षेत्रों में होता है जहां नहरों जैसे सतही सिंचाई स्रोतों में पानी की आपूर्ति मानसून की बारिश पर निर्भर करती है और जहां अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर निम्न  होता है।

परिणाम बताते हैं कि मानसून की विफलता कृषि  क्षेत्र को प्रभावित करती है, पशुधन को नहीं। ऐसा  इसलिए हो सकता  है क्योंकि पानी की कमी के कारण परिपक्वता तक नहीं पहुंचने वाली कुछ फसलों को समय से पहले काटकर जानवरों के  चारे के रूप में उपयोग किया जाता है। ऐसे मामलों में, चारा उपलब्ध तो होता है पर आवश्यक खाद्यान्न की कीमत पर। एक और कारण यह हो सकता है कि गंभीर सूखे से प्रभावित कुछ परिवार अपनी नकदी  जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने पशुओं को मांस व्यापारियों  को बेच देते हैं। नतीजतन, अधिक पशुओं  के काटे जाने से से कुल पशुधन उत्पादन में वृद्धि होती है।

मानसून की विफलता या सूखे के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की रणनीति

मानसून की विफलता और सूखे  बार बार होने वाली घटनाएं हैं और इनसे  निपटने के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक उपायों की आवश्यकता होती है। सबसे प्रभावी रणनीतियों में से एक देश में सिंचित क्षेत्र  को बढ़ाना हो सकता है। यदि किसान आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई कर पाए तो  मानसून की विफलता और सूखे के दौरान भारी फसल उत्पादन के नुकसान से बचा जा सकता है।  हालांकि, सिंचाई की अतिरिक्त लागत के कारण किसानों  का शुद्ध लाभ कम हो जाता है  ।  अधिकांश सिंचाई स्रोतों का भरण-पोषण अंततः मानसून की बारिश पर निर्भर करता है, लेकिन मानसून की विफलता के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए यह एक लंबी अवधि की रणनीति है। इसके अलावा, सिंचाई दक्षता में सुधार के लिए माइक्रो इरीगेशन  को अपनाना और वाटरशेड, तालाबों और पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं का विकास और कायाकल्प करके वर्षा जल का संरक्षण और संचयन करना कुछ अन्य कदम हो  सकते हैं। 

एक और आशाजनक रणनीति सूखा-रोधी और कम अवधि की किस्मों और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाना हो सकता है। किसान कम अवधि या सूखा प्रतिरोधी किस्मों को अपना सकते हैं जो मानसून के बारे में विश्वसनीय उन्नत जानकारी प्रदान करते हैं (जैसे कि शुरुआत और वापसी की तारीख, शुष्क मौसम और वर्षा की कमी की मात्रा) और आवश्यक बीजों की समय पर उपलब्धता। आम तौर पर, किसान अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए सामान्य मौसम के लिए विकसित उच्च उपज देने वाली किस्मों (एचवाईवी) की खेती करते हैं। शायद ही कोई किसान अन्य फसलें या किस्में उगाता है क्योंकि ये सामान्य वर्षा की स्थिति में  अन्य फसलों/किस्मों की तुलना में अपेक्षाकृत कम रिटर्न देने वाली होती हैं। इस प्रकार, नई किस्मों/फसलों को अपनाना मानसून की उपलब्धता , सामयिक एवं  विश्वसनीय जानकारी और बीज और अन्य इनपुट्स  में नए निवेश करने की किसानों की क्षमता पर निर्भर करता है।

(लेखक आईसीएआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च में सीनियर एग्रीकल्चरल साइंटिस हैं। )

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