क्या उत्तराखंड के सीमावर्ती गांवों को 'जीवंत' बना पाएगा केंद्र का जीवंत ग्राम कार्यक्रम?

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सीमावर्ती गांवों के विकास के लिए जीवंत ग्राम कार्यक्रम यानी वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम की घोषणा की है, लेकिन इस पर सवाल उठ रहे हैं
उत्तराखंड के निलोंग-जेडंग घाटी के गांव बागौरी में विकास कार्यों की तैयारी शुरू हो गई है। फोटो: आकाश राणा
उत्तराखंड के निलोंग-जेडंग घाटी के गांव बागौरी में विकास कार्यों की तैयारी शुरू हो गई है। फोटो: आकाश राणा
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1 फरवरी 2022 को अपने बजट भाषण में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सीमावर्ती गांवों के विकास के लिए एक योजना जीवंत ग्राम कार्यक्रम (वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम) की घोषणा की। यह योजना भारत में वर्ष 1993-94 में शुरू केंद्र प्रायोजित योजना सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (बीएडीपी) की जगह लेगी।

15 फरवरी 2022 के सरकारी आदेश के अनुसार बीएडीपी योजना को अब 'जीवंत ग्राम कार्यक्रम' के रूप में जाना जाएगा। इस नए कार्यक्रम के तहत तीन उत्तरी हिमालयी राज्य उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश और हिमाचल प्रदेश फोकस में होंगे। 2023 तक सीमा पर पर्याप्त बुनियादी ढांचा तैयार करने की उम्मीद है। इस परियोजना का उद्देश्य सड़कों, स्वास्थ्य केंद्रों और शैक्षणिक संस्थानों के निर्माण के अलावा नई सुरक्षित जलापूर्ति योजनाएं बनाना और गांवों का विद्युतीकरण करना और मोबाइल कनेक्टिविटी को अपग्रेड करना है।

अपने प्रारंभिक चरण में, सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की तैनाती की सुविधा के लिए बुनियादी ढांचे के विकास के उद्देश्य से पश्चिमी सीमावर्ती राज्यों में इस योजना को लागू किया गया था। बाद में इसका विस्तार पूर्वी राज्यों तक कर दिया गया। 2020 तक, 16 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों के 111 सीमावर्ती जिलों के 396 ब्लॉकों को कवर किया गया था। उसी वर्ष 11 मार्च को बीएडीपी दिशानिर्देशों को संशोधित किया गया, जो अप्रैल से लागू हुआ। अब अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से पहली बस्ती से 1-10 किलोमीटर की दूरी के भीतर स्थित जनगणना गांव, अर्ध-शहरी और शहरी क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है।

डाउन टू अर्थ ने इस योजना के फायदे और नुकसान को समझने की कोशिश की। उत्तराखंड के तीन जिले उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ चीन के साथ सीमा साझा करते हैं जबकि अन्य तीन जिले- पिथौरागढ़, चंपावत और उधम सिंह नगर नेपाल के करीब हैं। उत्तराखंड में सीमावर्ती इलाकों तक सड़क बिछाने का ज्यादातर काम पूरा हो चुका है।

12,000 करोड़ की चारधाम मार्ग परियोजना भी सीमावर्ती गांवों तक पहुंच चुकी है। विवादास्पद घट्टाबगड़-लिपुलेख सड़क का काम चल रहा है। सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) द्वारा भारतमाला परियोजना के तहत निर्माण कार्य किया जा रहा है। 6,000 करोड़ रुपये की अन्य सड़क चौड़ीकरण परियोजना, सिमली-मुनस्यारी-जौलजीबी-ग्वालदम सड़क, जो भारतमाला परियोजना का भी हिस्सा है, पर काम चल रहा है। इसी प्रकार मुनस्यारी-मिलम सड़क का कार्य प्रगति पर है।

लेकिन इन कार्यों को लेकर स्थानीय लोग सांसत में हैं। उत्तरकाशी जिले के भटवारी प्रखंड के ग्राम हरसिल की पूर्व ग्राम प्रधान बसंती नेगी (77) कहती हैं कि हमारे लिए करोड़ों रुपए खर्च करने की जरूरत नहीं है, बल्कि हमें बुनियादी सुविधाएं दे दी जाएं तो हम गांव में रह कर ही सीमा की रखवाली कर सकते हैं। रोजगार का न होने के कारण क्षेत्र से युवा पलायन कर रहे हैं। जो बुजुर्ग गांवों में बचे हैं, उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं।

हर्सिल घाटी के आठ गांवों (सुक्की, झाला, हरसिल, जसपुर, बगोरी, धराली, मुखबा, पुराली) में स्वास्थ्य सुविधा नहीं है। कुछ लोग शिक्षा के बाद होमस्टे या अपना खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए लौटे हैं, लेकिन सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है। नेगी कहती हैं, "मेरे गांव से एक या दो किलोमीटर दूर बगोरी गांव को 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद ग्रामीणों द्वारा छोड़ दिया गया था। भविष्य में यदि युद्ध छिड़ जाता है, तो इसका खामियाजा गांव वालों को भुगतना पड़ेगा।"

ग्राम भल्ला सुकी के ग्राम प्रधान लक्ष्मण सिंह बुटोला भी कहते हैं कि भले ही बुनियादी ढांचा विकसित किया जाए, लेकिन आजीविका या रोजगार के अवसरों की कमी के कारण स्थानीय लोगों को ज्यादा फायदा नहीं हो सकता है। बुटोला कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं, बुनियादी शिक्षा और गांव के विकास की निगरानी सशस्त्र बलों द्वारा की जाए तो यह फायदेमंद होगा।

यहां यह खास बात है कि उत्तराखंड में पलायन बहुत तेजी से बढ़ा है और सीमावर्ती गांवों में भी पलायन चिंताजनक स्थिति तक पहुंच गया है। उत्तराखंड के ग्रामीण विकास और प्रवासन आयोग के अनुसार, 2008-2018 के बीच, 5.02 लाख लोगों ने पलायन किया, जिनमें से 50 प्रतिशत लोगों ने नौकरी की तलाश में अपना गांव छोड़ दिया, 16 प्रतिशत शिक्षा के लिए, 8 प्रतिशत बेहतर स्वास्थ्य सेवा के लिए, 6 प्रतिशत जंगली जानवरों के कारण, और कृषि उत्पादन में कमी के कारण 5 प्रतिशत गांवों को छोड़ दिया।

ऐसी स्थिति में सरकार यदि सीमावर्ती गांवों का भला चाहती है तो उसे सबसे पहले पलायन को रोकना होगा। देहरादून स्थित सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज फाउंडेशन के अनूप नौटियाल कहते हैं कि “जब तक सड़क, स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल और रोजगार जैसे बुनियादी ढांचे का निर्माण नहीं होगा, लोग गांवों में क्यों रहेंगे?

सीमावर्ती गांवों में विकास की मंशा पर पर्यावरणविद् भी सवाल उठा रहे हैं। उत्तराखंड यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टीकल्चर एंड फॉरेस्ट्री, रानीचौरी के नेचुरल रिसोर्स मैनजमेंट विभाग के प्रमुख सरस्वती प्रकाश सती कहते हैं कि जीवंत ग्राम योजना को राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, लेकिन अत्यंत संवेदनशील हिमालयी राज्यों में सड़कों का अंधाधुंध चौड़ीकरण को विकास नहीं कहा जा सकता। ऐसे विकास के गंभीर पारिस्थितिक परिणाम हो सकते हैं। उत्तराखंड के अधिकांश हिस्सों में, हमने पहले ही नए भूस्खलन क्षेत्रों, पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में बिन बुलाए आपदाओं, चल रही पहाड़ी कटाई, अनियोजित बहुत अधिक डंपिंग, कटाव और बड़ी संख्या में जलविद्युत परियोजनाओं के प्रभाव को देखा है।

अनूप नौटियाल भी कहते हैं कि पहाड़ी क्षेत्रों में विकास करने से पहले पर्यावरण का खास ख्याल रखा जाना चाहिए। जाने-माने पर्यावरण इतिहासकार शेखर पाठक का कहना है कि बहुत अधिक विकास से नुकसान हो सकता है क्योंकि ये परियोजनाएं आपदाओं को आमंत्रित करती हैं क्योंकि ये पर्यावरण से समझौता करके विकसित की जाती हैं। वह मिलम-लिपुलेख सड़क के निर्माण पर अपनी चिंता जताते हुए कहते हैं कि इससे लोगों के जीवन, उनकी आजीविका, कृषि पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दिखाई देगा।

पिथौरागढ़ में हिमालय की कंजर्वेशन एंड सस्टेनेबिलिटी पर काम कर रहे मनोज मटवाल कहते हैं कि हिमालय जैसी सरचनाओं के भू-गर्भ को संतुलित होने में करोड़ों वर्ष लगते हैं। ऐसे में अनियंत्रित तरीके से बनायी गयी सड़कें महज कुछ ही समय में पूरे तंत्र को अंसतुलित कर देती हैं, जिसका ताजा उदाहरण चारधाम योजना के दौरान भी देखा गया है, जिसने हिमालयी पारिस्थितकी आम जनमानस और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को और गंभीर बना दिया है ।

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