क्या नीति आयोग की 'नीति' से रुक पाएगा उत्तराखंड का पलायन?

नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद्र ने पिछले दिनों उत्तराखंड सरकार से पलायन रोकने को कहा है, इसके लिए कुछ सलाहें भी दी हैं
Photo: Abhinav
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बीते सप्ताह नीति आयोग की ओर से उत्तराखंड में पलायन रोकने के लिए एक पहल की गई। आयोग के सदस्य रमेश चंद ने राज्य सरकार से पूछा कि पलायन रोकने के लिए क्या-क्या किया गया। साथ ही, कई सुझाव भी दिए। जैसे कि उन्होंने राज्य में कांट्रेक्ट फार्मिंग की सलाह दी। साथ ही, पर्वतीय क्षेत्रों में सेटेलाइट सिटीज को विकसित करने का सुझाव भी दिया। लेकिन क्या देहरादून में होने वाली ऐसी बैठकों से पलायन जैसी समस्या का समाधान हो पाएगा?

पौड़ी के एकेश्वर ब्लॉक के नैली गांव की आरोही डंडरियाल देहरादून से एमबीए कर रही हैं। वह बताती हैं कि उनके गांव में मात्र उनका ही परिवार रह गया है। वो भी सिर्फ बुजुर्ग माता-पिता। उनके गांव के ही पास उदगी, रामपुर, तोल्या जैसे कई गांव हैं जहां एक-दो-तीन परिवार रह रहे हैं। पूरा का पूरा गांव खंडहर में तब्दील हो रहा है। ये पूछने पर कि क्या कभी गांव लौटने का इरादा है, आरोही कहती हैं कि वहां है क्या, जिसके लिए हम वापस लौटें। रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं। कभी बीमार हुए तो श्रीनगर, कोटद्वार या देहरादून आना पड़ता है।

क्या पलायन रोकने के लिए सरकार की योजनाएं इन गांवों तक पहुंची? आरोही हंसती हैं कि यदि ऐसा होता, तो लोग गांव छोड़कर जाते ही क्यों। वह आशंका जताती हैं कि जल्द ही कई और गांव घोस्ट विलेज में तब्दील हो जाएंगे। आरोही इस वर्ष पंचायत चुनाव भी लड़ चुकी हैं, वे राज्य की सबसे कम उम्र की उम्मीदवार थीं। हालांकि उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली।

पौड़ी के ही रिखणीखाल ब्लॉक का बमनखोड़ा भी तीन परिवारों वाला गांव है। तीसरे परिवार में मात्र एक बूढ़ी दादी रहती है। देहरादून में रह रही इस गांव की दीपिका घिल्डियाल बताती हैं कि उनके ब्लॉक में एक आईटीआई सेंटर है। जो गांव से करीब 13-14 किलोमीटर दूर है। वहां तक जाने के लिए दिन में एक समय बस की सेवा है। बारिश हुई या सड़क बंद हो गई तो वो बस सेवा भी नहीं मिलेगी। ऐसी स्थिति में यदि कोई आईटीआई सेंटर जाना भी चाहे तो कैसे जाए। इसी तरह नज़ीदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में कभी दवाइयां मिलती हैं, कभी नहीं। केंद्र में एक फार्मासिस्ट बैठता है।

इसी वर्ष सितंबर महीने में पौड़ी के द्वारीखाल ब्लॉक के बेसुखी गांव के घोस्ट विलेज में तब्दील होने की ख़बर आई थी। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गांव का आखिरी परिवार भी पलायन कर गया।

हालांकि राज्य के पलायन आयोग के अध्यक्ष एसएस नेगी कहते हैं कि वर्ष 2017 में कराए गए सर्वेक्षण के बाद कोई और गांव घोस्ट विलेज में तब्दील हुआ हो, ऐसा उनकी जानकारी में नहीं है। उन्होंने डाउन टु अर्थ को बताया कि राज्य के कुल 95 ब्लॉक में से 62 ब्लॉक चिन्हित किए गए हैं जो पलायन से सबसे अधिक प्रभावित हैं। उन ब्लॉक में पलायन रोकने के लिए अधिक ध्यान दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि होम स्टे, हाइकिंग, ट्रैकिंग, स्वरोज़गार के लिए प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रमों से पलायन रोकने की कोशिश की जा रही है। पलायन रोकने के लिए राज्य के पास पर्याप्त बजट है और केंद्र से भी मदद मिल रही है लेकिन जब देहरादून में बैठकर सारी गतिविधियां होंगी तो पहाड़ पर इसका असर नहीं दिखाई देता।

एसएस नेगी कहते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में लैंड लीजिंग से जुड़ी नीति आ गई है, जिससे  कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। हालांकि राज्य में भी कहीं पर भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग नहीं हो रही है। पलायन आयोग के अध्यक्ष ने बताया कि चिन्हित किए गए 62 ब्लॉक की मैपिंग की जा रही है। किन ब्लॉक में पानी की दिक्कत है, कहां सड़क की मुश्किल है, इस मैपिंग के बाद उस गांव की समस्या के लिहाज से योजना तैयार की जाएगी।

वर्ष 2011 की जनगणना में राज्य के 968 गांव वीरान पाए गए थे। वर्ष 2017 में पलायन आयोग के सर्वेक्षण में 700 और गांव आबादी शून्य हो गए। आधिकारिक तौर राज्य के 1668 गांव घोस्ट विलेज यानी भुतहा गांव है। पांच पर्वतीय जिलों पौड़ी, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, टिहरी और रुद्रप्रयाग से सबसे अधिक पलायन है।

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