बड़ी पड़ताल: उत्तराखंड में रिवर्स माइग्रेशन, कितना टिकाऊ?

पांच साल के अंतराल में खींची गई इन दो तस्वीरों में एक मामूली अंतर है। दूसरी तस्वीर में न केवल दो लोग अतिरिक्त हैं, बल्कि चेहरे पर मुस्कान भी है। यह एक बड़ा संदेश है। कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण उत्तराखंड में लाखों प्रवासी लौटे हैं। इस गांव में भी प्रवासी लौटे हैं। यह तस्वीर उस राज्य के लिए बहुत अहम है जो पलायन के लिए देशभर में बदनाम है। अब सरकार आपदा की इस घड़ी को अवसर में बदलने की भरपूर कोशिश कर रही है ताकि लौटकर आए लोगों को गांव में रोका जा सके। लेकिन क्या सरकार की योजनाएं जमीन पर काम कर रही हैं? और क्या भुतहा गांव फिर से आबाद हो पाएंगे? राजू सजवान ने उत्तराखंड के 10 गांवों का दौरा कर सरकारी प्रयासों और युवाओं का मन टटोलने की कोशिश की
(बाएँ) 2015 में डाउन टू अर्थ की टीम जब रिपोर्टिंग के लिए उत्तराखंड पहुंची तो उसे गांव बौंडुल के बारे में पता चला, जहां केवल ये दो बुजुर्ग महिलाएं ही रह रही थी  
(दांए) कोविड-19 के बाद एक बार फिर डाउन टू अर्थ की टीम इस गांव में पहुंच गई, जहां अब इन महिलाओं के बच्चे लौट आए हैं (सभी फोटो: श्रीकांत चौधरी / सीएसई)
(बाएँ) 2015 में डाउन टू अर्थ की टीम जब रिपोर्टिंग के लिए उत्तराखंड पहुंची तो उसे गांव बौंडुल के बारे में पता चला, जहां केवल ये दो बुजुर्ग महिलाएं ही रह रही थी (दांए) कोविड-19 के बाद एक बार फिर डाउन टू अर्थ की टीम इस गांव में पहुंच गई, जहां अब इन महिलाओं के बच्चे लौट आए हैं (सभी फोटो: श्रीकांत चौधरी / सीएसई)
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उत्तराखंड के प्रमुख पर्वतीय शहर पौड़ी से लगभग 15 किलोमीटर दूर गांव कठूड़ की स्यारियों (गदेरे यानी बरसाती नदी से लगते खेत) में विकास रावत और आलोक चारू अपने साथियों के साथ खेत में लगी सब्जियां तोड़ रहे हैं। कुछ ही देर में आसपास के गांव के लोग ये सब्जियां खरीदने आने वाले हैं। ये लोग पेशे से सब्जी किसान नहीं हैं। विकास कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए शुरू हुए लॉकडाउन से पहले जनपद के ही कस्बे घुड़दड़ी में होटल चलाते थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते काम बंद हो गया तो वह अपने गांव लौट आए। उनकी तरह आलोक चारू व दो अन्य युवा साथी भी गांव लौटे थे। सब ने मिलकर गांव के बंजर खेतों को आबाद करने की योजना बनाई। इसके लिए गदेरे के पास के खेतों को चुना गया। यहां उनके खेत भी थे। पास के कुछ अन्य बंजर खेतों पर बुआई के लिए उन्होंने गांव वालों को भी तैयार कर लिया और इस तरह लगभग 20 नाली (लगभग 4 बीघा यानी एक एकड़) जमीन के चारों ओर घेरबंदी करअप्रैल में खेती की शुरुआत की गई। खेतों में बींस, गोभी, टमाटर, शिमला मिर्च, बैंगन, भिंडी आदि लगाई गई। विकास और उनके साथियों की मेहनत रंग लाई और दो महीने बाद ही उन्होंने सब्जियां बेचनी शुरू कर दी। अब नालियों में दाल, कोदा, धान, राजमा भी लगाया है। शुरुआती सफलता के बाद अब ये युवा पॉलीहाउस लगाने की तैयारी में हैं।


विकास बताते हैं कि घुड़दड़ी में काम ठीकठाक चलता था, लेकिन महीने में 10-15 हजार रुपए ही बच पाते थे। लगभग इतनी ही कमाई दूसरे युवाओं की भी थी। लेकिन अब यहां आमदनी होने लगी है। अभी रोजाना 2-3 हजार रुपए की सब्जी बिक जाती है। उन्हें उम्मीद है कि साथ काम कर रहे युवा खेती से लॉकडाउन से पहले से अधिक कमा लेंगे।

विकास और उनके साथी पहाड़ में प्रचलित उस कहावत को झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं, जो कहती है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती, बल्कि बहकर मैदान में पहुंच जाती है और वहां के काम आती है।

भुतहा गांवों का प्रदेश उत्तराखंड

आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के बाद उत्तराखंड दूसरा राज्य है, जहां से पलायन सबसे अधिक हुआ है। इस सर्वेक्षण में उन जिलों को चिन्हित किया गया था, जहां से सबसे अधिक पलायन हुआ था। इनमें उत्तर प्रदेश के 39 जिले, उत्तराखंड के नौ जिले और बिहार के आठ जिले शामिल थे। इस आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, देश में 1991-2001 के दशक में पलायन की दर 2.4 प्रतिशत थी जो 2001-11 के दशक में लगभग दोगुनी बढ़कर 4.5 प्रतिशत पर पहुंच गई। इन दो दशकों में उत्तराखंड में भी पलायन तेजी से हुआ। एक गैर लाभकारी संगठन इंटीग्रेटेड माउंटेन इनीशिएटिव (आईएमआई) की “स्टेट ऑफ द हिमालय फार्मर्स एंड फार्मिंग” रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद से पर्वतीय क्षेत्रों की 35 प्रतिशत आबादी पलायन कर चुकी है। इन क्षेत्रों से औसतन प्रतिदिन 246 लोगों ने पलायन किया। उत्तराखंड के आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 में कहा गया है कि आर्थिक असमानताओं के साथ-साथ कृषि में गिरावट, गिरती ग्रामीण आय और तनावग्रस्त ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कारण उत्तराखंड में पलायन हुआ। उत्तराखंड पहला ऐसा राज्य है, जहां पलायन को रोकने के लिए 2017 में आयोग का गठन किया गया। यह पलायन आयोग द्वारा सितंबर 2019 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहता है कि वर्ष 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ों की तुलना करने पर जनपद अल्मोड़ा और पौड़ी गढ़वाल में नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई। इन 10 वर्षों के दौरान 6,338 ग्राम पंचायतों से कुल 3,83,726 लोगों ने अस्थायी और 3,946 ग्राम पंचायतों से 1,18,981 लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया। सभी जिलों में 26 से 35 आयु वर्ग के युवाओं ने सबसे अधिक पलायन किया। इनका औसत 42.25 प्रतिशत है।

यह रिपोर्ट बताती है कि रोजगार की खोज के लिए 50.16 प्रतिशत, शिक्षा के लिए 15.21 प्रतिशत और स्वास्थ्य सेवाओं में कमी के कारण 8.83 प्रतिशत लोगों ने पलायन किया। इतना ही नहीं, 5.61 प्रतिशत लोग जंगली जानवरों से तंग आकर पलायन कर गए तो 5.44 प्रतिशत लोगों को कृषि उत्पादन में कमी के कारण घर छोड़ना पड़ा। 2011 की जनगणना से पहले उत्तराखंड में कुल 16,793 गांवों में से 1,048 गांव निर्जन पाए गए थे। लेकिन अप्रैल 2018 में जब उत्तराखंड ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट दी तो बताया कि जनगणना के बाद राज्य में 734 अन्य गांव निर्जन हो चुके हैं, जबकि 565 गांव ऐसे पाए गए, जहां एक दशक के दौरान आबादी में 50 प्रतिशत से अधिक कमी आई थी। इन निर्जन गांवों को भुतहा गांव कहा जाता है।



कोरोना के कारण लौटी जवानी

दुनिया के लिए कोरोनावायरस संक्रमण की वजह से फैली बीमारी (कोविड-19) एक महामारी हो सकती है, लेकिन उत्तराखंड के लिए यह महामारी एक अवसर बनकर सामने आई है। कोरोनावायरस की वजह से जब देश को लॉकडाउन कर दिया गया और काम धंधे बंद हो गए तो उत्तराखंड के प्रवासी भी अपने राज्य में लौट आए। इनकी अधिकृत संख्या 3.30 लाख बताई जाती है। हालांकि इस अवधि में बहुत से ऐसे लोग भी लौटे हैं, जिनका कहीं कोई िरकॉर्ड नहीं हैं। अधिकृत तौर पर लौटे प्रवासियों में से राज्य पलायन आयोग 2,75,235 प्रवासियों का विश्लेषण कर चुका है। दरअसल यह विश्लेषण दो हिस्सों में किया गया और आयोग दोनों रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप चुका है। पहली रिपोर्ट कोविड-19 का प्रकोप शुरू होते ही फरवरी और मार्च में उत्तराखंड लौटे लोगों से बातचीत पर आधारित थी, जबकि दूसरी रिपोर्ट अप्रैल से लेकर 21 जून के दौरान लौटे लोगों से बातचीत पर आधारित थी। दोनों रिपोर्ट बताती हैं कि राज्य के जिन दो जिलों पौड़ी और अल्मोड़ा से सबसे अधिक पलायन हुआ है, इन्हीं जिलों में सबसे अधिक लोग लौटे हैं।

उत्तराखंड लौटने वालों में सबसे अधिक संख्या (80.68 फीसदी) देश के विभिन्न राज्यों से आए प्रवासियों की है, जबकि उत्तराखंड के अन्य जनपद से अपने गांव-कस्बे में लौटे प्रवासियों की संख्या 18.11 प्रतिशत, जनपद से जनपद में ही लौटे लोगों की संख्या 0.92 प्रतिशत और विदेशों से लौटे प्रवासियों की संख्या लगभग 0.29 प्रतिशत थी। कठूड़ के विकास रावत उन प्रवासियों में शामिल हैं, जो जनपद से जनपद में लौटे हैं। पलायन आयोग के मुताबिक, लौटने वाले अधिकतर प्रवासियों की उम्र 30 से 45 साल है।

प्रवासियों को रोकने में जुटी राज्य सरकार

उत्तराखंड से पलायन ऐसा मुद्दा रहा है, जिसे राज्य में हर राजनीतिक दल ने भुनाया है। हर विधानसभा चुनाव में राज्य से पलायन रोकने के लिए कई वायदे किए जाते हैं। यही वजह है कि अब जब कोविड-19 के कारण राज्य में प्रवासी लौटे तो राज्य सरकार ने दावा किया कि इन प्रवासियों को हर हाल में रोका जाएगा। सरकार इसके लिए कुछ गंभीर प्रयास करती हुई भी दिखाई दी। राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि हमने प्रवासियों को राज्य में ही रोकने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं। (पढ़ेंं, पूरा साक्षात्कार:कोविड-19 के कारण लौटे 45 फीसदी प्रवासी उत्तराखंड में रुक सकते हैं: रावत ) इनमें से प्रमुख “मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना” 28 मई 2020 से शुरू की गई। इस योजना के तहत गांव लौटे जो प्रवासी अपने अनुभव के आधार पर मेन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में अपना व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं, उन्हें राज्य सरकार 15 से 25 प्रतिशत तक सब्सिडी देगी। साथ ही, बैंकों से लोन दिलाया जाएगा। इस योजना के लिए मंत्रिमंडल ने फिलहाल 15 करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया है। यह भी प्रावधान किया गया कि जिला योजनाओं में 40 प्रतिशत बजट स्वरोजगार योजनाओं-परियोजनाओं पर खर्च किया जाएगा। इसके अलावा “सौर स्वरोजगार योजना” के तहत 25-25 किलोवाट क्षमता वाले सौर ऊर्जा प्लांट लगाने के लिए बेरोजगारों को आमंत्रित किया गया। इस योजना का लक्ष्य 10 हजार लोगों को रोजगार देना है। इस योजना के तहत बेरोजगार युवा सब स्टेशन के पास ही सौर ऊर्जा प्लांट लगा सकेंगे, ताकि इस प्लांट से पैदा होने वाली बिजली ग्रिड तक पहुंचाई जा सके। साथ ही, प्रवासियों को 10 हजार बाइक टैक्सी लाइसेंस देने की भी योजना है, इसके लिए सरकार ब्याज मुक्त लोन दे रही है।



हालांकि ये योजनाएं जमीन पर नहीं पहुंच पाई हैं। सहकारी बैंक के एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि जब प्रवासी योजना के बारे में पूछते हैं तो उन्हें सबसे पहले अपना खाता खुलवा कर मार्जिन मनी के तौर पर 20 प्रतिशत जमा कराने की सलाह दी जाती है। मान लीजिए, अगर पांच लाख रुपए का लोन चाहिए तो उन्हें एक लाख रुपए अपने खाते में जमा कराने होंगे। इससे वे निराश हो जाते हैं, क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है। बैंक की शर्त है कि लोन लेने वाले को किसी सरकारी कर्मचारी की गारंटी देनी होगी। कोरोना काल में भला कौन किसी की गारंटी देगा?

विकास रावत कहते हैं कि उन्हें भी पता चला था कि सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन जब उन्होंने खेती के लिए प्रशासनिक अधिकारियों से मदद मांगी तो आश्वासन के सिवाय कुछ नहीं मिला। इसी तरह दिल्ली में एक अमेरिकन कंपनी से नौकरी छूटने के बाद कल्जीखाल ब्लॉक के बूंगा गांव में लौटे किशनदेव कत्याल अपने गांव में अपनी 20 नाली (एक एकड़) जमीन पर बागवानी शुरू करना चाहते हैं और सरकारी विभागों से मदद मांग रहे हैं, लेकिन उन्हें न तो खंड विकास कार्यालय से मदद मिल रही है और न जिला कार्यालय से। बैंकों ने भी लोन देने से इनकार कर दिया है।

दिल्ली के महरौली से लौटे रोशन सिंह कहते हैं कि सरकार की योजना लोन देने की है, लेकिन लोन इतनी आसानी नहीं मिलेगा और लोन मिलने के बाद काम नहीं चला तो पैसा लौटाएंगे कैसे? एमकॉम के अंतिम वर्ष के छात्र मोहित सिंह कहते हैं कि अगर हम यहां अपना काम शुरू भी कर दें तो खरीदार कहां हैं? चंडीगढ़ से लौटे पौड़ी जिले के ही कोट गांव के दिलवर सिंह हों या दिल्ली के विनोद नगर से लौटे हरेंद्र सिंह, इन्हें नहीं पता कि सरकार उनको कोई रोजगार देना चाहती है।

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बावजूद इसके, किशन देव कत्याल अब यहीं रहना चाहते हैं। यदि सरकारी मदद नहीं मिली तो भी यहीं काम करेंगे। बार-बार की आर्थिक मंदी और अब कोविड-19 ने यह सिखा दिया है कि शहरों में रहना और नौकरियां करना बहुत सुरक्षित नहीं है। उनकी ही तरह पौड़ी जिला मुख्यालय से मात्र आठ किलोमीटर दूर सुंदर सी घाटी गगवाड़स्यूं में बसे गांव बलोड़ी में फरीदाबाद से लौटे सुदर्शन परमाल भी गांव में अपना कोई काम शुरू करना चाहते हैं। वह दिल्ली से सटे फरीदाबाद में अपने बच्चों के साथ रहते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद गांव लौटे और यही रहने की मंशा से अपने बच्चों का एडमिशन पास के स्कूल में करा दिया। उन्होने अभी तय नहीं किया है कि यहां क्या करेंगे, लेकिन कम से कम दो साल तक कोशिश करेंगे। सफल रहे तो ठीक, वर्ना फिर से मैदानी इलाकों में काम की तलाश में निकल जाएंगे।

बलोड़ी के ही अचलानंद जुगरान एक इंजीनियरिंग कॉलेज में कैंटीन चलाते थे। लॉकडाउन में काम बंद हो गया तो गांव लौटकर बंजर खेतों को खोदना शुरू कर दिया और सब्जियां लगा दी। कुछ दिन बाद गांव वाले सब्जी लेने लगे, लेकिन जब सब्जियां ज्यादा हो गईं तो पौड़ी शहर जाकर बेचने लगे। अब उन्होंने अपने साथ तीन और प्रवासियों को जोड़ा है, ताकि वहां टमाटर की खेती कर सकें। गांव की प्रधान ममता देवी कहती हैं कि उन्होंने इस बारे में प्रशासनिक अधिकारियों से बात की, ताकि गांव लौटे प्रवासियों को सामूहिक रूप से रोजगार शुरू कर सकें। देशव्यापी लॉकडाउन शुरू होते ही ग्रेटर नोएडा में मार्ग साफ्टवेयर कंपनी (पृष्ठ 32 पर जारी) से नौकरी छोड़ कर लौटे मनोज कुमार ने नैनीताल जिले के भवाली कस्बे में बर्गर पिज्जा का काम शुरू किया है। उनके जीजा मेहर चंद लखनऊ में थे, लेकिन लॉकडाउन की वजह से वह भी भवाली आए और दोनों ने मिलकर यह स्टार्टअप शुरू किया। मनोज कहते हैं कि अब वह यहीं काम करेंगे, ग्रेटर नोएडा जाने की इसलिए भी नहीं सोच सकते, क्योंकि कोरोना की वजह से परिवार वाले बहुत डरे हुए हैं। उनका भी अब मैदानी शहरों के प्रति आकर्षण नहीं रहा।

ये युवा पहाड़ में रह कर कुछ करना चाहते हैं, लेकिन अभी तक इन्हें सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली है। उत्तराखंड एकीकृत आजीविका सहयोग परियोजना के वरिष्ठ सलाहकार (कृषि एवं उद्यान) राजेंद्र कुकसाल कहते हैं कि कोविड-19 के बाद प्रवासियों के लिए जो योजनाएं शुरू हुई हैं, उसमें नयापन नहीं है। पहले भी बेरोजगारों के लिए योजनाएं शुरू हुईं, लेकिन उन्हें ढंग से लागू नहीं किया गया। बस यह देखा जाता है कि कुल बजट का कितना खर्च किया गया, परिणाम नहीं देखे जाते रिसर्च संस्था सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं कि सरकार को स्वरोजगार योजनाएं शुरू करते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उत्तराखंड के मूल निवासियों में उद्यमिता की भावना की कमी है। वे खुद को नौकरी करने में ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। इसलिए लोगों को मानसिक तौर पर तैयार करना होगा। उत्तराखंड में पलायन रोकने की दिशा में काम कर रही संस्था “पलायन एक चिंतन” के रतन सिंह असवाल कहते हैं कि सरकारी अधिकारी-कर्मचारी अपने कार्यालयों से बाहर निकलते नहीं हैं और ग्राम प्रधानों की रूचि प्रवासियों को रोकने में नहीं है। इसलिए ये योजनाएं धरातल पर नहीं पहुंच रही हैं। वह कहते हैं कि यह एक अच्छा मौका है, जब भुतहा हाेते जा रहे गांवों में लौटे प्रवासियों तक सरकार पहुंचे और उन्हें बंजर होते खेतों और घरों को आबाद करने के लिए प्रेरित करे।



भुतहा गांव भी हुए आबाद?

राज्य में पूरी तरह खाली हो चुके गांवों के अलावा 10 से कम आवादी वाले गांवों को भुतहा कहा जाता है, लेकिन कोरोना आपदा की वजह से क्या इन भुतहा गांवों में भी लोग लौटे हैं? यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने ऐसे गांव में जाने का निर्णय लिया।

भुतहा गांव की श्रेणी में शामिल बौंडुल में वर्ष 2015 में भी डाउन टू अर्थ पहुंचा था। तब यहां बिमला देवी और पुष्पा देवी अकेले रह रही थीं। उनके बच्चे रोजगार के लिए शहरों में थे। लेकिन कोरोनावायरस के कारण अब यहां रौनक बढ़ गई है। पुष्पा देवी के पुत्र किशन जुयाल पूना में थे। वहां उनका अपना छोटा सा काम था, लेकिन जब लॉकडाउन के डेढ़ माह बाद भी काम शुरू नहीं हुआ तो वह किसी तरह गांव पहुंच गए। गांव में शिक्षा का इंतजाम न होने के कारण किशन के बच्चे वहां से कुछ दूरी पर बसे एक कस्बे खांड्यूसैंण में पढ़ते हैं। पत्नी भी वहीं रहती थी, वह भी गांव आ गई। किशन बताते हैं कि कोरोनावायरस की वजह से शहरों में जो हालात पैदा हो गए हैं, उसे देखकर तो लगता है कि अब गांव में ही रहा जाए। लेकिन सवाल यह है कि परिवार पालने के लिए गांव में क्या करेंगे?

किशन के चचेरे भाई दुर्गेश जुयाल दिल्ली से सटे गुड़गांव में एक भवन निर्माण कंपनी में काम करते थे। शहरों में जो हालात बन गए हैं, उस वजह से वह गुड़गांव नहीं लौटना चाहते। लेकिन उनके सामने भी यक्ष प्रश्न वही है कि यहां आगे का जीवन कैसे चलेगा? वह गांव के तीसरे परिवार की बच्ची का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वह कोटखाल में 11वीं में पढ़ती है, जो पांच किलोमीटर दूर है। पैदल आने-जाने में चार घंटे लग जाते हैं। गांव से अकेले जाती है, इसलिए मां-बाप की सांसें अटकी रहती हैं। ऐसे माहौल में हम अपने बच्चों को कैसे पढ़ा सकते हैं? फिर यहां कोई रोजगार भी नहीं दिखता। दुर्गेश की मां बिमला देवी कहती हैं कि उनका बेटा अकसर उसे अपने साथ ले जाने की बात करता था, लेकिन वह गाड़ी में नहीं बैठ सकती। जीवन भर पैदल ही सफर किया। गाड़ी में बैठते ही चक्कर और उल्टियां आती हैं, इसलिए वह कभी घर छोड़ कर नहीं गईं। अगर सरकार बेटे को यहीं रोजगार उपलब्ध करा देती और बच्चों के पढ़ने का ढंग से इंतजाम हो जाता तो परिवार के सभी सदस्य साथ रहते।

इसके बाद डाउन टू अर्थ पौड़ी जिले के ही कल्जीखाल ब्लॉक के बलूणी गांव पहुंचा। 2011 की जनगणना के मुताबिक गांव की आबादी 32 थी, लेकिन इसके बाद एक-एक कर यहां से लोग जाते रहे और जनवरी 2018 में यहां रह रहे आखिरी व्यक्ति श्यामा प्रसाद को भी जाना पड़ा। उस समय उनकी उम्र 66 साल थी और यहां अपनी खेती की वजह से रुके थे। लेकिन तबीयत खराब रहने के कारण वह गांव से कोटद्वार चले गए। स्थानीय पत्रकार गणेश काला बताते हैं कि विंडबना देखिए कि जब श्यामा प्रसाद गांव छोड़ कर गए तो उसके कुछ दिन बाद ही गांव तक सड़क पहुंच गई। हालांकि पास के गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों से बलूणी गांव के लोग जून में मंदिर में जुटते हैं और साथ बने एक हॉल में ही रहते हैं। इस बार शायद लॉकडाउन की वजह से लोग गांव नहीं आ पाए।

इसी ब्लाक के गांव चौंडली में भी कोई नहीं लौटा है। स्थानीय पत्रकार जगमोहन डांगी बताते हैं कि इस गांव में कभी 25 परिवार रहते थे, लेकिन 2016 में गांव पूरी तरह खाली हो गया। अंतिम व्यक्ति प्रेम सिंह थे, जिनकी उम्र उस समय 79 साल थी। जो बीमार रहने के कारण गांव छोड़ गए। डांगी कहते हैं कि जिन गांव में पिछले कई वर्षों से कोई नहीं रहता था, कोविड-19 के बाद भी वहां लोग इसलिए नहीं लौटे हैं, क्योंकि ज्यादातर मकान टूट गए हैं या वहां झाड़ियां उग आई हैं। वहीं, पौड़ी ब्लॉक के गगवाड़स्यूं पट्टी के गांव बलोड़ी के पूर्व सरपंच उमाचरण बड़थ्वाल कहते हैं कि उनके गांव के तीन परिवार भी कोरोना की वजह से दिल्ली छोड़ कर गांव आना चाहते थे, लेकिन यहां उनके घर टूटे हुए हैं, इसलिए अब वे अपने टूटे घरों को बनवा रहे हैं, ताकि आने वाले दिनों में यहां आकर रहा जा सके।


कितने लोग नहीं जाएंगे “देश”

पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, जो लोग लौटे हैं, उनमें से 58.17 फीसदी लोग प्राइवेट कंपनी या होटल/रेस्तरां में काम करते थे, जबकि 8.80 फीसदी छात्र, 7.20 फीसदी गृहणियां हैं। इसके अलावा 3.10 फीसदी मजदूरी कर रहे थे और 1.50 फीसदी अपना कोई काम कर रहे थे। 17 फीसदी लोग अन्य कार्य कर रहे थे। इनमें से कितने लोग “देश” नहीं जाएंगे (उत्तराखंड में गांव छोड़ कर मैदानी इलाकों में जाने को आंचलिक भाषा में देश जाना कहा जाता है)। यह एक बड़ा सवाल राज्य में चर्चा का विषय बना हुआ है। पलायन आयोग ने जब पहली रिपोर्ट जारी की थी तब कहा था कि आतिथ्य क्षेत्र (होटल, रेस्टोरेंट आदि) या सेवा क्षेत्र (जैसे ड्राइवर) और स्वरोजगार से जुड़े लगभग 30 फीसदी लोग राज्य में ही रहने की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं। दूसरी रिपोर्ट में आयोग ने यह आंकड़े जारी नहीं किए। यह सवाल जब डाउन टू अर्थ ने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से पूछा तो उन्होंने बताया कि लगभग 45 फीसदी लोग शहरों में जाना चाहते हैं, इसके अलावा बड़ी संख्या में विद्यार्थी भी उत्तराखंड लौटे हैं। वे भी लौट जाएंगे। अनुमान है कि लगभग 45 प्रतिशत प्रवासी उत्तराखंड में रुक सकते हैं।

विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं दिखते। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान (एनआईआरडीपीआर), हैदराबाद के एसआर शंकरन चेयर प्रोफेसर (रूरल लेबर) राजेंद्र पी. ममगाईं कहते हैं कि कोविड-19 के बाद जब उत्तराखंड में प्रवासी लौट रहे थे तो उन्होंने लगभग 90 लोगों से टेलिफोन पर बात करके एक पेपर प्रकाशित किया था। इसमें 85 फीसदी लोगों का कहना था कि जितना वे मैदानी इलाकों में कमाते हैं, उससे आधा भी अगर पहाड़ में मिल जाए तो वे वहीं रह जाएंगे। जबकि 15 फीसदी लोग मैदानी शहरों से आजिज आकर अब अपने गांव में ही रहना चाहते थे।

रतन सिंह असवाल कहते हैं कि लॉकडाउन के बाद हमने 10 जिलों का दौरा किया और लौटे हुए प्रवासियों से बात की। उनमें से करीब 10 फीसदी लोग रुकना चाहते हैं। ये अभी युवा हैं और शादीशुदा नहीं हैं। परिवार वाले लोगों को पहाड़ पर रुकने का कोई फायदा नहीं दिखता। अनूप नौटियाल भी कहते हैं कि अलग राज्य बनने के दो दशक के दौरान राज्य इतनी क्षमता विकसित नहीं कर पाया कि 4 लाख लोगों को समाहित कर सके। अगर क्षमता होती तो सरकार को विशेष प्रयास करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

राज्य में क्यों नहीं लोग रुकेंगे, इस बारे में पलायन आयोग अपनी रिपोर्ट में लिखता है, “यह स्पष्ट है कि इनमें अधिकतर लोग न तो कृषि/बागवानी करेंगे, क्योंकि प्रति परिवार भूमि कम है और न ही मनरेगा में काम करना चाहेंगे।” लेकिन कल्जीखाल ब्लॉक के गांव सकनी बड़ी में किसानों के साथ मिलकर पर्वतीय आजीविका उन्नयन कार्यक्रम चला रहे रतन सिंह असवाल कहते हैं कि पहाड़ में खेती के प्रति सोच बदलने की जरूरत है।

ममगाईं कहते हैं कि राज्य सरकार इस आपदा से सबक लेकर यदि केवल 5 प्रतिशत लोगों को रोक कर उन्हें रोजगार सहित अन्य सुविधाएं दे दे और ये लोग आने वाले सालों में सफल हाेते हैं तो पांच साल में 50 फीसदी प्रवासी लौट आएंगे। अभी लोगों के पास कोई रोल मॉडल नहीं है। पहले सरकार को हर ब्लॉक या जिले में रोल मॉडल बनाने होंगे, जिसको देखकर लोग वापस आएंगे। पहाड़ के लोग अभी जो रोल मॉडल दिखते हैं, उनमें लगभग सभी प्रवासी हैं, इसलिए वहां रह रहे लोग भी प्रवासी बनना चाहते हैं। (ममगाई का पूरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: राेल मॉडल तैयार करे सरकार)

दरअसल, मुख्यमंत्री का यह कहना कि प्रवासी अभी फैसला नहीं ले पा रहे हैं, कुछ हद तक सही है। फिर भी बहुत से प्रवासी शहरी जिंदगी से आजिज आकर राज्य में रुकना चाहते हैं, लेकिन राज्य की परिस्थितियां देखकर रुकने का फैसला नहीं कर रहे हैं। ऐसे में, सरकार को प्रो़ ममगाईं की इस सलाह पर काम करना चाहिए कि केवल 5 फीसदी को भरोसा दिलाए कि वे यदि उत्तराखंड में रह जाएंगे तो उन्हें न केवल रोजगार मिलेगा, बल्कि उनके बच्चों को उच्च स्तरीय शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं भी मिलेंगी।

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