सदियों से महिलाएं इस आस में हैं कि शायद कभी उन्हें भी पुरुषों के समान अधिकार मिल पाएंगें, कभी तो उनके और पुरुषों के बीच जो असमानता की गहरी खाई है वो भरेगी। साल दर साल समय गुजरता रहा, लेकिन उनके इन्तजार का यह सिलसिला अब भी बदस्तूर जारी है।
आज भी महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले केवल दो-तिहाई कानूनी अधिकार प्राप्त हैं, जो स्पष्ट तौर पर महिलाओं के प्रति सामाजिक उदासीनता को दर्शाता है। इसकी पुष्टि वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी नई रिपोर्ट “वीमेन, बिजनेस एंड द लॉ“ और उसके आंकड़े भी करते हैं।
इस रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि कार्यस्थल पर महिलाओं और पुरुषों के बीच का अंतर पहले की तुलना में अधिक व्यापक है। वहीं जब हिंसा और बच्चों की देखभाल से जुड़े कानूनी मतभेदों को ध्यान में रखा जाता है, तो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में दो-तिहाई से भी कम अधिकार प्राप्त हैं। दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जो इस असमानता से अछूता हो, यहां तक की दुनिया की समृद्ध अर्थव्यवस्थाएं भी इस अंतर को पाटने में सफल नहीं हो पाई हैं।
देखा जाए तो आज भले ही पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बच्चियों को शिक्षा के अवसर मिल रहे हैं। बाल-विवाह और खतना जैसी सामाजिक कुरीतियों में गिरावट आई है और महिला स्वास्थ्य को लेकर पहले से ज्यादा सजग हुए हैं।
इससे न केवल महिलाओं की औसत उम्र में इजाफा हुआ। साथ ही बच्चों को जन्म देते समय महिलाओं की होने वाली मौतों के आंकड़े में भी गिरावट आई है। आज पहले से कहीं ज्यादा महिलाएं संसद तक पहुंच रही हैं। भारत जैसे देश में महिला राष्ट्रपति का होना इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
महिला श्रमिकों के अधिकारों में न केवल इजाफा हुआ है समाज में उनकी स्थिति भी मजबूत हुई है। लेकिन इन सब उपलब्धियों के बीच महिला-पुरुष के बीच मौजूद असमानता की खाई आज भी काफी गहरी है और इसे भरने के लिए एक लम्बा रास्ता तय करना होगा, जो चुनौतियों से भरा होगा। यह मुद्दा सतत विकास के पांचवे लक्ष्य (एसडीजी 5) यानी कि लैंगिक समानता को हासिल करने के दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण है।
वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी यह नवीनतम रिपोर्ट उन बाधाओं की एक व्यापक तस्वीर पेश करती है, जिनसे महिलाओं को वैश्विक कार्यबल में प्रवेश करने के लिए जूझना पड़ता है। यह वो बाधाएं हैं जो महिलाओं के लिए उनके परिवार और समुदायों की समृद्धि में इजाफा करने की उनकी क्षमता में बाधा डाल रही हैं।
इस रिपोर्ट में विश्लेषण को व्यापक बनाने के लिए दो नए महत्वपूर्ण संकेतकों को और जोड़ा गया है। इसमें महिलाओं के खिलाफ हिंसा से सुरक्षा और बच्चों की देखभाल सेवाओं तक पहुंच शामिल हैं।
यह दोनों मुद्दे महिलाओं के अवसरों को प्रभावित करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक यदि इन दोनों संकेतकों को ध्यान में रखें तो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में केवल 64 फीसदी ही कानूनी सुरक्षा प्राप्त है, जो 77 फीसदी के पिछले अनुमान से काफी कम है।
वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी पिछली रिपोर्ट वीमेन, बिजनेस एंड द लॉ 2023 के मुताबिक वैश्विक स्तर पर कामकाजी उम्र की करीब 240 करोड़ महिलाओं को अभी भी पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं। अनुमान है कि इस अंतराल को भरने में अभी 50 साल और लगेंगे।
178 देशों में ऐसी कानूनी अड़चने हैं जो महिलाओं को अपना पूरा आर्थिक योगदान देने से रोक रही हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा पर बहुत कम निवेश किया जाता है। इसी तरह रोजगार में उनके पास पुरुषों से कम अवसर उपलब्ध होते हैं। यदि मौका मिल भी जाए तो उन्हें पुरुषों से कम वेतन दिया जाता है। आंकड़ों के अनुसार 24.5 करोड़ महिलाऐं या युवतियां अपने ही साथ के चलते हर साल शारीरिक और/या यौन हिंसा का शिकार बनती हैं।
इतना ही नहीं इस रिपोर्ट का अनुमान है कि यदि अगर महिलाओं को पुरुषों के बराबर नए व्यवसाय शुरू करने और उनका विस्तार करने का मौका दिया जाता है तो इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को 495.4 लाख करोड़ रुपए (छह लाख करोड़ डॉलर) का फायदा हो सकता है।
क्या महज जुमले हैं महिलाओं के लिए समान अधिकारों की बातें
वहीं इस रिपोर्ट के ताजा संस्करण के मुताबिक कागजों में दर्ज नियमों, कानूनों और आंकड़ों से परे वास्तविकता में महिला-पुरुष के बीच का यह अंतर अपेक्षा से कहीं अधिक व्यापक है। यह पहला मौका है जब सालाना प्रकाशित होने वाली इस रिपोर्ट में 190 देशों में महिलाओं के लिए कानूनी सुधारों और वास्तविक परिणामों के बीच मौजूद असमानता का मूल्यांकन किया गया है। इस विश्लेषण के नतीजे जमीनी स्तर पर इनके कार्यान्वयन में मौजूद गहरी खाई को उजागर करते हैं।
जो आंकड़े दर्ज हैं उनके मुताबिक कानूनी तौर पर महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले करीब दो-तिहाई अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन देखा जाए तो अधिकांश देशों ने इन्हें सुनिश्चित करने के लिए औसतन 40 फीसदी से भी कम तंत्र स्थापित किए हैं। ऐसे में इन कानूनों का ठीक से पालन किया जाए इसको लेकर ध्यान नहीं दिया जा रहा।
उदाहरण के लिए, दुनिया के 98 देशों में यह कानून है कि महिलाओं को समान काम के लिए पुरुषों के समान वेतन मिलना चाहिए। लेकिन इसके बावजूद केवल 35 देशों यानी पांच में से एक से भी कम में यह सुनिश्चित करने के लिए नियम हैं कि इन कानूनों का निष्पक्ष रूप से पालन किया जाए, ताकि सभी को उचित वेतन मिल सके।
ऐसे में यह सभी के बीच समानता सुनिश्चित करने वाले कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए एक बेहतर और प्रभावी ढांचे की आवश्यकता है। इसमें कानूनों को लागू करने के लिए एक मजबूत तंत्र, महिला-पुरुष के बीच वेतन में मौजूद अंतर पर नजर रखना और जो महिलाएं हिंसा का शिकार बनी हैं उनके लिए स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित करना शामिल है।
इस बारे में वर्ल्ड बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री इंदरमिट गिल ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि, "महिलाओं में लड़खड़ाती वैश्विक अर्थव्यवस्था को गति देने की शक्ति है।" “हालांकि इसके बावजूद पूरी दुनिया में, भेदभावपूर्ण कानून और प्रथाएं महिलाओं को पुरुषों के साथ समान स्तर पर काम या व्यवसाय करने से रोक रही हैं।"
उनके मुताबिक इस अंतर को कम करने से वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 20 फीसदी से अधिक का इजाफा हो सकता है। जो अगले दशक में वैश्विक विकास की दर को प्रभावी तरीके से दोगुना कर सकता है। लेकिन उनका कहना है कि इन सुधारों की गति मंद पड़ गई है। यह रिपोर्ट बताती है कि सरकारें, व्यापार और कानून में लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति को तेज करने के लिए क्या कुछ कर सकती हैं।
कानूनों के आभाव में सुरक्षित नहीं सार्वजानिक परिवहन
रिपोर्ट के अनुसार कार्यान्वयन में अंतर इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि जिन देशों ने समान अवसर को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाए हैं उन्हें भी कितना कुछ करना बाकी है।
उदाहरण के लिए, टोगो उप-सहारा अफ्रीका के देशों में इस मामले में अग्रणी रहा है, जिसने ऐसे कानून बनाए हैं जो महिलाओं के लिए पुरुषों के मुकाबले 77 फीसदी अधिकार सुनिश्चित करते हैं। यदि इस क्षेत्र के अन्य देशों से तुलना की जाए तो यह काफी अधिक हैं। लेकिन टोगो ने इन कानूनों को पूरी तरह से लागू करने के लिए महज 27 फीसदी ही तंत्र स्थापित किया है। जो उप-सहारा अफ्रीकी देशों के लिए औसत दर है।
आंकड़ों के मुताबिक 2023 में, देशों ने समान अवसर की राह में तीन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति की, इनमें वेतन, माता-पिता के बच्चों के प्रति कानूनी अधिकारों और कार्यस्थल सुरक्षा शामिल हैं। वहीं दूसरी तरफ करीब-करीब सभी देशों ने बच्चों की देखभाल तक पहुंच और महिला सुरक्षा के मुद्दे में खराब प्रदर्शन किया।
सबसे बड़ी समस्या महिलाओं की सुरक्षा को लेकर रही, जिसका वैश्विक औसत स्कोर महज 36 रहा। इसका मतलब है कि महिलाओं को घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, बाल विवाह और महिलाओं की हत्या के खिलाफ आवश्यक कानूनी सुरक्षा का केवल एक तिहाई ही प्राप्त है।
हालांकि देखा जाए तो 151 देशों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को लेकर कानून हैं, लेकिन केवल 39 देशों में सार्वजनिक स्थानों पर इसके खिलाफ कानून हैं। इससे चलते अक्सर महिलाओं के लिए अपने काम पर जाने के दौरान सार्वजनिक परिवहन का उपयोग असुरक्षित हो जाता है।
बिना वेतन घंटों काम करने को मजबूर महिलाएं
इसी तरह अधिकांश देशों का बच्चों की देखभाल संबंधी कानूनों के मामले में प्रदर्शन खराब रहा। आमतौर पर देखें तो महिलाएं पुरुषों की तुलना में हर दिन बच्चों की देखभाल जैसे कार्यों पर औसतन 2.4 घंटे अधिक समय देती हैं, जिनके लिए उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता।
रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों की देखभाल तक पहुंच बढ़ने से आमतौर पर कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पहले चरण में लगभग एक फीसदी बढ़ जाती है। वहीं पांच वर्षों के भीतर यह प्रभाव दोगुने से भी अधिक हो जाता है।
मौजूदा समय में केवल 78 देश उन माता-पिता के लिए वित्तीय या कर सहायता को सुनिश्चित करते हैं जिनके बच्चे अभी छोटे हैं। वहीं 62 देशों यानी एक तिहाई से भी कम देशों में बच्चों की देखभाल संबंधी सेवाओं के लिए गुणवत्ता मानक हैं। इन मानकों के आभाव में महिलाओं को काम पर जाने से पहले दो बार सोचना पड़ता है।
इसी तरह महिलाओं को अन्य क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, उद्यमिता के क्षेत्र में, प्रत्येक पांच में से केवल एक देश में सार्वजनिक खरीद प्रक्रियाओं के लिए जेंडर संवेदनशील मानदंडों को अनिवार्य किया गया है। इसका अर्थ है कि महिलाएं बड़े पैमाने पर सालाना 10 ट्रिलियन डॉलर के आर्थिक अवसरों से बाहर रह जाती हैं।
यदि वेतन की बात करें तो महिलाएं पुरुषों को मिल रहे हर रुपए की तुलना में केवल 77 पैसे ही कमाती हैं। यह असमानता यही तक सीमित नहीं इसका असर रिटायरमेंट पर भी पड़ रहा है। चूंकि महिलाएं आमतौर पर कम कमाती हैं और बच्चों की देखभाल के लिए काम से ब्रेक लेती हैं और समय से पहले रिटायर हो जाती हैं।
ऐसे में उन्हें पेंशन का कम फायदा मिलता है। ऐसे में पुरुषों की तुलना में अधिक समय तक जीवित रहने के बावजूद उन्हें वृद्धावस्था में अधिक वित्तीय अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है।
यह आंकड़े दर्शाते हैं कि भले ही हमने विकास के कितने ही पायदान चढ़ लिए हों, लेकिन सच यही है कि आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा नहीं मिला है। बात चाहे कार्यक्षेत्र को हो समाज की या परिवार की आज भी महिलाएं अपने हकों के लिए जूझ रहीं हैं। कहीं न कहीं उन्हें हर क्षेत्र में समझौता करना पड़ रहा है।
स्थिति अब भी कितनी खराब है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी 90 फीसदी से ज्यादा यानी 310 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रह रही हैं, जहां उन्हें अभी भी पुरुषों से कमतर आंका जाता है। महिला सशक्तिकरण के मामले में भी यह देश आज भी काफी पीछे हैं। आपको जानकर हैरानी होगी की इन देशों में भारत भी शामिल है।
114 देशों से जुड़े आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि महिलाओं के विकल्प चुनने और अवसरों का लाभ उठाने की स्वतंत्रता काफी हद तक प्रतिबंधित है। स्थिति यह है कि महिलाएं अपनी क्षमता का औसतन केवल 60 फीसदी ही हासिल कर पाने में सक्षम हैं।
संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में काम करने योग्य आयु की 15 फीसदी महिलाऐं ऐसी हैं जो काम करना चाहती हैं, लेकिन उन्हें मौका ही नहीं मिल रहा। वहीं पुरुषों की बात करें तो उनके लिए यह आंकड़ा 10.5 फीसदी है। मतलब साफ है की महिलाओं की तुलना में पुरुषों को काम पाने के कहीं ज्यादा मौके हैं।
एक अन्य रिपोर्ट "प्रोग्रेस ऑन द सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स: द जेंडर स्नेपशूट 2023" के मुताबिक 2030 तक आठ फीसदी यानी 34 करोड़ से ज्यादा महिलाएं और बच्चियां बेहद गरीबी में जीवन बसर करने को मजबूर होंगी। वहीं करीब चार में से एक के पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं होगा।
इसी तरह 2030 तक करीब 34.1 करोड़ महिलाएं और बच्चियां के पास बिजली उपलब्ध नहीं होगी। इतना ही नहीं आंकड़े दर्शाते हैं कि 116 में से 28 देशों में आधे से भी कम बुजुर्ग महिलाओं को पेंशन मिल रही है। आज पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा महिलाओं की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच है। इसके बावजूद अभी भी 38 करोड़ महिलाएं और बच्चियां गंभीर जल संकट का सामना करने को मजबूर हैं। वहीं जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं उसके चलते 2050 तक यह आंकड़ा 67.4 करोड़ तक पहुंच सकता है। दुनिया में आज भी हर पांच में से एक युवा की शादी 18 साल से पहले हो जाती है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का कोई भी देश पारिवारिक हिंसा को पूरी तरह रोकने में कामयाब नहीं हुआ है। अनुमान है कि हर साल करीब 24.5 करोड़ महिलाएं और बच्चियां अपने साथी द्वारा शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार बनती हैं। इतना ही नहीं रिपोर्ट की मानें तो शिक्षा के क्षेत्र में जिस गति से प्रगति हो रही है, उसके चलते अनुमान है कि 2030 तक करीब 11 करोड़ बच्चियां शिक्षा से वंचित रह जाएंगी।
सामाजिक बदलाव है जरूरी
बता दें कि भारत में भी महिलाओं की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है। यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम और महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लिए काम कर रहे संगठन यूएन वीमेन ने अपनी रिपोर्ट "द पाथ्स टू इक्वल" में भारत को महिला सशक्तीकरण और लैंगिक समानता के मामले में पिछड़े देशों की लिस्ट में शामिल किया है।
भारत में महिलाओं की स्थिति इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि जहां 2023 के दौरान संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 14.7 फीसदी थी वहीं स्थानीय सरकार में उनकी हिस्सेदारी 44.4 फीसदी दर्ज की गई। हालांकि देश में राष्ट्रपति के रूप में महिला का चुनाव इस बात को दर्शाता है कि देश इस दिशा में आगे बढ़ रहा है, लेकिन अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।
यही वजह है कि महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने व उनके अधिकारों की अलख जगाने के लिए हर साल आठ मार्च का दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रुप में मनाया जाता है। एक ऐसा दिन जब महिलाएं अपनी पिछली पीढ़ी के संघर्षों को याद करती हैं और आगे के संघर्ष के लिए ताकत जुटाती हैं। यह सिलसिला कई दशकों से चल रहा है।
रिपोर्ट से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता टी ट्रंबिक का कहना है कि महिलाओं को काम करने और व्यवसाय शुरू करने के साथ उसे सशक्त बनाने वाले कानूनों और नीतियों में सुधार के प्रयासों में तेजी लाना महत्वपूर्ण है।" उनके मुताबिक मौजूदा समय में वैश्विक स्तर पर करीब तीन-चौथाई पुरुषों की तुलना में बमुश्किल आधी महिलाएं ही कार्यबल का हिस्सा हैं। यह अनुचित होने के साथ-साथ बर्बादी भी है।
उनका आगे कहना है कि महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढ़ावा देना उनकी आवाज को बुलंद करने के साथ-साथ उन निर्णयों को आकार देने की कुंजी है, जो सीधे तौर पर उन्हें प्रभावित करते हैं। देश अपनी आधी आबादी को दरकिनार नहीं कर सकते।
भारत सहित दुनिया भर के देशों ने महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ावा देने के लिए कई सरकारी योजनाएं शुरू की हैं। लेकिन हमें समझना होगा कि सिर्फ योजनाओं से स्थिति में बदलाव नहीं आएगा।
इसके लिए परिवार और समाज को भी महिलाओं को लेकर अपनी मानसिकता में बदलाव करने की जरूरत है। हमें समझना होगा की समाज महिला और पुरुष दोनों से मिलकर बनता है। ऐसे में समुचित विकास के लिए दोनों की ही बराबर की भागीदारी जरूरी है।