यह सही है कि आज अतीत के मुकाबले कहीं ज्यादा बच्चियां शिक्षा ले रहीं हैं। इसी तरह बाल-विवाह और खतना जैसी सामाजिक कुरीतियों में कमी आई है। महिला स्वास्थ्य की दिशा में प्रगति हुई है, जिसकी वजह से महिलाओं की औसत उम्र में इजाफा हुआ है। इसी तरह बच्चों को जन्म देते समय महिलाओं की होने वाली मौतों में गिरावट आई है।
अब पहले से कहीं ज्यादा महिलाएं संसद तक पहुंच रही हैं। भारत जैसे देशों में तो वो देश का प्रतिनिधित्व भी कर रही हैं। बड़ी संख्या में लोग महिलाओं के खिलाफ होती हिंसा के खिलाफ सामने आ रहे है। महिला श्रमिकों के अधिकारों में बढ़ोतरी हुई है। साथ ही समाज में उनकी स्थिति मजबूत हुई है। 155 देशों में अब घरेलू हिंसा पर कानून हैं। वहीं 140 देशों के पास कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न से जुड़े कानून हैं।
लेकिन इसके बावजूद महिलाओं और पुरुषों के बीच जो असमानता की खाई है वो अभी भी काफी गहरी है, जिसे भरने के लिए एक लम्बा रास्ता तय करना होगा, जो चुनौतियों से भरा होगा। भले ही हमने विकास के कितने ही पायदान चढ़ लिए हों लेकिन आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा नहीं मिला है।
वो आज भी रोजगार, आय, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित कई क्षेत्रों में पुरुषों से पीछे हैं। स्थिति यह है कि दुनिया में केवल एक फीसदी महिलाएं उन देशों में रह रही हैं जिन्होंने महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता दोनों में कामयाबी हासिल की है। हालांकि इसके बावजूद दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं है, जो महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक दिला पाने की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरा हो।
रिपोर्ट के मुताबिक पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा पर बहुत कम निवेश किया जाता है। इसी तरह रोजगार में उनके पास पुरुषों से कम मौके उपलब्ध होते हैं। यदि मौका मिल भी जाए तो उन्हें पुरुषों से कम वेतन दिया जाता है। आंकड़ों के अनुसार 24.5 करोड़ महिलाऐं या युवतियां अपने ही साथ के चलते हर साल शारीरिक और/या यौन हिंसा का शिकार बनती हैं।
भारत सहित कई देशों में गहरी है असमानता की खाई
आंकड़ों की मानें तो दुनिया में आज भी केवल काम करने योग्य आयु की केवल 61.8 फीसदी महिलाएं श्रम बल का हिस्सा हैं। यह आंकड़ा पिछले तीन दशकों में नहीं बदला है वहीं पुरुषों की बात करें तो 90 फीसदी काम कर रहे है। इतना ही नहीं पारिवारिक जिम्मेवारियां और बिना वेतन के घंटों किया जाने वाला काम उनके पुरुषों की तरह श्रम बल में शामिल होने की क्षमता को बाधित करता है।
स्थिति अब भी कितनी खराब है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी 90 फीसदी से ज्यादा यानी 310 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं, जहां उन्हें अभी भी पुरुषों से कमतर आंका जाता है। महिला सशक्तिकरण के मामले में भी यह देश आज भी काफी पीछे हैं। आपको जानकर हैरानी होगी की इन देशों में भारत भी शामिल है।
यह जानकारी संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी नई रिपोर्ट "द पाथ्स टू इक्वल" में सामने आई है। इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र की दो प्रमुख एजेंसियों यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और महिला सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे संगठन यूएन वीमेन ने मिलकर तैयार किया है।
इस रिपोर्ट में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को मापने के लिए महिला सशक्तिकरण सूचकांक (डब्ल्यूईआई) और वैश्विक लैंगिक समानता सूचकांक (जीजीपीआई) को उपकरण के रूप में पेश किया गया है।
अपने फैसले लेने के लिए भी आजाद नहीं महिलाएं
इस रिपोर्ट में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को मापने के लिए महिला सशक्तिकरण सूचकांक (डब्ल्यूईआई) और वैश्विक लैंगिक समानता सूचकांक (जीजीपीआई) को उपकरण के रूप में पेश किया गया है। जहां डब्ल्यूईआई सूचकांक में स्वास्थ्य, शिक्षा, समावेशन, महिलाओं के निर्णय लेने की स्वतंत्रता और उनके खिलाफ हिंसा से जुड़े मुद्दों को शामिल किया है।
वहीं जीजीपीआई सूचकांक की मदद से स्वास्थ्य, शिक्षा, समावेशन और निर्णय लेने की क्षमता के साथ-साथ मानव विकास के मुख्य आयामों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति का मूल्यांकन किया जाता है।
114 देशों से जुड़े आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि महिलाओं का सामर्थ्य, विकल्प चुनने और अवसरों का लाभ उठाने की स्वतंत्रता काफी हद तक प्रतिबंधित है। स्थिति यह है कि महिलाएं अपनी क्षमता का औसतन केवल 60 फीसदी ही हासिल कर पाने में सक्षम हैं।
इसी तरह पुरुषों की तुलना में विकास से जुड़े आयामों का केवल 72 फीसदी ही हासिल कर पा रही हैं। मतलब की उन्हें पुरुषों की तुलना में 28 फीसदी कम उलब्धि हासिल हुई है।
वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में करीब 240 करोड़ महिलाएं, पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित हैं। अनुमान है कि उनके बीच के इस अंतर को भरने में अभी 50 साल और लगेंगें। रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपने कानूनी अधिकारों का बमुश्किल 77 फीसदी ही लाभ ले पाती हैं।
संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में काम करने योग्य आयु की 15 फीसदी महिलाऐं ऐसी हैं जो काम करना चाहती हैं, लेकिन उन्हें मौका ही नहीं मिल रहा। वहीं पुरुषों की बात करें तो उनके लिए यह आंकड़ा 10.5 फीसदी है। मतलब साफ है की महिलाओं की तुलना में पुरुषों को काम पाने के कहीं ज्यादा मौके हैं।
आय के मामले में भी महिलाओं की स्थिति कहीं ज्यादा खराब है। यदि 2019 के आंकड़ों पर गौर करें तो वैश्विक स्तर पर जहां पुरुषों ने आय के रूप में एक रूपया कमाया था, वहीं महिलाओं ने केवल 51 पैसे ही अर्जित किए थे। यह गैप निम्न-मध्यम आय वाले देशों में ज्यादा बड़ा है जहां पुरुषों के एक रुपए की कमाई की तुलना में महिलाओं को केवल 29 पैसे ही मिले थे।
रिपोर्ट के अनुसार अध्ययन किए गए 114 में से 85 देशों में महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के मामले में प्रदर्शन कम या मध्यम रहा है। इन देशों में भारत भी शामिल है। हालांकि मानव विकास के मामले में भारत को 'मध्यम' श्रेणी में रखा गया है।
इस बारे में यूएनडीपी प्रशासक, अचिम स्टीनर का कहना है कि विस्लेशन विश्लेषण दर्शाता है कि केवल उच्च मानव विकास अपने आप में पर्याप्त नहीं है, क्योंकि महिला सशक्तिकरण सूचकांक और वैश्विक समानता सूचकांक में निम्न और मध्यम प्रदर्शन वाले आधे से ज्यादा देश बहुत उच्च या उच्च मानव विकास वाले देशों में आते हैं। उनके मुताबिक आज बहुत सारी महिलाएं और लड़कियां ऐसे देशों में रह रही हैं जो उन्हें अपनी क्षमता के केवल एक हिस्से तक पहुंचने में मदद कर रहा है।
क्या है समाधान
ऐसे में रिपोर्ट में जारी इंडेक्स निम्नलिखित क्षेत्रों में व्यापक नीतिगत कार्रवाई की आवश्यकता को प्रकट करते हैं:
रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया है कि इन दोनों सूचकांकों (डब्ल्यूईआई और जीजीपीआई) का उपयोग देशों में महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता की दिशा में हो रही प्रगति और उनमें मौजूद अंतराल को ट्रैक करने के साथ उनके मूल्यांकन के लिए किया जाना चाहिए।
इनकी मदद से उन जटिल चुनौतियों को समझा जा सकता है, जिनका महिलाओं को दुनिया भर में सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, इन चुनौतियों से किस तरह प्रभावी ढंग से निपटा जाए, यह सूचकांक उससे जुड़े विशिष्ट हस्तक्षेपों और नीतिगत सुधारों की दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं।
ऐसे में रिपोर्ट में नीति निर्माताओं, इस विषय से जुड़े लोगों और समुदायों से आग्रह किया है कि बेहतर निर्णय और अधिक न्यायसंगत और समावेशी दुनिया की दिशा में हो रही प्रगति में तेजी लाने के लिए इन उपकरणों का उपयोग करें।