माना जा रहा है कि कोरोनावायरस बीमारी (कोविड-19) के बाद दुनिया में बड़ा बदलाव आएगा। इंग्लैंड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ सुरे के सेंटर फॉर द अंडरस्टैंडिंग ऑफ सस्टेनेबल प्रोस्पेरिटी के ईकोलॉजिकल इकोनोमिक्स में रिसर्च फेलो सिमोन मेयर ने इस विषय पर एक लंबा लेख लिखा, जो द कन्वरसेशन से विशेष अनुबंध के तहत डाउन टू अर्थ में प्रकाशित किया जा रहा है। इसकी पहली कड़ी में आपने पढ़ा, कैसी होगी कोविड-19 के बाद दुनिया-1: भविष्य की आशंकाएं । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा- कैसी होगी कोविड-19 के बाद दुनिया-2: ध्वस्त होती अर्थव्यवस्थाएं । पढ़ें,अगली कड़ी-
चार भविष्य
भविष्य के बारे में जानने के लिए हमारी मदद करने के लिए मैं भविष्य विज्ञान की एक तकनीक का इस्तेमाल करने जा रहा हूं। आप ऐसे दो कारकों को चुनिए, जिनके बारे में आपको लगता है कि वे भविष्य के निर्धारण में अहम भूमिका निभाएंगे।
और, अब कल्पना करिए कि उन दो कारकों के विभिन्न संयोजनों का क्या परिणाम निकलेगा। मैं जिन कारकों को लेना चाहता हूं, वे मूल्य और केंद्रीकरण हैं। मूल्य से आशय हमारी अर्थव्यवस्था के मार्गदर्शक सिद्धांत से है। क्या हम अपने संसाधनों का उपयोग विनिमय और धन को बढ़ाने के लिए करते हैं या अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए? केंद्रीकरण से आशय तरीकों से है, जिनसे चीजें व्यवस्थित होती हैं, चाहे वे बहुत सारी छोटी इकाइयों के जरिए हों या फिर किसी प्रभावशाली शक्ति के जरिए। हम इन कारकों को एक ग्रिड में व्यवस्थित कर सकते हैं, तब ये परिदृश्यों में रच-बस सकते हैं। इस तरह से अब हम सोच सकते हैं कि 4 चरम संयोजनों के साथ अगर हम कोरोनावायरस का मुकाबला करने की कोशिश करें, तो क्या हो सकता है:
1) राज्य पूंजीवाद: केंद्रीकृत प्रतिक्रिया, विनिमय मूल्य को प्राथमिकता
2) बर्बरता: विनिमय मूल्य को प्राथमिकता देने वाली विकेंद्रीकृत प्रतिक्रिया
3) राज्य समाजवाद: केंद्रीकृत प्रतिक्रिया, जीवन की सुरक्षा को प्राथमिकता
4) पारस्परिक सहायता: जीवन की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए विकेंद्रीकृत प्रतिक्रिया।
राज्य पूंजीवाद
फिलहाल हम दुनियाभर में प्रमुख तौर पर राज्य की पूंजीवादी प्रतिक्रिया देख रहे हैं। यूके, स्पेन और डेनामर्क इसके विशिष्ट उदाहरण हैं। राज्य-पूंजीवादी समाज अर्थव्यवस्था के मार्गदर्शक प्रकाश के तौर पर विनिमय मूल्य का अनुसरण करना जारी रखता है। लेकिन, इसके साथ ही यह भी मानता है कि संकट के समय बाजारों को राज्य की सहायता की आवश्यकता होती है। मान लीजिए कि कई श्रमिक काम नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे बीमार हैं, और उनको जीवन को लेकर डर सता रहा है, तब ऐसे में राज्य बड़े पैमाने पर कल्याणकारी कदम उठाएगा। इसके साथ ही यह क्रेडिट का विस्तार और व्यवसायों को सीधे भुगतान करके बड़े पैमाने पर कीन्सवादी नीतियों को लागू करेगा।
यहां ऐसी उम्मीद है कि यह सब कुछ वक्त के लिए होगा। उठाए जा रहे कदमों का प्राथमिक काम अधिक से अधिक व्यवसायों को व्यापार चालू रखने की अनुमति देने का होगा। उदाहरण के लिए ब्रिटेन में अब भी बाजारों के जरिए भोजन वितरित किया जा रहा है (हालांकि, सरकार ने प्रतिस्पर्धा कानूनों में ढील दी है)। जहां श्रमिकों को सीधे तौर पर मदद दी जा रही है, वहां इसके लिए वैसे तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं, जिनसे सामान्य श्रम बाजारों के कामकाज में व्यवधान कम हो। उदाहरण के तौर पर यूके में श्रमिकों के भुगतान के लिए नियोक्ताओं को आवेदन करना होगा और फिर उन्हें ही वितरित भी करना होगा। भुगतान की राशि उस विनिमय मूल्य के आधार पर दी जाती है, जिसे एक श्रमिक आमतौर पर बाजार में सृजित करता है, न कि उसके काम की उपयोगिता के आधार पर।
क्या यह एक सफल परिदृश्य हो सकता है? संभवतः लेकिन यह तभी हो सकेगा जब कोविड-19 छोटी अवधि तक नियंत्रित साबित हो। चूंकि बाजार में कामकाज को बनाए रखने के लिए पूर्ण लॉकडाउन से बचा जाता है, इसलिए संक्रमण का फैलाव अभी भी जारी रहने की संभावना बनी रहती है। उदाहरण के लिए ब्रिटेन में गैर-आवश्यक निर्माण अभी भी जारी है, जिससे निर्माण स्थलों पर श्रमिक एक-दूसरे से मिल रहे हैं। लेकिन अगर मरने वालों की तादाद बढ़ती है तो राज्य के लिए सीमित हस्तक्षेप को कायम रखना कठिन हो जाएगा। बढ़ी हुई बीमारी और मौतें आर्थिक अशांति को भड़काएंगी और उनका गहरा आर्थिक प्रभाव पड़ेगा और बाजार में कामकाज जारी रखने के लिए राज्य कठोर से कठोर कार्रवाई करने के लिए मजबूर होगा।
बर्बर अवस्था
यह सबसे अस्पष्ट परिदृश्य है। अगर हम अपने मार्गदर्शक सिद्धांत के तौर पर विनिमय मूल्य पर भरोसा करना जारी रखते हैं और फिर उन लोगों की मदद करने से इनकार करते हैं, जिनके लिए बीमारी या बेरोजगारी के चलते बाजार के रास्ते बंद हो गए हैं, तब ऐसी परिस्थिति में बर्बरता ही भविष्य है। यह एक ऐसी स्थिति का वर्णन करता है जिसे हमने अभी तक नहीं देखा है।
व्यवसाय विफल हो जाते हैं और श्रमिक भूखे रह जाते हैं, क्योंकि बाजार की कठोर वास्तविकताओं से उन्हें बचाने के लिए कोई तंत्र मौजूद नहीं होता है। अस्पतालों को असाधारण साधनों के जरिए मदद मुहैया नहीं होती और इसलिए उनकी व्यवस्था चौपट हो जाती है। लोग मर जाते हैं। बर्बरता अंततः एक ऐसी अस्थिर अवस्था है, जो राजनीतिक या सामाजिक तबाही की एक अवधि के बाद ढांचे के दूसरे हिस्सों को भी बर्बाद कर देती या उन्हें बदल देती है।
क्या ऐसा हो सकता है? चिंता की बात यह है कि या तो यह महामारी के दौरान गलती से हो सकता है या महामारी के चरम पर पहुंचने के बाद इरादतन ऐसा किया जा सकता है। गलती से आशय ऐसी परिस्थिति से है, जब महामारी के सबसे बुरे वक्त के दौरान कोई सरकार बड़े कदम उठाने में विफल हो जाती है। व्यवसायों और घरों को मदद की पेशकश की जा सकती है, लेकिन अगर यह व्यापक स्तर पर फैली बीमारी के कारण बाजार को धराशायी होने से रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हुई, तो अराजक हालात पैदा हो जाएंगे। अस्पतालों को अतिरिक्त धन और लोग मुहैया कराए जा सकते हैं, लेकिन अगर यह पर्याप्त न हुआ, तो बड़ी संख्या में बीमार लोगों को लौटा दिया जाएगा।
महामारी के चरम पर पहुंचने के बाद सरकारें हालात को फिर से सामान्य बनाने की दिशा में कदम उठाती हैं। ऐसे में मितव्ययिता के चलते मुश्किल आर्थिक परिस्थितियों के पैदा होने की संभावना होती है। जर्मनी के सामने ऐसा ही संकट उठ खड़ा हुआ है। यह विनाशकारी साबित होगा। खासतौर पर इसलिए कि मितव्ययिता के दौरान महत्वपूर्ण सेवाओं के फंड में कटौती की वजह से इस महामारी से निपटने में देशों की क्षमता प्रभावित हुई है। आर्थिक और सामाजिक विफलता राजनीतिक व आर्थिक अशांति को बढ़ावा देगी, जिससे राज्य भी असफल साबित होगा और राज्य व कल्याणकारी सामुदायिक व्यवस्था, दोनों का पतन होगा।
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